Saturday, December 12, 2020

सद्गुरु महर्षि आरुणि द्वारा व्याध का उद्धार - सत्यतप की कथा ; भाग - 1

सद्गुरु की कृपा
बंदउँ  गुरुपद  कंज  कृपासिंधु  नररूप  हरि।
महामोह तम पुंज जासु बचन रबि कर निकर।

(मैं उन गुरु महाराज के चरण कमल की वंदना करता हूँ, जो कृपा के समुद्र और नर रूप में श्री हरि ही हैं और जिनके वचन महामोह रूपी घने अन्धकार का नाश करने के लिए  सूर्य किरणों के समूह हैं|)


सद्गुरु की कृपा


    इस ब्लॉग के पोस्ट "सद्गुरु की खोज" में इस बात की चर्चा की गयी थी ऐसे गुरु की खोज करनी चाहिए जिनमें शिष्य को भवसागर से पार कराने का सामर्थ्य हो। ऐसे ही गुरु को सद्गुरु कहा जाता है जो शिष्य के सुपात्र होने की पहचान कर सके। गुरु नारद मुनि ने लुटेरे की पात्रता समझी और उसका मार्गदर्शन कर महान कवि कोकिल वाल्मीकि बनाया। यह कथा बहुत प्रसिद्ध है क्योंकि वाल्मीकि ने रामायण जैसा काव्य और रामकथा लिखी। ऐसी ही एक और कथा पुराणों में है जिसमें महर्षि आरुणि ने एक व्याध को सन्मार्ग दिखाया और उस व्याध ने ऐसा तप किया कि उसका नाम ही सत्यतप पड़ गया। सत्यतप की प्रसिद्धि उसके गुरु महर्षि आरुणि से भी अधिक हो गयी और उसने इन्द्रादि देवताओं से भी अधिक श्रद्धा पायी। 

             एक बार महर्षि आरुणि वन में तप में लीन थे। कहा जाता है कि जब ऋषि वन में तप करते थे तो जंगली जानवर भी अपना हिंसक व्यवहार छोड़ कर मृदुल हो जाते थे क्योंकि ऋषियों का प्रत्येक जीव के प्रति जो दया, करुणा और प्रेम का भाव होता था उसका असर उनपर होता था। तप में लीन ऋषियों को कोई भी हिंसक जानवर तंग नहीं करता था। महर्षि आरुणि गहरी समाधि की अवस्था में लीन आनंद का अनुभव कर रहे थे। तभी उनके आसपास जोरों का शोरगुल होने लगा। एक व्याध जोर जोर से चिल्ला रहा था - "मैंने चोर को पकड़ लिया है। बताओ बहुरूपिये ! तुमने सोना कहाँ छिपा कर रखा है?" ऋषि गहरी समाधि से थोड़ा बहार आये और अधखुली आँखों से सामने एक डरावने व्याध को चिल्लाते देखा जिसके हाथ में तलवार भी था जिसे वह जोर जोर से भाँज रहा था। किन्तु समाधि में उन्हें इतना आनंद आ रहा था कि उसे अनदेखा कर ऋषि ने पुनः अपनी आँखें बंद कर लीं। 

