Monday, February 12, 2018

A Topic from Geeta :: गीता - ज्ञान, क्या कर्म फल ही ईश्वर देते हैं?

कर्म फल 

गीता (चित्र गूगल से साभार)

                हिन्दू कर्म फल में विश्वास रखते हैं। अर्थात, मनुष्य जैसा कर्म करता है, ईश्वर उसे वैसा ही फल देते हैं।  समाज में यह विश्वास इतना गहरा है कि सामान्य बोलचाल, साहित्य एवं अन्य माध्यमों में भी यह अभिव्यक्ति सहज ही देखने को मिलती है। रामचरित मानस  में बाबा तुलसीदास कहते हैं,  

कर्मप्रधान विश्व रची राखा।

जो जस करहीं सो तस फल चाखा।।

अर्थात भगवान ने इस संसार में कर्म की ही प्रधानता रखी है। जो जैसा कर्म करेगा वह वैसा ही फल पायेगा। 

              फिल्में समाज का आइना होती हैं। संन्यासी नाम की एक फिल्म में कर्म के विषय में यह गाना गाया गया है,

कर्म किये जा फल की चिंता मत कर  ऐ इंसान,

जैसा कर्म करेगा वैसा फल देंगे भगवान्,

ये है गीता का ज्ञान, ये है गीता का ज्ञान।    

 अर्थात बिना फल की चिंता किये तू कर्म किये जा और जैसे तू कर्म करेगा वैसा ही फल तुझे भगवान् देंगे। यही गीता का ज्ञान है।

                 आइये देखें, गीता के निम्नलिखित प्रसिद्ध श्लोक से प्रेरित ये वचन कहाँ तक मूल भावना से मेल खाते हैं;

कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते सङ्गोऽस्त्वकर्मणि॥ २-४७

 अर्थात तेरा कर्म करने में ही अधिकार है न कि कर्मफल में। कर्मफल को अपना उद्देश्य मत बना और न ही अकर्म में तेरी रुचि हो। 

                    भगवान श्रीकृष्ण के इस कथन और ऊपर की कविताओं में समानता और भिन्नता स्पष्ट है। जहाँ सभी में कर्म की, निष्काम कर्म करने की सलाह दी गई है, वहीं भिन्नता यह है कि ऊपर की कविताओं में जैसा कर्म, वैसा फल ईश्वर के द्वारा देने की बात कही गई है जब कि श्री कृष्ण द्वारा अकर्म की बजाय कर्म करने की सलाह दी गई है। कर्म कैसा हो ? जो कर्म भगवान् को ध्यान में रख कर किया गया हो, जो कर्म ईश्वर को समर्पित हो। गृहस्थ आश्रम में रहते हुए भी, ईश्वर का चिंतन करते हुए, ईश्वर के चरणों में प्रेम रखते हुए अपने कर्तव्यों का पालन करते जाना भगवान को पाने का मार्ग है। यदि कोई राजा प्रजा की भलाई के लिए किसी लुटेरे को दंड देता है तो वह क्षत्रिय धर्म का पालन करता है। उसे किसी सन्यासी की तरह हिंसा - अहिंसा का विचार करना उचित नहीं। दंड दे कर वह अपने कर्म का पालन करता है और यही ईश्वर के द्वारा बताया गया मार्ग भी है। 

            भगवन ने यह नहीं कहा है की जैसा कर्म करोगे वैसा ही फल तुझे दूंगा।  यह कहना कर्म के फल के प्रति व्यक्ति की आसक्ति को बढ़ाएगा। जब लोकोक्तियों में यह कहा जाता है कि "जो जस करहीं सो तस फल चाखा" अथवा "जैसा कर्म करेगा वैसा फल देंगे भगवान" तब आदमी अच्छे फल की प्राप्ति को ध्यान में रखते हुए अच्छे कर्म करना चाहता है, यह निष्काम कर्म तो नहीं हुआ। ऐसी धारणा वाले व्यक्ति को सद्कर्म करते हुए भी जब कभी अभीष्ट फल नहीं मिलता तो वह कुंठित होता है। कभी वह ईश्वर पर अन्याय का आरोप लगता है तो कभी अपने पूर्व जन्मों के कर्म के कारण सही फल न मिलने का दोष स्वयं को देता है। कुछ लोग तो अगले जन्मों तक कर्मफल का इंतजार करने के लिए तैयार रहते हैं - चलो इस जन्म में न सही अगले जन्म में अच्छे फल मिलेंगे। 

