Monday, December 21, 2020

सद्गुरु महर्षि आरुणि द्वारा व्याध का उद्धार - सत्यतप का तप; भाग - 2

सद्गुरु की कृपा

बंदऊँ गुरु  पद  पदुम  परागा। सुरुचि सुबास सरस अनुरागा॥
अमिअ मूरिमय चूरन चारू। समन सकल भव रुज परिवारू।|

(मैं गुरु महाराज के चरण कमलों की रज की वन्दना करता हूँ, जो सुरुचि (सुंदर स्वाद), सुगंध तथा अनुराग रूपी रस से पूर्ण है। वह अमर मूल (संजीवनी जड़ी) का सुंदर चूर्ण है, जो सम्पूर्ण भव रोगों के परिवार को नाश करने वाला है)
कृष्णं वन्दे जगद्गुरुं



           सद्गुरु महर्षि आरुणि की कृपा से एक व्याध परम तपस्वी बना और सत्यतप के नाम से विख्यात हुआ। यह कथा पिछले ब्लॉग पोस्ट में "सद्गुरु महर्षि आरुणि द्वारा व्याध का उद्धार -सत्यतप की कथा ;भाग -1" में वर्णित है। अब आगे देखते हैं कि किस प्रकार सत्यतप सत्य के मार्ग पर आगे बढ़ा और उन ऊँचाइयों तक पहुँचा जहाँ स्वयं भगवान भी उससे अत्यंत प्रभावित हुए। 
            गुरुकृपा से सत्यतप की उपाधि पाकर व्याध ऋषि बन चुका था जो कि बहुत सम्मान की बात थी। उसने सत्य पर ध्यान लगाते हुए कठिन तप किया जिससे उसे वेदों का ज्ञान हुआ। उसे अनेक मन्त्रों और होम करने की प्रक्रिया का ज्ञान हुआ। वह वन से लाये गए औषधियों और समिधा से हवन करता जिससे सम्बन्धित देवता प्रसन्न होकर प्रकट होते और उसे अनेक वरदान दे जाते। उसकी एकमात्र इच्छा सत्य को और भी अधिक आत्मसात करने की थी।  
      एक दिन उसे एक विशेष समिधा की आवश्यकता हुई जो जम्मी वृक्ष की टहनियाँ थीं। उसे खोजते हुए वह वन में गया। उसने देखा एक जम्मी वृक्ष एक अंजीर पेड़ के ऊपर उगा था। यही तो उसे चाहिये था। एक पेड़ पर दूसरा पेड़ उगना साधारण नहीं है और जंगल में इसे खोजना आसान नहीं। अगर मिल भी जाये तो इस पर चढ़ कर टहनियाँ तोड़ना कठिन है। ऐसे वृक्षों पर यक्ष और गन्धर्व भी निवास कर सकते हैं जो टहनियाँ तोड़ने नहीं देते। 
          सत्यतप को समिधा की जरुरत थी इसलिए वह पेड़ पर चढ़ गया और टहनियाँ काटने लगा। उस समय उस पेड़ पर एक किन्नर दंपत्ति का निवास था। वे सत्यतप को देखने लगे। टहनियाँ काटते समय सत्यतप का ध्यान उधर गया और कुल्हाड़ी का वार उसकी एक ऊँगली पर गया। ऊँगली कट कर अलग हो गयी। किन्तु आश्चर्य की बात कि घाव से रक्त की जगह भस्म निकला। उससे भी अधिक आश्चर्य की बात यह कि उसने कटी ऊँगली को घाव की जगह साट दिया और वह पूर्ववत हो गयी। यह अप्रत्याशित घटना देखकर किन्नर दंपत्ति आवाक रह गए। उसका पीछा कर उन्होंने सत्यतप के आश्रम को देखा और इस चमत्कारिक घटना को देवराज इंद्र को सुनाया। इंद्र और महाविष्णु ने सत्यतप की परीक्षा लेने की सोची।
              इंद्र ने एक भयानक जंगली सूअर का रूप धरा जिसके एक तीर लगी थी। यह सूअर तेजी से सत्यतप की बगल से दौड़ा और उसके आश्रम में घुसा। सत्यतप हर प्राणी में सत्य के दर्शन करता था अतः वह जरा भी नहीं घबराया। किन्तु तभी पीछे से सूअर से भी भयानक व्याध का रूप धरे महाविष्णु दौड़े आये। उसे देख सत्यतप को अपना अतीत याद आया कि शिकार में कितना यत्न करना होता है। व्याध सत्यतप के पास आया और पूछा, "मैंने एक जंगली सूअर को घायल किया है जो इधर ही आया है। क्या तुमने देखा कि वह किधर गया ?" इस प्रश्न ने सत्यतप को भारी दुविधा में डाल दिया। वह सोचने लगा, "मैं सत्यतप हूँ, सत्य ही मेरी तपस्या है। परन्तु मेरे सत्य से बेचारा सूअर मारा जायेगा। किन्तु एक हिंसा सत्य हो  सकती है? नहीं हिंसा सत्य नहीं हो सकती। ऐसी परिस्थिति में क्या किया जाय ? "  
             दुविधा में  फँसे सत्यतप को एक विचार आया और उसने व्याध को कहा, "बंधु ! मेरी आँखों ने सूअर को देखा है पर बोल नहीं सकतीं। मेरा मुँह बोल सकता है पर वह देख नहीं सकता। एक अंग देख सकता है पर दूसरा बोल सकता है। जो अंग देख नहीं सकता उस पर कैसे विश्वास किया जा सकता है ?" यह प्रश्न सुनकर व्याध निरुत्तर हो गया। पर कुछ ही क्षणों में वह जोर -जोर से ठहाके मार कर हँसने लगा। पेट जल्दी में फूलने पिचकने लगा। इस प्रक्रिया में उसके सर पर लगे पंख मुकुट में बदल गए और गले में लटकते माला के दाने कौस्तुभ मणि में बदल गए। उसके कपड़े दिव्य वस्त्रों में बदल गए और व्याध ने महाविष्णु का रूप प्रकट किया। उधर इंद्र भी सूअर से अपने दिव्य रूप में प्रकट हुए। सत्यतप ने उनको श्रद्धा से नमन किया। महा विष्णु ने सत्यतप के कंधे पर हाथ रखते हुए कहा,"मैं भगवान् महाविष्णु हूँ और ये देवराज इंद्र हैं जो सूअर के वेश में तुम्हारे आश्रम में गए। हमलोग सत्य के प्रति तुम्हारी दृढ़ता और निष्ठा की परीक्षा लेने आये थे। तुम में यह सब देख कर हमलोग अभिभूत हैं। वे किन्नर दंपत्ति तुम्हें नहीं समझ पाए थे।हम लोग भी तुम्हारी महानता की सीमा को समझ नहीं सकते, अतः कोई वरदान ही नहीं बचता जो तुम्हें हम दे सकें क्योंकि वरदान का निचोड़ ही सत्य है जो पहले से ही तुम्हारे पास है। इसी तरह सदा सत्य के लिए तप करते रहो और चिरंजीवी होओ।" यह कहकर दोनों देवता चले गए। सत्यतप बिना किसी प्रसन्नता के वहीं रहा। 
                  यह कथा सद्गुरु की कृपा और सत्य की शक्ति को दर्शाती है जो मनुष्य को महान ऊँचाइयों तक ले जाती है। यहाँ तक कि जो मनुष्य सत्य को आत्मसात कर लेता है उसे ब्रह्मा और विष्णु भी कुछ देने में सक्षम नहीं हैं।  
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