                     इधर व्याध की हालत अलग थी। वह महर्षि आरुणि को इस हालात में भी इतना शांत देख कर विस्मित था। वह ऋषि को मार नहीं पा रहा था, साथ ही वह यह भी नहीं समझ पा रहा था कि चाह कर भी वह ऋषि पर कैसे वार नहीं कर पा रहा था। वह सोचने लगा, इस परिस्तिथि में भी ये ऋषि इतने प्रसन्न और आनंदित कैसे हैं ? क्या इन्हें मृत्यु का डर नहीं ? क्या इन्होंने मृत्यु पर विजय पा ली है?  मैं भी इनसे शिक्षा ले कर ऐसी ही तप की अवस्था प्राप्त करूँगा। यह निर्णय ले कर उस व्याध ने अपनी तलवार फेंक दी और महर्षि के चरणों में गिर पड़ा और बोला - "मुझे अपना शिष्य बना लीजिये।" महर्षि जो अभी तक समाधि में ही थे अब उनकी समाधि टूटी और आसपास का ज्ञान हुआ। उनके चेहरे की प्रसन्नता और शांति दूर हो गयी, होंठ आपस में जोर से सट गए और ऑंखें पूरी खुल गयीं। कुछ नहीं बोले और खीज कर उठे, फिर जंगल में एक ओर चल दिए। व्याध भी उनके पीछे पीछे चल दिया। रास्ते में बीच - बीच में वह अपना अनुरोध दुहराता रहा। पर ऋषि पर कोई असर न हुआ। वे मीलों चलते गए। बीच - बीच में उन्हें आराम भी करना पड़ा। अंततः वे एक सकता वृक्षों के वन में पहुँचे। इन वृक्षों में फल लगते हैं जिनमें औषधीय गुण होते हैं। इस वन में चलते हुए एक गुफा के पास से एकाएक एक बाघ निकला और महर्षि पर आक्रमण कर दिया। उसके आक्रमण से महर्षि ने किसी तरह स्वयं को बचाया और एक तरफ खड़े हो गए।  उनका हृदय भय के कारण जोर -जोर से धड़क रहा था। जो हुआ उसपर वे सोचने लगे, भला ऐसा कैसे हुआ? मेरे तप का क्या हुआ? मेरी उपस्थिति में कोई जीव हिंसक कैसे हो  सकता है ? यह बाघ मुझ पर आक्रमण कैसे कर सकता है ? तभी महर्षि ने देखा कि जो जंगली व्याध शिष्य बनने के लिए उनके पीछे आ रहा था उसने एक पत्थर से बाघ का सर कुचल कर मार दिया है किन्तु स्वयं भी बहुत बुरी तरह घायल हो  गया है। फिर भी व्याध बहुत प्रसन्न था कि उसने महर्षि की जान बचायी। 

           इससे भी आश्चर्यचकित करने वाली बात उनदोनों ने देखा कि एक अतिसुन्दर क्षत्रिय उस बाघ के शरीर से प्रकट हुआ और महर्षि की ओर नतमस्तक होकर कृतज्ञता से बोला, "महर्षि आपका तप असाधारण है, आपका धर्म महान है और आपका प्रेम सार्वभौमिक है। आपके ये तीनों गुण जान के ही मैंने आपपर आक्रमण किया था। मैंने सोचा आपका स्पर्श पाकर मैं अपने श्राप का अंत कर सकूँगा। पर मैं आपको छू ही नहीं पाया। फिर भी मैं अपने श्राप से मुक्त हो गया क्योंकि मैंने आपके शिष्य का स्पर्श पा लिया था। मैंने अपने पूर्व शरीर को प्राप्त कर लिया है। मेरा नाम दीर्घबाहु है। मेरे अतिघमंडी स्वभाव के कारण मैंने यह बाघ के शरीर को प्राप्त करने का श्राप पाया था। आपके सान्निध्य में अब मुझे इस श्राप से मुक्ति मिल गयी। अब मुझे जाने की आज्ञा दीजिये।" 

          व्याध बाघ से लड़ाई कारण अब भी हाँफ रहा था। उसके शरीर पर जगह जगह घाव हो गए थे। यह कहना मुश्किल था कि उसकी कितनी हड्डियाँ टूटी थीं। फिर भी महर्षि आरुणि के सामने वह श्रद्धापूर्वक नतमस्तक था। महर्षि ने सोचा - "इस व्याध ने सैकड़ों महर्षियों की हत्या की है, यह पापी है लेकिन इसमें कुछ गुण अवश्य है जिसके कारण यह तप की ओर आकर्षित हुआ है। तप करने के अडिग निश्चय के कारण ही यह धार्मिक और गुणी हो गया है। वह तप करना चाहता था और मुझे अपना गुरु बनाना चाहता था पर कैसे बनाये यह नहीं जनता था। मैंने ना उसे कुछ सिखाया ना उसपर ध्यान दिया। फिर भी उसने मेरे प्राण बचाये क्योंकि उसने मुझे अपना गुरु मान लिया था। भला गुरु के लिए ऐसा काम कौन करेगा? अवश्य ही वह एक महान आत्मा है। " 

