Monday, April 6, 2020

सुन्दरकाण्ड के पाठ या श्रवण से हनुमान जी प्रसन्न होकर सब बाधा और कष्ट दूर करते हैं।

प्रनवउँ पवनकुमार खल बन पावक ग्यानघन।
जासु हृदय आगार बसहिं राम सर चाप धर।।
         हिन्दू समाज में सबसे अधिक लोकप्रिय देवता की बात की जाय तो हनुमानजी का ही नाम दिमाग में आता है। प्रायः चौराहों पर छोटा या बड़ा हनुमान मंदिर मिल ही जाता है। कारण है रामकथा और तुलसीदास जी द्वारा रचित श्रीरामचरितमानस जो जन जन के मन में बसा है। त्रेतायुग में हरि के राम अवतार के समय श्रीहनुमान जी का भी जन्म माता अंजनी के गर्भ से हुआ। पिता थे वानरराज केसरी किन्तु वे पवन देव अंश थे। इसीलिए उनमें पवन के समान बल था और पवनसुत भी कहलाये। बल, बुद्धि और ज्ञान से पूर्ण होने पर भी जो सबसे बड़ी विशेषता उनमें थी वह थी अहंकाररहित होना। माता सीता की खोज सहित असंख्य राम कार्य किये, यहाँ तक कि स्वयं श्रीराम ने उनका उपकार माना और कहा,

सुनु कपि तोहि समान उपकारी।
नहि कोउ सुर नर मुनि तनधारी।।
प्रतिउपकार   करौं   का   तोरा ।
सन्मुख होइ न सकत मन मोरा।।
सुनु सुत  तोहि  उरिन  मैं नाहीं ।
देखेउँ  करि  बिचार  मन माहीं ।।

            अर्थात, सुनो हनुमान! कोई भी देवता, मनुष्य, मुनि अथवा शरीर धारण करनेवाले तुम्हारे समान उपकारी नहीं हैं। तुमने जो मुझपर उपकार किया है समझ नहीं पाता उसका बदला मैं क्या करूँ। हे पुत्र, मैं तुम्हारा कर्ज़ नहीं चुका सकता यह मैं मन में विचार करके देख लिया है।
             प्रभु के ये बचन सुन कर श्रीहनुमान जी को अभिमान न हुआ बल्कि प्रसन्नता के वेग में उनकी आँखों से अविरल अश्रुधारा निकल पड़ी, बार बार श्रीराम को देखते हुए उनके चरणों में गिर पड़े। बार-बार प्रभु उन्हें उठाना चाहते हैं पर हनुमानजी का सिर है और प्रभु के चरणकमल हैं। आखिर भगवान उन्हें उठाकर हृदय से लगाते हैं पास बैठाते हैं और पूछते हैं, हे हनुमान बताओ तो कैसे इतना बड़ा समुद्र पार किया और रावण के द्वारा पालित लंका जलायी ? श्रीहनुमान जी ने बिना किसी अभिमान के कहा,


साखामृग   कै    बड़ी    मनुसाई।
साखा   तें   साखा   पर   जाई ।।
नाघि    सिंधु   हाटकपुर    जारा।
निसिचर गन बधि बिपिन उजारा।।
सो   सब     तव   प्रताप   रघुराई।
नाथ   न   कछू   मोरि   प्रभुताई।।
ता कहुँ प्रभु कछु अगम नहिं जा पर तुम्ह अनुकूल।
तव  प्रभावँ  बड़वानलहि  जारि  सकइ खलु तूल।।


   अर्थात, मैं तो साखामृग (बंदर) हूँ, इस डाल से उस डाल पर जा सकता हूँ। अगर समुद्र लाँघकर लंका जलाई और राक्षसों का वधकर अशोकवाटिका जलाई तो इसमें मेरी कोई बड़ाई नहीं है। यह सब आपके प्रताप का फल है प्रभु। जिसपर आपकी कृपा हो राघव उसके लिए कुछ भी असंभव नहीं है। आपके प्राभव से शीघ्र जलने वाली रुई भी बड़वानल (समुद्र के अंदर की भीषण आग) को समाप्त कर सकती है। 
            इसके बाद उन्होंने भगवान् श्री राम से माँगा,


