Thursday, July 28, 2016

क्या सतयुग में पहाड़ों के पंख हुआ करते थे ?

Flying Mountains-उड़नेवाले पर्वत /पहाड़ों के पंख 
                  यह बात विचित्र लगती है कि पहाड़ों के पंख हो सकते हैं और वे उड़ भी सकते हैं | ऐसी कपोल कल्पनाएँ हमने फिल्मों में ही देखी हैं | प्रसिद्ध हॉलीवुड फिल्म अवतार में हमने हवा में तैरते पर्वतों को देखा है पर उसके पीछे कुछ अलग ही वैज्ञानिक सिद्धांत दिए गए हैं पर धार्मिक पुस्तकों में पंख वाले पर्वतों का वर्णन मिलता है जो सजीव की भांति उड़ सकते थे |ऐसा ही एक प्रसंग महर्षि वाल्मीकि द्वारा रचित रामायण के सुन्दरकाण्ड में मिलता है जब हनुमान द्वारा समुद्र लंघन किया जा रहा होता है | भगवान श्री राम के कार्य के लिए हनुमान को समुद्र लंघन करते देख स्वयं समुद्र ने मैनाक नामक पर्वत से अनुरोध किया कि वह हनुमान को अपने ऊपर कुछ समय विश्राम करने को कहे | बाबा तुलसीदास ने रामचरित मानस में इस प्रसंग को बहुत संक्षेप में इतना ही लिखा है,



जलनिधि रघुपति दूत विचारी | तैं मैनाक होहु श्रम हारी ||

हनूमान तेहिं परसा कर पुनि कीन्ह प्रणाम,
राम काज कीन्हें बिना   मोहे कहां विश्राम |




