Saturday, November 2, 2019

महापर्व छठ - The great festival of Chhath

सांध्यकालीन अर्घ्य के समय एक छठ पूजा समिति द्वारा लगाया गया भगवान् आदित्य की अस्थायी प्रतिमा 

आदित्यं गणनाथं च देवीं रूद्रं च केशवम्।

पंचदैवतमित्युक्तं   सर्वकर्मसु   पूजयेत् ।।



    आदित्य (सूर्य), गणेश, भगवती (दुर्गा), रूद्र (शिव) एवं विष्णु - इन पंचदेवताओं की हर प्रकार की पूजा में पूजन किया जाता है। इनमे से सूर्य प्रत्यक्ष देवता हैं जो इस धरा पर जीवन की उत्पत्ति एवं पालन पोषण से सम्बंधित हैं। यह मात्र आस्था नहीं है बल्कि विज्ञान से भी पुष्ट है। भगवन सूर्य को समर्पित छठ का पर्व बिहार, झारखण्ड और पूर्वांचल का महापर्व है और संस्कृति में रची बसी है| चार दिनों का यह कठिन एवं परम आस्था का पर्व बिना परिवार और समाज की सहायता के करना दुष्कर है। इसीलिए दूर -दूर में रह कर पढ़नेवाले या जीविकोपार्जन करनेवाले छठ में अपने गाँव घर अवश्य आते हैं।
प्रातःकालीन सूर्योदय की प्रतीक्षा ताकि
अर्घ्य दी जा सके
 

       मुख्य रूप में यह सूर्य की पूजा है किन्तु छठ को सूर्य की बहन माना जाता है। छठी मैय्या का यह पर्व पुत्र, धन-धान्य, उत्तम स्वास्थ्य एवं रोगों को दूर करने वाला है। छठ पर गाये जाने वाले गीतों का एक अलग ही स्वर होता है जिनमे प्रतिवर्ष ये प्रसिद्ध गीत अवश्य गए जाते हैं:-
१. काँच ही बाँस के बहँगी, बहँगी लचकत जाये .........
२. उग हे सुरुज देव अरघ के बेर ............

ठेकुआ प्रसाद बनाने की तैयारी, Thekua 
          यद्यपि छठ का पर्व वर्ष में दो बार मनाया जाता है पर यह सर्वाधिक कार्तिक मास में माया जाता है। कुछलोग चैत्र मास में भी मानते हैं जिसे चैती छठ बोला जाता है। दीपावली की अमावस के बाद छठ की तैयारियां शुरू हो जाती हैं। घाट -तालाब, गली-मोहल्ले की सफाई की जाती है। यूँ तो हिन्दू धर्म में शुचिता का महत्व है ही किन्तु छठ पर्व में शुचिता का विशेष महत्व होता है। प्रसाद के लिए गेहूं को धोना -सुखाना इस प्रकार कि उसे चिड़िया तक भी मुँह न मार सके, मिट्टी के चूल्हे और आम की जलावन लकड़ी का इंतज़ाम, फिर सुखे गेहूँ को पीसना। इन सब में पुरे परिवार के सदस्यों का सहयोग जरूरी होता है। चार दिनों का पर्व इस प्रकार होता है:-

१.पहला दिन - नहाय -खाय -- बोलचाल में इसे कद्दूभात भी बोला जाता है। कार्तिक शुक्ल चतुर्थी को बिना खाये-पिए गंगा स्नान अथवा स्थानीय नदी, तालाब, कुआँ आदि में स्नान के पश्चात् नवीन वस्त्र धारण कर सूर्यदेव एवं छठी माता का ध्यान कर शाकाहारी भोजन किया जाता है। भोजन में चना एवं कद्दू (लौकी) की सब्जी खाने की परंपरा है। व्रती के भोजन के पश्चात ही घर के अन्य सदस्य भोजन ग्रहण करते हैं।
घाट पर जाने से पहले
छठी मैया के सूप /दौरा की धूप-दीप से पूजा

