वट के पत्ते पर बाल मुकुंद को देखते ऋषि मार्कण्डेय (फोटो : गूगल से साभार) |
यह स्तोत्र श्रीबिल्वमंगलाचार्य द्वारा विरचित है। वे भारत के दक्षिण भाग में रहनेवाले एक संपन्न ब्राह्मण कुल में जन्म लिए, नाम पड़ा बिल्वमंगल ठाकुर। इन्हें "लीला सुख" नाम से भी जाना जाता है। किन्तु बड़े होने पर कुमार्गी हो गए जबकि पूर्व जन्म में वे कृष्ण-भक्त थे। इस जन्म में स्त्रियों की सुंदरता के प्रति उनमें अतिशय आसक्ति थी। वेश्याओं पर अपनी सम्पदा लुटायी। चिंतामणि नामक एक विशेष वेश्या के पास तो उनका प्रतिदिन जाना था। कहा जाता है कि एक दिन भारी वर्षा हो रही थी और जाना सम्भव नहीं लग रहा था। किन्तु वह कामी पुरुष कहाँ रुकनेवाला था? जैसे तैसे बड़ी रात होते चिंतामणि के दरवाजे पर पहुँच ही गया। निंद्रावश एवं वर्षा की ध्वनि में चिंतामणि को दरवाजे से आती पुकार न सुनाई पड़ी। दरवाजा न खुलता देख बिल्वमंगल को दरवाजे के ऊपर से एक रस्सी लटकती दिखाई पड़ी जबकि वास्तव में वह एक सांप था। उसी को पकड़ उसने दरवाजा फांद लिया और चिंतामणि के पास पहुँच गया। अब यहाँ की घटना काफी कुछ तुलसीदास बाबा के जैसे ही वर्षा भरी रात में पत्नी के पास पहुँचने की लोक कथा जैसी है। तुलसीदास जी की पत्नी ने उन्हें धिक्कारते हुए कहा था कि इतना प्रेम यदि श्रीराम में होता तो आपका जीवन भवसागर के पार लग जाता और यहीं से उनका जीवन बदल गया था और राम भक्ति में लीन होकर उन्होंने अनेक कालजयी रचनाएँ लिखीं जिनमें से "श्रीरामचरितमानस" ने तो सनातन समाज में एक ऊँचा स्थान पाया। बिलकुल उसी तरह जब चिंतामणि ने बिल्वमंगल ठाकुर को इन परिस्थितियों में सामने पाया तो उसने भी बिल्वमंगल को धिक्कारते हुए कहा "इतना प्रेम तुम्हारा यदि कृष्ण के प्रति होता तो तर जाते।" कृष्ण का नाम सुनते ही जैसे पूर्व जन्म के कर्म सक्रिय हो गए या भगवद्कृपा हुयी, बिल्वमंगल को जैसे चिंतामणि में अपना गुरु-दर्शन हुआ और कृष्ण का नाम जपते लौट गये। कृष्ण प्रेम में मगन वे वृन्दावन आये और भक्ति में लीन हो गये किन्तु स्त्रियों की सुंदरता देखते ही उनका ध्यान भटकने लगता। एक बार की बात है कि एक धनी व्यापारी की सुन्दर पत्नी को देख कर वे बेसुध से हो कर उसकी ओर बढ़ने लगे। इस प्रकार अपनी ओर आते व्यक्ति को देखकर उस स्त्री ने अपने पति को बताया। व्यापारी पति ने जब बिल्वमंगल की वेशभूषा देखी तो पत्नी से बोला, डरो नहीं, ये तो कोई संत हैं, इनकी सेवा करो। यह सुनते ही बिल्वमंगल को जैसे होश आ गया। स्वयं पर बड़ी ग्लानि हुई और उस स्त्री से बोला, "माता, कृपया अपने