         महर्षि आरुणि ने विचार किया, "इसके पाप तो मिट गए पर इसमें कोई प्रतिभा नहीं है। मैं कौन सा मन्त्र इसे सिखा सकता हूँ ? ना तो मैं इससे प्राणायाम करा सकता हूँ और न तत्व सिखा सकता हूँ। फिर भी मैं इसे कुछ अमूल्य सिखाऊंगा।" यह विचार कर महर्षि गहन ध्यानमग्न हुए और परमात्मा से प्रार्थना की। फिर आँखें खोल बोले, "हे व्याध ! तप सीखने के लिए तुम इतनी दूर तक मेरे पीछे आये। विश्वास करो, आज बहुत शुभ दिन है। आज के बाद कभी झूठ न बोलो, सदा सत्य बोलो। यही तुम्हारा तप है और यही तुम्हारी शिक्षा। इन सकता पेड़ों के फल कभी मत खाना और इसी स्थान पर रह कर तप करना।" व्याध ने गुरु के निर्देशों को स्वीकार किया पर न तो उसने अपने घावों की चर्चा की और न अपनी टूटी  हड्डियों की। वह आनंद के अतिरेक में भावविभोर हो गया। जब वह इस आनंद की अवस्था में खोया था उसके गुरु वहाँ से चले गए। 

        टूटी हड्डियों के कारण व्याध चलने फिरने में असमर्थ था। जितनी दूर तक चल सकता था वहाँ तक सिर्फ सकता के ही पेड़ थे। पर वह न तो निराश हुआ और न उसने भोजन की चिंता की। उसका ध्यान गुरु की शिक्षा अर्थात सत्य पर टिका था। उसका ध्यान इतना गहरा हो गया कि वह समाधि की अवस्था में चला गया। बाद में वह "सत्यतप" के नाम से प्रसिद्ध हो हुआ जिसकी घटना इस प्रकार है। 

             बिना भोजन के लम्बी अवधि तक समाधि में रहने के कारण वह कृशकाय हो गया। वह इतना दुबला हो गया था कि आसपास में कोई भी इसकी परवाह नहीं करता था कि वह ज़िंदा है या मुर्दा। इसी तरह कई वर्ष बीते।  

            एक बार की बात है व्याध ने एक आदमी को देखा जिसके कपड़े मैले कुचैले और मिट्टी में सने थे। वह लगभग पागलों की तरह व्यवहार कर रहा था। किन्तु उसके चारों ओर की आभा को देख कर व्याध ने उसे दुर्वासा ऋषि के रूप में पहचाना। शिकारी उनके पैरों में गिरा और कई बार उन्हें अपना अतिथि बनने का आग्रह किया। ऋषि दुर्वासा ने उसके पेड़ के तने जैसे शरीर को देखा जिसपर कई घाव के निशान थे। यज्ञोपवीत शरीर पर न था। परन्तु ऋषि यह देख कर आश्चर्यचकित थे कि उसके चारों ओर एक दिव्य आभा थी। महर्षि कुछ पल स्थिर और चुप रहे फिर पूछा, "तुम क्या खाते हो?" 

           एकाएक पूछे गए प्रश्न से सकपकाए व्याध ने सोचा कि महर्षि ने उसे एक मांसाहारी के रूप में समझा है। उसने जवाब दिया, "इनदिनों मैं कुछ नहीं खाता।" 

         व्यंगात्मक रूप से ऋषिने पूछा, "कब से ?"