२. दूसरा दिन - खरना -- कार्तिक शुक्ल पञ्चमी को अन्न -जल ग्रहण किये बिना पूरा दिन उपवास किया जाता है। शाम को मिट्टी के चूल्हा में आम की लकड़ी से सादा और गुड़ वाली खीर बनाई जाती है। जिसे  सिन्दूर के साथ पूजा के बाद व्रती ग्रहण करते हैं। इस दिन से नमक चीनी का उपयोग बंद हो जाता है। खरना का दिन होली जैसा एक सामाजिक पर्व हो जाता है। सम्बन्धियों, पड़ोसियों और मित्रों को खरना का प्रसाद ग्रहण करने आमंत्रित किया जाता है। खरना का खीर - रोटी प्रसाद के रूप में पाकर लोग स्वयं को धन्य समझते हैं। 

३. तीसरा दिन - सायंकालीन अर्घ्य -- कार्तिक शुक्ल षष्ठी को अन्न-जल ग्रहण किये बिना व्रत जारी रहता है। प्रसाद में गेहूं का ठेकुआ बनाया जाता है। बांस की टोकरी और सूप में फल, ठेकुआ और नाना प्रकार की सब्जियां सजाई जाती हैं। जैसे सकरकंद, मूली, गाजर, सुथनी, टाभा नीम्बू, हल्दी, गन्ना, केला, सेव, नारियल, इत्यादि। इस टोकरी पर मिट्टी का दीप जलाकर और सिन्दूर के साथ पूजा की जाती है। शाम को व्रती और परिवार के सदस्य टोकरी के साथ नदी, तालाब या समुद्र के किनारे जाते हैं और स्नानकर जल में खड़े हो कर डूबते सूर्य को अर्घ्य देते हैं। बच्चों द्वारा दिवाली के बचे खुचे पटाखे भी घाट पर छोड़े  हैं। 
अर्घ्य के बाद दीपदान

४. चौथा दिन - प्रातःकालीन अर्घ्य -- अगली सुबह अर्थात सप्तमी को भी उगते हुए सूर्य के साथ अर्घ्य की वही प्रक्रिया दोहराई जाती है और इसके साथ ही छठ महापर्व का समापन होता है। घाट पर आग सुलगाकर होम किया जाता है। विवाहित महिलाएं व्रती से सिन्दूर पहनती हैं। घाट पर से ही प्रसाद का वितरण शुरू हो जाता है। इस प्रकार खरना के बाद लगभग ३६ घंटे का निराहार एवं निर्जल उपवास व्रती को रखना होता है।  

         दंड प्रणाम - कुछ श्रद्धालु मनोकामना पूर्ण करने हेतु दंड -प्रणाम गच्छते हैं। मनोकामना पूर्ण होने पर पूरा शरीर लेटते हुए घाट पर जाकर सूर्य भगवान को अर्घ्य देते हैं। इसे कष्टि भी कहा जाता है। 
        बदलते समय में जब नदी -तालाब प्रदूषित हो रहे हैं विशेष कर बड़े शहरों के आसपास, लोग कृत्रिम सामूहिक छोटे तालाब बनाकर अर्घ्य देते हैं। कुछ लोग छत पर पानी का हौद बनाकर भी अर्घ्य देने लगे हैं। जगह जगह छठ पूजा समिति का गठन कर साफ़ सफाई और भीड़ नियंत्रण का कार्य भी किया जाता है। 
         छठ पर्व की महिमा अपार है जिसमे लोगों की श्रद्धा बढ़ती ही जा रही है। अब तो यह गैर -बिहारियों द्वारा भी किया जाने लगा है। मनोकामना पूर्ण होने पर कुछ गैर-हिन्दू भी इसे करते हैं।   

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Monday, September 30, 2019

भगवती प्रार्थना - बिहारी गीत (पाँच वरदानों के लिए)