                लेकिन यह सोच सही नहीं है। गीता में स्वयं भगवान श्री कृष्ण ने अर्जुन से कहा था, कर्ता भी मैं ही हूँ, करने का प्रभाव भी मैं ही झेलता हूँ। जो मार रहा है वह भी मैं हूँ, जो मर रहा है वो भी मैं ही हूँ। अतः तू कर्तापन का अभिमान छोड़ दे। 

               जब व्यक्ति अपने द्वारा किये गए कर्मों का हिसाब रखने लगता है तो उसमें कर्तापन का अभिमान होता है। मैंने ऐसा कर्म किया, मुझे ऐसा फल मिलना चाहिए था - यह कर्तापन का अभिमान है। तुमने किया ? अरे यह संसार तो ईश्वर का बनाया हुआ है, तुम स्वयं तो ईश्वर के बनाये हुए हो। जब सृष्टि के पूर्व केवल ईश्वर ही थे तो स्पष्ट है कि यह संसार और तुम ईश्वर के अंश से ही बने हो, फिर यह "मैं" कहाँ आता है ? अतः जब तुम्हारी इच्छानुसार फल नहीं मिलते तो इसे भगवान की इच्छा जानो। क्योंकि जो भी होता है, जो भी हो रहा है सब ईश्वर की मर्जी है, क्योंकि यह सृष्टि उसी की है। अभीष्ट फल न मिले तो उसके लिए स्वयं को दोष मत दो और न दोष दो भगवान् को। क्योंकि भगवान् के पास कोई व्यापारी की दूकान तो नहीं कि माप कर तुम्हारे कर्मों को देखें और बदले में माप कर तुम्हें  कर्मफल दें। यद्यपि व्यावहारिक जीवन में बहुत हद तक ऐसा देखने को मिलता है कि यदि तुम किसी की भलाई करो तो वह भी बदले में तुम्हारा भला करना चाहेगा और यदि किसी की बुराई करो तो वह भी वैसा ही बदला लेना चाहेगा। किन्तु यह भी हमेशा नहीं होता। प्रायः व्यक्ति अपने स्वार्थ को ध्यान में रख कर काम करता है। क्या यह उचित है कि कोई व्यक्ति गरीबों की सेवा इसलिए करे कि ईश्वर उसके इस सत्कर्म का फल उसके व्यापार में दिन दूनी रात चौगुनी बढ़ोत्तरी कर के दे ? फल की इच्छा रखते हुए कर्म करना उचित नहीं। 

              यद्यपि सकाम कर्म के पूर्ण होने के बारे में चतुर्थ अध्याय के 12 वें श्लोक में यह कहा गया है:--
काङ्‍क्षन्तः कर्मणां सिद्धिं यजन्त इह देवताः ।

क्षिप्रं हि मानुषे लोके सिद्धिर्भवति कर्मजा ॥

   अर्थात - इस संसार में मनुष्य फल की इच्छा से यज्ञ करते हैं और फल की प्राप्ति के लिए देवताओं की पूजा करते हैं क्योंकि उनको कर्मों से उत्पन्न होने वाली सिद्धि शीघ्र मिल जाती है। 

                    यहाँ भी सकाम कर्म का फल, मात्र कर्म करने से ही नहीं बताई गई है बल्कि यज्ञ -पूजा इत्यादि से देवताओं के प्रसन्न होने पर ही यह सिद्धि प्राप्त होती है। यह भी ध्यान देने योग्य बात है कि श्री कृष्ण ने यह लोक -परम्परा की बात कही है, इसका अनुमोदन नहीं किया है।          