जूड़े में लगे हुए धातु के काँटे मुझे दो।" बिल्वमंगल ने सोचा, 'ये आँखें ही मुझे भक्ति पथ से भटकाती हैं, इन्हें मैं निकल दूंगा।' यह सोच कर उसने जूड़े के कांटे से अपनी दोनों आँखें निकाल कर फेंक दीं और शेष जीवन अंधे बनकर ही जिए। एक लम्बी उम्र जिये और श्रीबिल्वमंगलाचार्य के नाम से विख्यात हुये। कृष्ण-भक्ति में उन्होंने अनेक रचनाएँ कीं। जिसमें से एक लोकप्रिय रचना है -"श्री गोविन्द दामोदर स्तोत्रम"। इसमें कुल 71 स्तोत्र हैं जिनमें से 11 लोकप्रिय स्तोत्र अर्थ सहित यहाँ दिया जा रहा है। नीचे जो पहला श्लोक है वह बालमुकुन्दाष्टक का पहला श्लोक है जिसे परम्परानुसार ध्यान के रूप में पहले पढ़ा जाता है। इस प्रकार यहाँ कुल 12 श्लोक हैं। पढ़ें, समझें, और अपना मन कृष्ण-भक्ति में लगायें।
श्री गोविन्द दामोदर स्तोत्रम (श्रीबिल्वमंगलाचार्य विरचित)
Shri Govind Damodar Stotram
करारविन्देन पदार्विन्दं, मुखार्विन्दे विनिवेशयन्तम्।
वटस्य पत्रस्य पुटेशयानं, बालं मुकुन्दं मनसा स्मरामि॥1॥
श्रीकृष्ण गोविन्द हरे मुरारे, हे नाथ नारायण वासुदेव।
जिव्हे पिबस्वामृतमेतद् एव, गोविन्द दामोदर माधवेति॥2॥
विक्रेतुकामा किल गोपकन्या, मुरारि पादार्पित चित्तवृतिः।
दध्यादिकं मोहावशादवोचद्, गोविन्द दामोदर माधवेति॥3॥
गृहे-गृहे गोपवधू कदम्बा:, सर्वे मिलित्वा समवाप्य योगम्।
पुण्यानि नामानि पठन्ति नित्यं, गोविन्द दामोदर माधवेति॥4॥
सुखं शयाना निलये निजेऽपि, नामानि विष्णोः प्रवदन्ति मर्त्याः।
ते निश्चितं तन्मयतां व्रजन्ति, गोविन्द दामोदर माधवेति॥5॥
जिह्वे सदैवं भज सुन्दराणि, नामानि कृष्णस्य मनोहराणि।
समस्त भक्तार्ति विनाशनानि, गोविन्द दामोदर माधवेति॥6॥
सुखावसानेत्व इदमेव सारं, दुःखावसानेत्व इदमेव ज्ञेयम्।
देहावसानेत्व इदमेव जाप्यं, गोविन्द दामोदर माधवेति॥7॥
जिह्वे रसज्ञे मधुरप्रिया त्वं, सत्यं हितं त्वां परमं वदामि।
आवर्णयेथा मधुराक्षराणि, गोविन्द दामोदर माधवेति॥8॥
त्वामेव याचे मम देहि जिह्वे, समागते दण्डधरे कृतान्ते।
वक्तव्यमेवं मधुरम सुभक्तया, गोविन्द दामोदर माधवेति॥9॥
श्रीनाथ विश्वेश्वर विश्वमूर्ते, श्री देवकीनन्दन दैत्य शत्रु ।
जिव्हे पिबस्वामृतमेतद् एव, गोविन्द दामोदर माधवेति॥10॥
श्रीकृष्ण राधावर गोकुलेश, गोपाल गोवर्धननाथ विष्णो।
जिव्हे पिबस्वामृतमेतद् एव, गोविन्द दामोदर माधवेति॥11॥
गोपिपते कंसरिपो मुकुंद, लक्ष्मीपते केशव वासुदेव।
जिव्हे पिबस्वामृतमेतद् एव, गोविन्द दामोदर माधवेति॥12॥