माँ महिषासुर मर्दिनी
            नवरात्रि के पावन अवसर पर भक्तजन माँ दुर्गा की पूजा - आराधना, व्रत - उपवास और स्तुति - प्रार्थना में लीन हो जाते हैं। जहाँ पुरुष सदस्य श्रीदुर्गासप्तशती के पाठ से माँ को प्रसन्न करते हैं वहीँ महिलाएँ अनेक कर्णप्रिय भजन और गीतों के माध्यम से माँ महामाया की स्तुति - प्रार्थना कर उन्हें प्रसन्न करती हैं साथ ही गीतों के माध्यम से प्रसन्न हुई माँ से वरदान माँगती हैं और मनोकामना पूर्ण करने प्रार्थना करती हैं। बिहार में महिलाओं द्वारा गाये जानेवाले ऐसे ही गीतों में से एक यहाँ दे रहा हूँ जिसमें माँ भगवती को करबद्ध प्रार्थना करते हुए उनसे सुखी जीवन के लिए पाँच वरदान देने की विनती की गई है :- 





बिनती सुनिये हे महारानी हम कर जोड़े खड़ी ना |
बिनती सुनिये हे महारानी हम कर जोड़े खड़ी ना ||

प्रथम वर मांगू माँ हे सिथि के सिंदुरवा, से सुनलियो माता हे 
बिनती सुनिये हे महारानी हम कर जोड़े खड़ी ना |1|

दूसर वर मांगू माँ हे गोदी के बालकबा, से सुन लियो माता हे 
बिनती सुनिये हे महारानी हम कर जोड़े खड़ी ना |2|

तेसर वर मांगू माँ हे अन-धन सम्पति, से सुन लियो माता हे 
बिनती सुनिये हे महारानी हम कर जोड़े खड़ी ना |3|

चौथम वर मांगू माँ हे नहिरा सहोदर भाई, से सुन लियो माता हे
बिनती सुनिये हे महारानी हम कर जोड़े खड़ी ना |4|

पंचम वर मांगू माँ हे सब मन-मनोरथ, से सुन लियो माता हे
बिनती सुनिये हे महारानी हम कर जोड़े खड़ी ना |5|

बिनती सुनिये हे महारानी हम कर जोड़े खड़ी ना |
बिनती सुनिये हे महारानी हम कर जोड़े खड़ी ना ||


               भारतीय महिलाएँ न सिर्फ अपने पति, बच्चोँ एवं परिवार की शुभकामनाएँ चाहती हैं बल्कि माँ भवानी से अपने नैहर (पीहर) और भाइयों की मंगल - कामनायेँ करना भी नहीं भूलतीं। इस गीत के पहले वरदान में सिथि के सिंदुरवा का अर्थ है मांग का सिन्दूर।  अर्थात अपने पति की मंगलकामना। 
            दुसरे वरदान में गोदी के बालकवा अर्थात पुत्र की कामना /मंगलकामना कर रही हैं। 
            तीसरा वरदान अपने परिवार के लिए अन्न, धन और संपत्ति देने का आग्रह है। 
             चौथे वरदान में अपने नैहर में सहोदर भाई के लिए मंगल - कामनाएं करती हैं। 
              पांचवें वरदान में अपने सभी मनोकामनाओं को पूर्ण करने का आग्रह है।   
        यह गीत भारतीय संस्कारों से लबालब माँ की भावपूर्ण प्रार्थना है। माँ भवानी भक्तजनों की मनोकामनाएँ पूर्ण करें। 