              ईश्वर किसे क्या देगा, कब देगा यह हम नहीं जानते, और न समझ सकते हैं। यह श्रीमद्भागवत महापुराण के दो प्रसंगों से स्पष्ट होगा जिसे मैं यहाँ रखता हूँ:-

                 पहला प्रसंग है जड़भरत का। दो जन्म पूर्व ये एक ऋषि थे जो हरिहर क्षेत्र में गण्डकी नदी के किनारे रहते हुए भगवान का ध्यान करते थे, शालिग्राम की पूजा और जप तप में लगे रहते थे।पूरा ध्यान ईश्वर में लगाये रखते थे। एक दिन नदी में एक गर्भवती हिरणी पानी पीने आयी, तभी एक शेर की दहाड़ सुनकर उसने नदी पार करने के लिए छलांग लगा दी। लेकिन इतने में हिरणी के गर्भ से बच्चा बाहर आ गया और पानी में गिर गया। हिरणी भी भाग कर पास की एक गुफा में गयी और वहीं मर गई। हिरणी के बच्चे पर ऋषि को दया आ गई। उसे पानी से निकाल कर ले गए। उसकी सेवा की और पालन करने लगे। पर उस हिरणी के बच्चे से उन्हें मोह हो गया। हमेशा उनका ध्यान बच्चे पर ही लगा रहता। जो ध्यान वे प्रभु के चरणों में लगाए रखते थे अब वह बंट गया। पूजा के समय भी मन में लगा रहता कि छोटा हिरण सुरक्षित तो है न। जब बच्चा बड़ा हुआ तो एक दिन हिरणों का झुंड विचरते हुए आश्रम के पास आया। हिरणी का बच्चा उस झुंड के साथ लग कर चला गया। ऋषि उसके जाने से बहुत दुःखी हुए। कुछ दिनों बाद अपनी आयु पूरी कर ऋषि परलोक सिधारे। पर अंत समय में भी उनके मन से वह हिरणी का बच्चा न निकला था। अगले जन्म में वह ऋषि मृग की योनि में पैदा हुए। पर तप के प्रभाव से उन्हें पूर्व जन्म की घटनाएं याद थीं। कुछ बड़े होने पर उसी क्षेत्र में ऋषि पुलह और पुलत्स्य के आश्रम के समीप रहने लगे। जो भी मिलता खा लेते और अंत समय की प्रतीक्षा करने लगे। फिर एक दिन आधा शरीर गण्डकी नदी के पानी में डुबोकर रखते हुए भोजन त्याग दिया और कुछ समय पश्चात् हिरण का शरीर भी छोड़ दिया। तीसरे जन्म में वे फिर मनुष्य योनि में आये। उन्हें सब कुछ याद था। अतः दुनियादारी में न पड़े। नाम तो रखा गया भरत पर जड़-बुद्धि जैसी हरकत किया करते, अतः सब उन्हें जड़भरत के नाम से पुकारते। जड़भरत और उनके राजा रहुगण से भेंट की कहानी आगे भी है पर हम उसमे नहीं जाते।  हमारा उद्देश्य यह बताना था कि ऋषि ने हमेशा भगवान की पूजा और जप-तप किया। मृगशावक से मोह तो किया पर कोई पापकर्म तो नहीं किया। फिर भी उन्हें भगवान के चरणों में स्थान न मिला और न मिला मोक्ष। उन्हें मृगयोनि में जन्म लेना पड़ा।  

