फोटो (साभार गूगल) |
सुनहु बिभीषन प्रभु कै रीती। करहिं सदा सेवक पर प्रीती।।
कहहु कवन मैं परम कुलीना। कपि चंचल सबहीं बिधि हीना।।
प्रात लेइ जो नाम हमारा। तेहि दिन ताहि न मिलै अहारा।।
अस मैं अधम सखा सुनु मोहू पर रघुबीर।
कीन्ही कृपा सुमिरि गुन भरे बिलोचन नीर।।
ये पंक्तियाँ हनुमानजी ने विभीषण जी को आश्वस्त करते हुए तब कहीं जब विभीषणजी ने कहा कि हे पवनसुत ! मैं तो लंका में उसी तरह रहता हूँ जैसे अनेक दाँतों के बीच में बेचारी जीभ रहती है। हे तात, क्या कभी मुझे अनाथ जान कर श्रीराम मुझपर कृपा करेंगे ? तामसी शरीर है, कोई साधन नहीं है और न ही उनके पद कमल में आप जैसी प्रीती है। पर अब मुझे भरोसा हो चला है क्योंकि यदि उनकी कृपा न होती तो आप जैसे संत मुझे न मिलते। तब हनुमान जी ने उनको समझाते हुए उपरोक्त पंक्तियाँ कहीं कि हे विभीषण सुनिए, प्रभु का स्वभाव ही है कि वे अपने सेवक पर स्नेह रखते हैं चाहे वह कोई भी हो। अब मैं कौन सा परम कुलीन हूँ ? चंचल और सब तरह से हीन बन्दर हूँ। जो भी प्रातः हमारा नाम लेता है उसे उस दिन आहार भी नहीं मिलता।
अब हमें यहाँ इतना भी सरल नहीं होना चाहिये कि शब्दार्थ को ही सत्य मान लें। हमें प्रसंग और हनुमानजी का स्वाभाव भी याद रखना चाहिए। हनुमानजी बल, बुद्धि, विवेक और विद्या से परिपूर्ण हैं फिर भी उनमें लेश मात्र का भी अहंकार नहीं है। याद कीजिये, अशोक वाटिका में माता सीता को भरोसा दिलाने के लिए उन्होंने विशालकाय रूप दिखाया था,
कनक भूधराकार सरीरा। समर भयंकर अतिबल बीरा।।
पर फिर भी उन्होंने अहंकार नहीं विनम्रता दिखाई थी और कहा था - माता सुनो, मैं तो साखामृग (बन्दर) हूँ, बल-बुद्धि ज्यादा नहीं है पर प्रभु की कृपा से सब संभव है।
हनुमान जी की विनम्रता का एक और उदहारण है जब वे माता सीता का पता लगा कर श्रीरामजी के पास लौटते हैं। प्रभु प्रसन्न हो कर उन्हें गले से लगाते हैं और पास बिठाते हैं फिर पूछते हैं - हे हनुमान, भला रावण की लंका के विशाल दुर्ग को आपने कैसे जला डाला ?
यहाँ कोई दूसरा होता तो अपने बल-बुद्धि की खूब डींग हाँकता आखिर काम ही ऐसा किया था। उनके काम की प्रशंशा जामवन्त जी ने इस प्रकार रामजी से की,
नाथ पवनसुत किन्हीं जो करनी । सहसऊँ मुख न जाई सो बरनी ।।
अर्थात् हे नाथ, पवनसुत ने जो कार्य किया है उसका वर्णन हज़ारों मुख से भी नहीं किया जा सकता । पर श्रीहनुमानजी की विनम्रता और अहंकार रहित वाणी को देखिये। कहते हैं - प्रभु मैं तो शाखामृग हूँ, बहुत बल दिखाऊंगा तो एक डाल से दूसरे डाल पर कूदूंगा भला मेरी क्या औकात ? अगर मैंने समुद्र लांघ कर लंका जलाई, राक्षसों को मारकर वाटिका उजाड़ी तो इसमें मेरी कोई बड़ाई नहीं है। प्रभु, यह सब आपका प्रताप है।
तो विनम्रतापूर्वक श्रीहनुमानजी जब स्वयं कोई नाम या क्रेडिट नहीं लेते या स्वयं को छोटा या अधम बताते हैं तो वास्तव में वैसा नहीं है, यह उनकी बड़ाई है। तो जब वे विभीषण को कहते हैं कि जो प्रातः हमारा नाम लेता है उसे दिनभर भोजन नहीं मिलता तो ऐसा सत्य में नहीं है। समाज में जो एक कहावत है कि प्रातः काल बन्दर का नाम लेने से दिनभर भोजन नहीं मिलता, उसी का सहारा लेकर महावीर हनुमान अपनी वाणी को विनम्रता से परिपूर्ण कर देते हैं। उसी समय वे स्वयं को कुलीन भी नहीं कहते, सब विधि से नीच चंचल बन्दर भी कहते हैं और तो और स्वयं को अधम भी कहते हैं। ऐसा है क्या ? भला श्रीहनुमान कोई साधारण बन्दर हैं? वे पवन देवता के पुत्र हैं, बचपन में ही आकाश में उड़कर सूर्य को निगलने वाले हैं, समुद्र लांघकर रावण जैसे महाबली के सामने ही उसकी लंका को जला डालने वाले हैं और उनके महानायक जैसे कारनामों से तो रामायण और रामचरितमानस भरे पड़े हैं। भारत का जन-जन श्रीहनुमानजी को पूजता है, क्यों? क्योंकि भगवान राम श्रीहनुमानजी के हृदय में बसते हैं। भले ही अवतारी मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम जी इस धरती पर लीला पूर्ण कर सरयू माता की गोद में चले गए हों पर अमरता का वरदान पाये श्रीहनुमान जी में वे सदा बसते हैं। भगवान शिव का रुद्रावतार हैं वे ।
श्रीहनुमान स्वयं राममय हैं। भला वे प्रातः स्मरणीय न होंगे तो और कौन होगा ?
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