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Thursday, July 11, 2019

सावन में पार्थिव शिवलिंग का अभिषेक

पार्थिव शिवलिंग
(चित्र गूगल से साभार)
           महादेव को प्रसन्न करने का एक उत्तम उपाय है पार्थिव शिवलिंग का अभिषेक, और वह भी सावन में। यह एक आसान उपाय है और फलदायी भी। सावन में महादेव की पूजा वैसे ही महत्वपूर्ण है। रामचरितमानस में भी भगवान् श्रीराम द्वारा पार्थिव शिवलिंग के पूजन का वर्णन दो बार मिलता है। एक वन - गमन के समय जब गंगा पार कर रहे थे (केवट प्रसङ्ग) और दूसरी बार लंका विजय के लिए प्रस्थान करने से पूर्व सेतुबंध रामेश्वरम में। भगवान श्रीराम द्वारा रामेश्वरम में शिव पूजा का भक्त हनुमान के प्रसङ्ग में एक कथा विख्यात है। शिव पूजन का उचित समय जान कर प्रभु राम ने महावीर हनुमान को शिवलिङ्ग लाने भेजा। हनुमानजी सहर्ष शिवलिंग लाने गए। उन्हें सुन्दर शिवलिंग खोजने में देर हो गयी। इधर पूजन का समय निकलता जा रहा था। देर होती देख प्रभु राम ने मिट्टी का अर्थात पार्थिव शिवलिंग बनाकर महादेव का पूजन किया जिसमे १०१ कमल पुष्प अर्पित किये। इन्हीं १०१ कमल पुष्पों में से एक शिवजी ने प्रभु की परीक्षा हेतु छिपा दिए थे। एक कमल घटता देख प्रभु श्रीराम अपनी एक आँख शिवलिंग पर अर्पित करने को उद्यत हुए क्योंकि सभी उनकी आँखों की तुलना कमल से करते थे और उन्हें राजीवनयन भी कहते थे। यह देख महादेव बहुत ही प्रसन्न हुए और माँ भवानी सहित उन्हें दर्शन दिया तथा विजयी होने का आशीर्वाद दिया। इधर जब महावीर हनुमान शिवलिंग लेकर आये तो उनके शिवलिंग के स्थान पर पार्थिव शिवलिंग का पूजन देख दुखी हुए। प्रभु श्रीराम उन्हें दुखी देखकर बोले, "हनुमान ! आप दुखी ना होवें। पार्थिव शिवलिंग को हटाकर आप अपना लाया शिवलिंग स्थापित करें। हम उन्हें भी पूजेंगे।" यह सुनकर हनुमानजी ने पार्थिव शिवलिंग हटाने का प्रयास किया पर हटा न सके। अतुलित बल के धाम हनुमानजी ने अपनी पूंछ से मिट्टी के शिवलिंग को लपेटा और पूरा जोर लगा दिया। पर टस से मस न कर सके। तब महावीर हनुमान ने अपनी गलती समझी। जो भी शक्ति किसी में होती है वह उसकी नहीं होती वरन वह प्रभु की कृपा से होती है। उन्होंने प्रभु श्रीराम से क्षमा माँगी। प्रभु ने बगल में उनका लाया शिवलिंग भी स्थापित किया।   
          पार्थिव शिवलिंग का निर्माण एवं पूजन घर में भी किया जा सकता है और शिवालय, मंदिर अथवा नदी के किनारे भी। यदि घर में किया जाय तो शिवलिंग का आकार अँगूठे के बराबर रखना चाहिए। दूसरी जगहों पर अधिकतम छः इंच का रखना चाहिए। रुद्रष्टाध्यायी मन्त्र के साथ शिवलिंग का अभिषेक विभिन्न वस्तुओं से किया जा सकता है। यथा जल, गंगाजल, दूध, गन्ने का रस, शहद, इत्यादि। किस वस्तु से अभिषेक से क्या फल प्राप्त होता है इसे जानने के लिए पढ़ें →शिव -अभिषेक
          पूजन में नैवेद्य एवं प्रसाद यथा फल और मिठाई अर्पित करना चाहिए। चन्दनबिल्वपत्र, कनेर, तगर, गेंदा, गुलाब, अपराजिता एवं कमल का पुष्प शिवजी के शृंगार में उपयोग किया जा सकता है। शिवजी को प्रिय दूर्वा दल और भांग अर्पित करना चाहिए। महादेव को क्या प्रिय है यह जानने के लिए पढ़ें - भगवान शिव को क्या क्या प्रिय है ? जो नैवेद्य एवं प्रसाद शिवलिंग से सटाकर रखा जाये उसे ग्रहण नहीं किया जाता है। इसे विसर्जित कर देना चाहिए। जो शिवलिंग के पास में रखा जाये उसे ही पूजा के पश्चात् ग्रहण करना चाहिए।       
          पार्थिव शिवलिंग की पूजा, अभिषेक एवं आरती के पश्चात् इनका विसर्जन किसी नदी, तालाब अथवा समुद्र में करना चहिये। इस पूजा और विसर्जन से भक्त को अकाल मृत्यु का भय नहीं रहता है। यह शीघ्र विवाह, पुत्र -प्राप्ति, उत्तम स्वास्थ्य और धन देनेवाला होता है।
गोनूधाम, भागलपुर, बिहार
Image source, Google Map 
           