             दूसरा प्रसंग है अजामिल का। श्रीमद्भागवत महापुराण में यह अजमिलोपाख्यान के नाम से वर्णित है। कहानी लम्बी है, यहाँ हम इसे संक्षेप में देते हैं। ब्राह्मण कुल में जन्म लेने वाला अजामिल सत्कर्म एवं धर्मपथ पर चलनेवाला था। एक बार वन से समिधा एवं फल - फूल ले कर लौटते समय उसने एक व्यक्ति को मदिरापान कर किसी वेश्या के साथ विहार करते हुए देखा। यहाँ से उसका मन परिवर्तन होने लगा और वेश्या के प्रति उसकी आसक्ति बढ़ने लगी। आखिर उससे न रहा गया और अपनी सुशील पत्नी को त्याग, लोक -लज्जा को त्याग धर्मपथ पर चलने वाला वह ब्राह्मण उस वेश्या के साथ रहने लगा; कुमार्गगामी हो गया। पिता की सारी सम्पत्ति उस वेश्या और उसके परिवार पर खर्च कर दी। जब कुछ न रहा तो सही गलत तरीके से जैसे भी हो धन लाता और उस पर खर्च करता। गांव वालों ने उसे गांव से बाहर कर दिया था। गांव से बाहर ही वह उस वेश्या के साथ रहता। 

                   बहुत दिन बीते एक बार कुछ संत महात्माओं का दल गांव के पास से गुजर रहा था। संध्या होने को आ रही थी। गांव के कुछ लोग मिले तो रात्रि विश्राम के लिए किसी ब्राह्मण का घर पूछा। उन ग्रामीणों को मजाक सूझा और कहा कि सबसे उत्तम ब्राह्मण तो अजामिल है। इतना भक्त है कि गांव से बहार ही रहता है। संतजन उन पर विश्वास कर अजामिल के दरवाजे पर गए। रात्रि विश्राम हेतु आश्रय माँगा। पुराने संस्कारों की वजह से वह ना न कह सका। उनके सोने का इंतज़ाम किया। अच्छा भोजन बनवाया। सोने से पहले संतजनों ने भजन कीर्तन किया। सबेरे विदा लेते समय संतों ने अजामिल का धन्यवाद किया। अजामिल की आँखों से आँसू बाह निकले। बोला -महात्मन, मैं तो वेश्यागामी, कुमार्गगामी ब्राह्मण हूँ। इतने पापकर्म किये हैं कि गांव वालों ने मुझे गांव से बाहर ही रखा है। संतों को उस पर दया आ गयी। पूछा तेरे कोई छोटा बच्चा है? बोला-मेरी पत्नी अभी गर्भवती है। संतों ने कहा, ठीक है इसबार बच्चे के आने पर उसका नाम नारायण रखना, फिर वे चले गए। अजामिल ने ऐसा ही किया। बहुत दिनों से उसकी बुद्धि और संस्कारों पर पड़ा पर्दा संतों के आगमन, भजन कीर्तन सुनकर हट गया। छोटे बच्चे नारायण पर पूरा ध्यान रहता। और बात बात में उसे पुकारने के लिए उसका नाम लेता - नारायण, नारायण। कुछ समय बीते होंगे कि एक दिन अजामिल ने देखा कि तीन यमदूत उसके प्राण लेने सामने खड़े हैं। वह डर गया। किसी को पास न देखकर कुछ दूरी पर खेलते हुए बच्चे को देख कर चिल्लाया-नारायण, नारायण मुझे बचा। उसी समय भगवान के पार्षद वहाँ से गुजर रहे थे। उन्होंने यमदूतों को रोका। यमदूतों ने कहा - पार्षदों, इसने बहुत से पाप कर्म किये हैं। इसका अंत समय आ गया है, अतः यमराज की आज्ञा से हमलोग इसे यमलोक ले जाने आये हैं। यह तो बच्चे नारायण का नाम ले कर पुकार रहा था। पार्षदों ने कहा -तुमलोगों का कहना सही है। पर भगवत्नाम की महिमा ऐसी है कि अन्तसमय में इसे उच्चारण करने वाला नारायण के पास ही जायेगा। और वे पार्षद अजामिल को अपने साथ ले कर वैकुण्ठ चले गये। 