नाथ भगति अति सुखदायनी। देहु कृपा करि अनपायनी।।

(हे प्रभु !आपकी भक्ति अत्यंत ही सुख देनेवाली है। कृपा करके अपनी निश्चल भक्ति मुझे दीजिये। )
यह सुनकर श्रीराम अत्यंत प्रसन्न हुए और एवमस्तु कहते हुए इच्छित वरदान दिया।  
            श्रीहनुमानजी के बल, बुद्धि और अहंकाररहित स्वाभाव से माता सीता (जो भगवती लक्ष्मी का अवतार थी) भी प्रसन्न हुईं थीं। जब हनुमानजी माता सीता को खोजते हुए लंका पहुंचे और अशोकवाटिका में परम दुखी सीता जी को प्रभु राम का सन्देश सुना कर उनका क्लेश दूर किया, ढाढस बंधाया तो माता ने प्रसन्न हो कर उन्हें वरदान दिया। 


मन  सांतोष  सुनत कपि बानी।
भगति  प्रताप  तेज बल सानी।।
आसिष  दीन्हि  राम प्रिय जाना।
होहु  तात  बल  सील निधाना।।
अजर अमर गुननिधि सुत होहु।
करहुँ  बहुत  रघुनायक  छोहू।।

   अर्थात, श्रीहनुमानजी के वचन जो भक्ति, प्रताप और तेज से पूर्ण थे, सुनकर माता सीता के मन में संतोष हुआ। उन्हें श्रीराम का प्रिय जानकर यह आशीर्वाद दिया कि हे पुत्र ! तुम बल और शील - सदाचार के भण्डार होओ। तुम अजर (जो कभी बूढ़ा नहीं होता), अमर (जिसकी कभी मृत्यु न हो) और गुणों की खान होओ। प्रभु श्रीराम का स्नेह तुम पर बहुत बना रहे। 

             किसी को भी इससे ज्यादा क्या चाहिए ? किन्तु श्रीहनुमानजी की श्रीराम पर भक्ति देखिये उन्हें इनसब आशीर्वादों में जो सबसे अच्छा लगा और जिसे सुनकर कर वे गदगद हो गये वह था कि प्रभु श्रीराम का स्नेह तुम पर बहुत बना रहे। तुलसीदासजी ने श्रीरामचरितमानस के सुंदरकांड में हनुमानजी के मन की इस स्थिति का बड़ा सुन्दर वर्णन किया है।


करहुँ कृपा प्रभु अस सुनि काना। निर्भर प्रेम मगन हनुमाना।।
बार- बार नाएसि  पद  सीसा। बोला  बचन जोरि कर कीसा।।
अब कृतकृत्य भयउँ मैं माता। आसिष तव अमोघ बिख्याता।।
   
          अर्थात, कानों से यह सुनकर कि प्रभु श्रीराम उनपर बहुत स्नेह रखेंगे हनुमानजी असीम प्रेम मगन हो गये। बार - बार वे माता के चरणों में सर झुकाते हैं और दोनों हाथ जोड़कर कहते हैं कि हे माता ! अब मैं कृतार्थ हो गया। यह बात जगत प्रसिद्ध है कि आप का आशीर्वाद अमोघ है (यानि जो फलीभूत होता ही है व्यर्थ नहीं होता)। 
           अब माता सीता का आशीर्वाद अमोघ है और उन्होंने हनुमानजी को अजर - अमर होने का आशीर्वाद दिया। अमरता के आशीर्वाद होने के कारण ही आज भी हनुमानजी को धरती पर उपस्थित माना जाता है। और जो हनुमानजी को आदर देते हैं उनपर प्रभु राम प्रसन्न होते हैं। जब वनगमन के समय रामजी ऋषि बाल्मीकि से आदरपूर्वक मिले और पूछा कि आप बतायें मैं कहाँ रहूँ तब ऋषि ने जो उत्तर दिया वह भक्तों के सुनने के योग्य है। ऋषि वाल्मीकि ने कहा, हे प्रभु आप कहाँ नहीं है। लेकिन फिर भी आप कहते हैं तो मैं बताता हूँ। ऋषि उन्हें चौदह जगह बताते हैं किन्तु ये कोई भूमि का टुकड़ा नहीं बल्कि रामभक्ति से सम्बन्धित व्यक्तियों के हृदय हैं। अन्त में कहते हैं,