     पार्थिव शिवलिंग के निर्माण के लिए सबसे उत्तम मिट्टी गंगा नदी के तल की होती है। इसे मृत्तिका कहते हैं। भागलपुर रेलवे स्टेशन, बिहार से लगभग ११ किलोमीटर दूर गोनू धाम शिवालय में बना शिवलिंग पत्थर का नहीं वरन इसी मृत्तिका का बना होता है। गोनूधाम में दूर दूर से पहली ब्यायी गाय का पहला दूध महादेव को अर्पित करने लोग आते हैं। मान्यता है कि इससे गाय अधिक दूध देती है। 

           इसके अतिरिक्त किसी तालाब या पवित्र स्थल से प्राप्त मिट्टी को महीन चलनी या छननी से छानकर पंचगव्य के साथ मिलाकर आटे की लोई जैसे बनाकर दोनों हाथों से ऊँगली के आकर का शिवलिंग बनाया जाता है। पार्थिव शिवलिंग बनाने के विषय में पढ़ें → Parthiv  Shivlinga -पार्थिव शिवलिंग।  



































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Sunday, June 30, 2019

श्रीविद्या - सर्वोपरि मन्त्र साधना

(चित्र का स्रोत गूगल)
                  श्रीविद्या एक कठिन एवं गोपनीय साधना है। राजसिक तंत्र के श्रीकुल शाखा में श्रीविद्या की साधना की जाती है जो वस्तुतः माँ त्रिपुरसुन्दरी की साधना है। माँ त्रिपुरसुन्दरी परमेश्वरी आदिशक्ति हैं जिन्हें विभिन्न नामों से जाना जाता है। ललिता, राजराजेश्वरी एवं महालक्ष्मी भी यही परमेश्वरी हैं। श्रीयंत्र इसी साधना का हिस्सा है। 
          श्रीविद्या की तंत्र साधना एक सच्चे साधक को अपरिमित दैवीय शक्ति प्रदान करता है। यही कारण है कि इसे परम गुप्त एवं आमजनों से छिपा कर रखा गया है। इसे जानकार एवं ज्ञानी सिद्ध गुरु के बिना नहीं जाना जा सकता। श्री देव्यथर्वशीर्ष में भी श्रीविद्या का प्रसंग आता है। यह गीता प्रेस द्वारा प्रकाशित श्रीदुर्गासप्तशती में अर्थसहित समावेशित है। श्री देव्यथर्वशीर्ष अथर्ववेद में वर्णित है जहाँ इसकी बड़ी महिमा बताई गई है।इसके अंतर्गत जब देवगण भगवती से उनके बारे में पूछते हैं तो माता विस्तारपूर्वक उन्हें बताती हैं।  जिसका सारांश यह है कि इस चराचर जगत में और इसके बाहर जो कुछ भी है वह सब मैं ही हूँ। सब सुनने के बाद देवगण माँ की स्तुति करते हैं। इसी स्तुति में श्रीविद्या का यह मन्त्र भी समावेशित है :-

