सांध्यकालीन अर्घ्य के समय एक छठ पूजा समिति द्वारा लगाया गया भगवान् आदित्य की अस्थायी प्रतिमा |
आदित्यं गणनाथं च देवीं रूद्रं च केशवम्।
पंचदैवतमित्युक्तं सर्वकर्मसु पूजयेत् ।।
आदित्य (सूर्य), गणेश, भगवती (दुर्गा), रूद्र (शिव) एवं विष्णु - इन पंचदेवताओं की हर प्रकार की पूजा में पूजन किया जाता है। इनमे से सूर्य प्रत्यक्ष देवता हैं जो इस धरा पर जीवन की उत्पत्ति एवं पालन पोषण से सम्बंधित हैं। यह मात्र आस्था नहीं है बल्कि विज्ञान से भी पुष्ट है। भगवन सूर्य को समर्पित छठ का पर्व बिहार, झारखण्ड और पूर्वांचल का महापर्व है और संस्कृति में रची बसी है| चार दिनों का यह कठिन एवं परम आस्था का पर्व बिना परिवार और समाज की सहायता के करना दुष्कर है। इसीलिए दूर -दूर में रह कर पढ़नेवाले या जीविकोपार्जन करनेवाले छठ में अपने गाँव घर अवश्य आते हैं।
प्रातःकालीन सूर्योदय की प्रतीक्षा ताकि अर्घ्य दी जा सके |
मुख्य रूप में यह सूर्य की पूजा है किन्तु छठ को सूर्य की बहन माना जाता है। छठी मैय्या का यह पर्व पुत्र, धन-धान्य, उत्तम स्वास्थ्य एवं रोगों को दूर करने वाला है। छठ पर गाये जाने वाले गीतों का एक अलग ही स्वर होता है जिनमे प्रतिवर्ष ये प्रसिद्ध गीत अवश्य गए जाते हैं:-
१. काँच ही बाँस के बहँगी, बहँगी लचकत जाये .........
२. उग हे सुरुज देव अरघ के बेर ............
ठेकुआ प्रसाद बनाने की तैयारी, Thekua |
१.पहला दिन - नहाय -खाय -- बोलचाल में इसे कद्दूभात भी बोला जाता है। कार्तिक शुक्ल चतुर्थी को बिना खाये-पिए गंगा स्नान अथवा स्थानीय नदी, तालाब, कुआँ आदि में स्नान के पश्चात् नवीन वस्त्र धारण कर सूर्यदेव एवं छठी माता का ध्यान कर शाकाहारी भोजन किया जाता है। भोजन में चना एवं कद्दू (लौकी) की सब्जी खाने की परंपरा है। व्रती के भोजन के पश्चात ही घर के अन्य सदस्य भोजन ग्रहण करते हैं।
घाट पर जाने से पहले छठी मैया के सूप /दौरा की धूप-दीप से पूजा |
२. दूसरा दिन - खरना -- कार्तिक शुक्ल पञ्चमी को अन्न -जल ग्रहण किये बिना पूरा दिन उपवास किया जाता है। शाम को मिट्टी के चूल्हा में आम की लकड़ी से सादा और गुड़ वाली खीर बनाई जाती है। जिसे सिन्दूर के साथ पूजा के बाद व्रती ग्रहण करते हैं। इस दिन से नमक चीनी का उपयोग बंद हो जाता है। खरना का दिन होली जैसा एक सामाजिक पर्व हो जाता है। सम्बन्धियों, पड़ोसियों और मित्रों को खरना का प्रसाद ग्रहण करने आमंत्रित किया जाता है। खरना का खीर - रोटी प्रसाद के रूप में पाकर लोग स्वयं को धन्य समझते हैं।
३. तीसरा दिन - सायंकालीन अर्घ्य -- कार्तिक शुक्ल षष्ठी को अन्न-जल ग्रहण किये बिना व्रत जारी रहता है। प्रसाद में गेहूं का ठेकुआ बनाया जाता है। बांस की टोकरी और सूप में फल, ठेकुआ और नाना प्रकार की सब्जियां सजाई जाती हैं। जैसे सकरकंद, मूली, गाजर, सुथनी, टाभा नीम्बू, हल्दी, गन्ना, केला, सेव, नारियल, इत्यादि। इस टोकरी पर मिट्टी का दीप जलाकर और सिन्दूर के साथ पूजा की जाती है। शाम को व्रती और परिवार के सदस्य टोकरी के साथ नदी, तालाब या समुद्र के किनारे जाते हैं और स्नानकर जल में खड़े हो कर डूबते सूर्य को अर्घ्य देते हैं। बच्चों द्वारा दिवाली के बचे खुचे पटाखे भी घाट पर छोड़े हैं।
४. चौथा दिन - प्रातःकालीन अर्घ्य -- अगली सुबह अर्थात सप्तमी को भी उगते हुए सूर्य के साथ अर्घ्य की वही प्रक्रिया दोहराई जाती है और इसके साथ ही छठ महापर्व का समापन होता है। घाट पर आग सुलगाकर होम किया जाता है। विवाहित महिलाएं व्रती से सिन्दूर पहनती हैं। घाट पर से ही प्रसाद का वितरण शुरू हो जाता है। इस प्रकार खरना के बाद लगभग ३६ घंटे का निराहार एवं निर्जल उपवास व्रती को रखना होता है।
दंड प्रणाम - कुछ श्रद्धालु मनोकामना पूर्ण करने हेतु दंड -प्रणाम गच्छते हैं। मनोकामना पूर्ण होने पर पूरा शरीर लेटते हुए घाट पर जाकर सूर्य भगवान को अर्घ्य देते हैं। इसे कष्टि भी कहा जाता है।
बदलते समय में जब नदी -तालाब प्रदूषित हो रहे हैं विशेष कर बड़े शहरों के आसपास, लोग कृत्रिम सामूहिक छोटे तालाब बनाकर अर्घ्य देते हैं। कुछ लोग छत पर पानी का हौद बनाकर भी अर्घ्य देने लगे हैं। जगह जगह छठ पूजा समिति का गठन कर साफ़ सफाई और भीड़ नियंत्रण का कार्य भी किया जाता है।
छठ पर्व की महिमा अपार है जिसमे लोगों की श्रद्धा बढ़ती ही जा रही है। अब तो यह गैर -बिहारियों द्वारा भी किया जाने लगा है। मनोकामना पूर्ण होने पर कुछ गैर-हिन्दू भी इसे करते हैं।
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