(टिप्पणी : ऊपर जो शब्द-समूह - "पिबस्वामृतमेतद् एव" है वह वस्तुतः- "पिबस्वामृतम् एतद् एव" के पहले दो शब्दों की संधि है। कहीं कहीं तीनों शब्दों की संधि भी लिखी जाती है, जैसे - "पिबस्वामृतमेतदेव" यह भी सही है। किन्तु कुछ जगह मैंने "पिबस्वामृतमेत देव" लिखा भी देखा है जो सही नहीं लगता, साथ ही "देव'' को अलग लिखने से अर्थ में भ्रम भी उत्पन्न होता है।)
भावार्थ :-
1. मैं उन श्री बालक मुकुंद का मन से स्मरण करता हूँ जो वट के पत्ते पर लेटे हुए अपने हस्त-कमल से कमल समान पैर को पकड़ कर अपने मुख-कमल में डाल रहे हैं।
2. श्रीकृष्ण, गोविन्द, हरि, मुरारी, हे नाथ, नारायण, वासुदेव! अरी जिह्वा, तू सिर्फ इन्हीं के नामों का अमृत पी "गोविन्द, दामोदर, माधव।"
3. दही इत्यादि बेचने के लिए निकली प्रत्येक गोप-कन्या का मन श्रीकृष्ण के चरणों में इस प्रकार अर्पित है कि दही इत्यादि के आवाज़ लगाने के स्थान पर मोहवश उनके मुख से "गोविन्द, दामोदर, माधव" की ध्वनि निकलती है।
4. घर-घर में गोप-स्त्रियाँ एकत्र हो कर, प्रतिदिन एक साथ भगवान के पुण्य नामों "गोविन्द, दामोदर, माधव" का पाठ करती हैं।
5. अपने घरों में सुख से लेटे हुए जो मरणशील पुरुष भी विष्णु के "गोविन्द, दामोदर, माधव" नाम का जप करते हैं निश्चित ही वे शरीर त्यागने पर प्रभु के स्वरूप से एकाकार हो जाते हैं।
6. जिह्वा तू सदैव कृष्ण के सुन्दर और मनोहर नामों "गोविन्द, दामोदर, माधव" को भज, जो भक्तों के दुःखों का नाश कर देती हैं।
7. जब सुख का क्षय होने लगे तो "गोविन्द, दामोदर, माधव" ही सार हैं, जब दुःख का क्षय हो तो इन्हीं को जानना चाहिए और जब शरीर त्यागने का समय हो तो इन्हीं को जपना चाहिए।
8. स्वादों को जानने वाली जिह्वा, तुम्हें मीठे पसंद हैं, मैं तुम्हें परम सत्य बताता हूँ कि "गोविन्द, दामोदर, माधव" के मधुर शब्दों का उच्चारण करती रहो इसी में भलाई है।
9. हे जिह्वा ! मैं तुमसे बस यही माँगता हूँ कि जब मेरे अंत समय में धर्मराज सामने आ जायें तो तुम पूरी भक्ति के साथ "गोविन्द, दामोदर, माधव" का मधुर वक्तव्य करना।
10. श्रीनाथ, विश्वेश्वर, विश्वमूर्ति, दैत्यों के शत्रु श्रीदेवकीनन्दन, अरी जिह्वा, तू सिर्फ इन्हीं के नामों का अमृत पी "गोविन्द, दामोदर, माधव।"
11. श्रीकृष्ण, राधा के प्रिय, गोकुल के स्वामी, गोपाल, गोवर्धननाथ, विष्णु, अरी जिह्वा, तू सिर्फ इन्हीं के नामों का अमृत पी "गोविन्द, दामोदर, माधव।"
12. गोपियों के स्वामी, कंस के शत्रु, मुकुंद, लक्ष्मीपति, केशव, वासुदेव, अरी जिह्वा, तू सिर्फ इन्हीं के नामों का अमृत पी "गोविन्द, दामोदर, माधव।"
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