कामो योनिः कमला वज्रपाणिर्गुहा हसा मातरिश्वाभ्रमिन्द्रः। 
पुनर्गुहा सकला मायया च पुरूच्यैषा विश्वमातादिविद्योम् ||

              इसका शब्दार्थ इतना ही कहा जा सकता है कि यह सर्वात्मिका जगन्माता की मूलविद्या है और वह ब्रह्मरूपिणी है। इन के बारे मे कहा गया है कि ये परमात्मा की शक्ति हैं | ये विश्वमोहिनी हैं| पाश, अंकुश, धनुष और बाण धारण करनेवाली हैं। ये 'श्रीमहाविद्या' हैं। जो ऐसा जानता है, वह शोक को पार कर जाता है।
         इस मन्त्र के छः प्रकार के अर्थ 'नित्यषोडशीकार्णव' ग्रन्थ में बताये गए हैं - भावार्थ, वाच्यार्थ, सम्प्रदायार्थ, लौकिकार्थ,रहस्यार्थ और तत्वार्थ। 'वरिवस्यारहस्य' आदि ग्रंथों में इसके और भी अनेक अर्थ दिखाये गए हैं। श्रुति में भी ये मन्त्र इस प्रकार से अर्थात कुछ स्वरूपोच्चार, कुछ लक्षण और लक्षित लक्षणा  से और कहीं वर्ण के अलग अलग अवयव दर्शाकर जानबूझ कर विश्रृंखल रूप से कहे गए हैं। इससे यह पता चलता है कि ये मन्त्र कितने गोपनीय और महत्वपूर्ण हैं। 
         इसके सभी अर्थों का वर्णन यहाँ संभव नहीं है किन्तु इसका भावार्थ इस प्रकार है :-
        "शिवशक्त्यभेदरूपा, ब्रह्म - विष्णु - शिवात्मिका, सरस्वती - लक्ष्मी - गौरीरूपा, अशुद्ध -मिश्र -शुद्धोपासनात्मिका, समरसीभूत - शिवशक्त्यात्मक  ब्रह्मस्वरूप का निर्विकल्प ज्ञान देनेवाली, सर्वतत्वात्मिका महात्रिपुरसुन्दरी।"
             इसके शब्द, मन्त्र के बीज को भी निरूपित करते हैं जो इस प्रकार हैं :-
काम - (क)
योनि - (ए) 
कमला - (ई)
वज्रपाणि-इन्द्र  - (ल)
गुहा - (ह्रीं)
हसा - (ह), (स)
मातरिश्वा-वायु - (क)
अभ्र - (ह)
इन्द्र - (ल)
पुनः -गुहा - (ह्रीं)
सकला - (स), (क), (ल)
माया - (ह्रीं)

             मंत्रशास्त्र में पंचदशी आदि श्रीविद्या के नाम से यह प्रसिद्ध है। यह सब मन्त्रों का मुकुटमणि है अर्थात सबसे ऊपर है। 
(नोट - यह मुख्यतः गीताप्रेस से प्रकाशित श्रीदुर्गासप्तशती के देव्यथर्वशीर्ष से लिया गया है)  
          यहाँ श्रीविद्या के बारे बहुत ही संक्षेप में परिचय दिया गया है। इसकी साधना मात्र मंत्रो को पढ़कर नहीं की जा सकती। पारंगत और गुरुपरम्परा से ज्ञानी व्यक्ति ही इसकी साधना के पथ का मार्गदर्शक हो सकता है। इस साधना के पथ पर जाने की इच्छा रखने वाले व्यक्ति को पूर्ण समर्पित होना आवश्यक है और सच्चे पथप्रदर्शक गुरु की तलाश महत्वपूर्ण है। वह गुरु जो साधना के इच्छुक व्यक्ति में इस विद्या की धरणा की क्षमता को पहचान सके।      
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