       "हे आदरणीय महर्षि ! याद नहीं किन्तु संभवतः पिछले कई दसकों से।" जवाब दिया व्याध ने।  

           "तुम तो स्वयं कंगाल हो। जब तुम्हारे पास कुछ है ही नहीं तो तुम मुझे क्या दे सकते हो?" दुर्वासा ऋषि ने पूछा। 

        "हे ऋषि, ऐसा मत कहिये। आप मेरे आश्रम में चलिए। जो कहेंगे मैं आपको वह दूँगा।" व्याध ने कहा। 

        व्यंगात्मक शैली में दुर्वासा बोले, "मैं तो आसपास कोई कुटिया नहीं देख रहा। कौन से आश्रम की बात कर रहे हो ?" 

         व्याध बोला, "उस वृक्ष के तने में जो बड़ा सा छेद देख रहे हैं वही मेरा आश्रम है।" 

       "उस वृक्ष के छेद में तुम्हारा आश्रम है ? उसमें कई साँप और बिच्छू हो सकते हैं। मैं उसमें जाऊँ ?" महर्षि दुर्वासा बोले, "लगता है तुम मुझे पहचान नहीं रहे हो ?"  

      हाथ जोड़ कर व्याध बोला, "महात्मन ! आप शांत हो जाएँ। आप इस वृक्ष की छाया में बैठें। जो आप खाना चाहेंगे मैं आपको यहीं लाकर दूंगा।" महर्षि बोले - "ठीक है। तुम एक दर्ज़न केले के गुच्छे, 50 कटहल और 100 नारियल ले आओ।" व्याध फुर्ती से एक सर्प की तरह वृक्ष के छेद में घुसा और वहाँ बैठ कर ईश्वर का गहरा ध्यान किया। बहुत शीघ्र एक रत्नजड़ित पत्थर का बर्तन उसके हाथ पर आ गया। उस बर्तन को लेकर वह बाहर आया। पास के पेड़ों से पत्ते लेकर थाली और पानी के लिए दोने बनाये। फिर पास के झरने से पानी लाया और जो कुछ दुर्वासा ऋषि ने आदेश दिया था एक एक कर पत्थर के बर्तन से निकाल कर थाली पर रख दिया। यह देख कर ऋषि बहुत प्रभावित हुए और इन्हें खाने के बाद और भी कई वस्तुओं की इच्छा की जिसे व्याध ने पूरा किया। अंततः दुर्वासा ऋषि की क्षुधा तृप्त हुई और उन्होंने व्याध के कंधे पर हाथ रखकर कहा, "तुम्हारा तप सत्य पर आधारित है इसलिए तुम सत्यतप हो।" ऋषि ने जोर से तीन बार यह बात दुहराई और गहरे वन में ओझल हो गए।

         जब दुर्वासा ऋषि उस वन में आये थे तो अन्य ऋषियों ने उन्हें पहचान लिया था पर कोई भी उनके पास नहीं आये थे। कारण यह था कि सभी उनके बहुत गुस्सैल स्वाभाव से परिचित थे। छोटे से कारण से भी उनका बहुत अधिक गुस्सा भड़क जाना सर्वविदित था। जब व्याध ने महर्षि दुर्वासा को आमंत्रित किया तो अन्य ऋषियों ने सोचा कि व्याध ने अपनी विपत्ति को आमंत्रित किया है। परन्तु जब दुर्वासा ऋषि ने व्याध की प्रशंसा की और उसे सत्यतप की उपाधि दी तो वे ऋषिगण आश्चर्यचकित हो गए। तब से व्याध "सत्यतप" के नाम से जाना गया। 

                  इस प्रकार सद्गुरु महर्षि आरुणि की कृपा से एक व्याध ऋषि हो गया और सत्यतप के नाम से प्रसिद्ध हुआ जो कि एक बहुत बड़ा सम्मान है।        

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Part -2

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