                    तो अजामिल ने लम्बे समय तक वेश्यागमन किया, पापकर्म किया किन्तु उसके हिसाब से तो उसे फल नहीं मिला। बल्कि वह सर्वोत्तम, बड़े बड़े ऋषियोँ , मुनियोँ और महात्माओं के अथक पुण्यकर्म के पश्चात भी दुर्लभता से प्राप्त होने वाले वैकुण्ठ को सहज ही प्राप्त हो गया। तो फिर "जो जस करहीं सो तस फल चाखा" कैसे हुआ? इसीलिए भगवान ने कहा कि, (पुनरावृत्ति कर रहा हूँ)    

 कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन । मा कर्मफलहेतुर्भुर्मा ते संगोऽस्त्वकर्मणि ॥

           अर्थात, तेरा कर्म करने में ही अधिकार है, उसके फलों में नहीं।  अतः तू कर्म, फल के हेतु मत कर तथा कर्म न करने की ओर आसक्त न हो। 

               यह संसार ईश्वर का बनाया हुआ है। यह ब्रह्माण्ड ईश्वर का बनाया हुआ है। हम सभी को ईश्वर ने बनाया है। और किस चीज से बनाया है? चतुःश्लोकी भागवत में भगवन ने कहा है सृष्टि के पूर्व सिर्फ मैं ही था, सृष्टि के बाद भी सिर्फ मैं ही रहूँगा। तो स्पष्ट है की जो कुछ भी हम देखते और अनुभव करते हैं वह सब ईश्वर ने स्वयं से बनाया क्योंकि कुछ और तो था ही नहीं। हम भी उसी ईश्वर के अंश हैं। जो हम करते हैं वह हम नहीं, ईश्वर ही करते हैं। अतः हमें कर्तापन का अभिमान नहीं करना चाहिए। यह सत्कर्म मैंने किया, वह पापकर्म उसने किया यह सोचना ठीक नहीं। न तो यह सोचना सही है कि,"मैंने इतने अच्छे कर्म किये, पाप कर्म नहीं किये फिर भी भगवन मुझे कष्ट दे रहे हैं।" और न यह सोचना कि "मैंने ही कुछ पूर्व जन्म में पाप किये होंगे जो मुझे इतना कष्ट उठाना पड़ रहा है।" अर्थात न तो ईश्वर को दोष देना सही है न स्वयं को दोष दे कर कुंठित होने की। 

तस्मादसक्तः सततं कार्यं कर्म समाचर ।

असक्तो ह्याचरन्कर्म परमाप्नोति पुरुषः ॥

 अर्थात - कर्म-फ़ल में आसक्त हुए बिना मनुष्य को अपना कर्तव्य समझ कर कर्म करते रहना चाहिये क्योंकि अनासक्त भाव से निरन्तर कर्तव्य-कर्म करने से मनुष्य को एक दिन परमात्मा की प्रप्ति हो जाती है।                                          

                         हम सिर्फ पांच ज्ञानेन्द्रियों के सहारे ही समझ सकते हैं। यह ज्ञानेन्द्रियाँ हमें सिर्फ पृथ्वी के वातावरण के हिसाब से मिले हैं। पर क्या इस ब्रह्माण्ड को बनाने वाले को हम सिर्फ इन पांच ज्ञानेन्द्रियों से समझ सकते हैं? नहीं। न तो हम कभी ईश्वर को पूरी तरह समझ सकते हैं और न उनके क्रिया-कलापों को। इस संसार, सृष्टि, ब्रह्माण्ड का मालिक ईश्वर है, तो अपनी चीजों के साथ वे जो भी करें उससे उन्हें कौन रोक सकता है। हम कर्मफल का दावा नहीं कर सकते। 

              हम तो सिर्फ जो भी कर्म करें ईश्वर के प्रति समर्पित हो कर करें। हमेशा भगवान के चरणों में प्रीति रखें ताकि अंत समय में भी हमें ईश्वर ही याद रहें और शरीर त्यागने के पश्चात् उनके चरणों में स्थान मिले।         

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