राम भगत प्रिय लागहिं जेहि। तेहि उर बसहुँ सहित बैदेही।।

           अर्थात, हे प्रभु ! जिनको रामभक्त प्रिय लगते हों, आप उनके हृदय में निवास करिये। 
          यह ऋषि का निवेदन या सुझाव लगता है लेकिन उन्होंने वही बताया जो सही था क्योंकि ऋषि सर्वज्ञ थे। सच में भगवान उनके भी हृदय में रहते हैं जिन्हें रामभक्त प्रिय लगते हैं। जिनके हृदय में भगवान रहें उनको कैसी बाधा और कैसा कष्ट। और रामभक्तों का शिरोमणि कौन है जिसे भगवान सबसे अधिक स्नेह करते हैं ? वे है श्री हनुमान। तो जिनको श्रीहनुमानजी प्रिय हों, जिन्हें श्रीहनुमानजी पर पूरी श्रद्धा और विश्वास हो उनके हृदय में साक्षात् श्रीराम निवास करते हैं। यह भी याद रखें कि पूर्व में अंगिरा और भृगुवंश के मुनियों के श्राप से हनुमानजी को उनकी ताकत और सामर्थ्य का जब याद कराया जाता है तब ही उनको यह याद आता है। और यह याद कराने का सबसे उत्तम उपाय है तुलसीबाबा द्वारा रचित श्रीरामचरित मानस का सुन्दरकाण्ड। पूरा सुन्दरकाण्ड श्रीहनुमानजी के बल, पौरुष और सामर्थ्य का बखान है। इसके पाठ या श्रवण से श्रीहनुमानजी प्रसन्न होते हैं और भक्तों के सभी कार्य से विघ्न - बाधा दूर कर पूर्ण करते हैं और उनके कष्ट हरते हैं।     

      सुन्दरकाण्ड का पाठ कहाँ से होना चाहिए

सुन्दरकाण्ड पाँचवाँ सोपान है जो श्रीराम की संस्कृत श्लोक में की गयी स्तुति "शान्तं शाश्वतम ......... " से प्रारंभ होती है किन्तु ज्ञानीजनों का सुझाव है कि सुन्दरकाण्ड प्रारम्भ करने से पूर्व पिछले सोपान किष्किन्धाकाण्ड के उन्तीसवें दोहे "बलि बाँधत प्रभु बाढ़ेउ ....... " से उस काण्ड के अंतिम सोरठे (तीसवाँ) "नीलोत्पल तन स्याम ......." तक का भी पाठ करना उत्तम है। गीता प्रेस द्वारा प्रकाशित सुन्दरकाण्ड (1378) में भी यहीं से प्रारम्भ दिया गया है।


       सुन्दरकाण्ड की अन्य सुन्दरता

सुन्दरकाण्ड की अन्य विशेषताएँ भी हैं। इसमें कई उपदेश और संवाद हैं जो मनुष्य का जीवन सफल बनाते हैं।  इसके कई चौपाई तो मन्त्र की तरह उपयोगी हैं। ऊपर जो राम-हनुमान सम्वाद की चर्चा है जिसमे श्रीराम हनुमानजी को निश्चल भक्ति का वरदान देते हैं, तुलसीदास कहते हैं, जिसके मन में भी यह संवाद आता है उसे रघुपति के चरणों में भक्ति मिलती है। 
          सुन्दरकाण्ड का अंत ही तुलसीबाबा इस दोहे से करते हैं,


सकल  सुमंगल  दायक    रघुनायक  गुन  गान।
सादर सुनहिं ते तरहिं भव सिंधु बिना जलजान।।
 अर्थात, भगवान श्रीराम का गुणगान सभी प्रकार के सुमंगलों को देनेवाला है और जो इसे सुनता है वह बिना जहाज के इस संसार रूपी समुद्र को पार कर जाता है। 
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