(अर्थात समुद्र ने हनुमान को श्री राम के दूत जान कर मैनाक से कहा कि तुम हनुमान जी के श्रम को दूर करो , उन्हें विश्राम दो किन्तु हनुमान जी ने मैनाक को छूकर उन्हें प्रणाम किया और उनके अनुरोध को अस्वीकार करते हुए कहा कि जबतक श्री राम जी के कार्य को पूरा न कर लूँ मैं विश्राम न कर पाउँगा |)
                     पर महर्षि वाल्मीकि ने रामायण में इस प्रसंग को थोड़ा विस्तार से लिखा है | समुद्र ने सोचा कि भगवान श्री राम के पूर्वज इक्ष्वाकुवंशी सगर महाराज तो मेरी उन्नति करने वाले थे अतः इस समय राम जी के दूत की सहायता करना मेरा कर्तव्य है | यह सोचकर उन्होंने स्वर्ण की चोटी वाले मैनाक के पास जाकर कहा,"हे गिरिवर ! देवराज इंद्र ने तुम्हें पातालवासी असुरों को उपर आने से रोकने के लिए एक परिघ की तरह स्थापित कर रखा है इसी से तुम असीम पाताल का द्वार रोके रहते हो | तुम सीधे तिरछे उपर नीचे किसी भी तरफ बढ़ सकते हो | अतएव हे पर्वोत्तम ! मैं तुमसे कहता हूँ कि तुम उपर उठो | देखो ये बलवान हनुमानजी तुम्हारे उपर पहुँचना ही चाहते हैं |मैं इक्ष्वाकुवंशियों का हितैषी हूँ, अतः मेरा यह कर्तव्य है कि मैं इनकी कुछ सहायता करूँ। तुम हनुमानजी के श्रम को हरने के लिए ऊपर उठो।" 
                       तब स्वर्णिम शिखरवाला बड़े बड़े वृक्षों और लताओं से युक्त मैनाक पर्वत समुद्र के जल को चीर कर वैसे ही ऊपर उठा जैसे मेघों को चीर कर सूर्यदेव उदय होते हैं। उस समय सौ सूर्यों की तरह पर्वतश्रेष्ठ मैनाक की शोभा हुई। तेजी से विशालकाय पर्वत को सामने उठे हुए देखकर हनुमानजी ने सोचा कि अचानक कोई विघ्न उपस्थित आ खड़ा हुआ है। अतः उन्होंने छाती की ठोकर से मैनाक को समुद्र के भीतर ठेल दिया। मैनाक उनके बल और वेग को देख कर बहुत प्रसन्न हुआ, वह पुनः ऊपर उठा और गर्जा। फिर मानव रूप धारण कर अपने पर्वत पर खड़ा हो कर आकाश में स्थित हनुमानजी से प्रसन्न एवं प्रेमपूर्वक बोला -"हे वानरोत्तम !यह तुम बड़ा ही कठिन कार्य करने को उद्धत हुए हो। अतः तुम थोड़ी देर मेरे वृक्षों से स्वादिष्ट एवं सुगंधयुक्त फलों और कंद मूलों को खाकर मेरे श्रृंग पर ठहरकर विश्राम कर लो फिर सुखपूर्वक आगे चले जाना।इक्ष्वाकुवंशियों का कृतज्ञ यह समुद्र श्री रामजी के हितसाधन में लगे आप का प्रत्युपकार करना चाहते हैं क्योंकि उपकार करने वाले का उपकार करना सनातन धर्म है। हे कपिश्रेष्ठ, मेरा भी तुम्हारे साथ कुछ सम्बन्ध है जो तीनो लोकों में प्रसिद्ध है। तुम देवताओं में श्रेष्ठ महात्मा पवनदेव के पुत्र हो। तुम्हारी पूजा करना मानो पवनदेव की पूजा करना है। अतः तुम मेरे भी पूज्य हो। इसके अतिरिक्त तुम्हारे पूज्य होने का एक और भी कारण  है उसे सुनो। हे तात ! प्राचीनकाल में सतयुग में सभी पहाड़ों के पंख हुआ करते थे। वे पंखधारी पहाड़ गरुड़ जी की तरह बड़े वेग से चारो तरफ उड़ा करते थे। पर्वतों को उड़ते देख देवता, ऋषि तथा अन्य प्राणी उनके अपने ऊपर गिरने की आशंका से डर गए। तब हज़ार नेत्रों वाले इंद्र ने कुपित होकर अपने वज्र से इधर उधर घूमने वाले हज़ारों पहाड़ों के पंख काट डाले। जब देवराज इंद्र वज्र उठाकर मेरी ओर आये तब महात्मा पवनदेव ने मुझे सहसा उठा कर खारे समुद्र में फेंक दिया। इस प्रकार उन्होंने मेरे समस्त पंखों की रक्षा की।हे पवननंदन !तुम्हारे साथ मेरा यही सम्बन्ध है। तुम एक तो मेरे पूज्य पवनदेव के पुत्र हो दूसरे कपियों में मुख्य और बड़े गुणवान होने के कारण मेरे मान्य हो, अतः मैं तुम्हारी पूजा करता हूँ। तुम्हारे ऐसा करने पर मेरी और सागर की प्रीती और भी बढ़ेगी। अतः हे महाकपे तुम अपना श्रम दूर कर, मेरा आतिथ्य ग्रहण कर मुझे प्रसन्न करो।"
                  जब मैनाक ने इस प्रकार कहा तब कपिश्रेष्ठ हनुमान ने कहा,"मैं आपके आतिथ्य से प्रसन्न हूँ, आपने मेरा सत्कार किया। अब आप अपने मन में किसी प्रकार का खेद न करें। एक तो मुझे कार्य की जल्दी है, दूसरे समय भी बहुत हो चुका है और तीसरे मैंने वानरों के सामने यह प्रतिज्ञा भी की है कि मैं बीच में कहीं न ठहरूँगा।"  
                       यह कहकर कपिश्रेष्ठ हनुमान जी ने मैनाक को हाथ से छुआ और हँसते हुए आकाश में उड़ चले। तब तो मैनाक और समुद्र ने हनुमान जी को बड़े प्रतिष्ठा की दृष्टि से देखा, उनको आशीर्वाद दिया और उनका अभिनन्दन किया। हनुमान जी ने आकाश में पहुँच कर मैनाक की ओर देखा फिर विमल आकाश में बिना किसी अवलम्ब के उड़ चले। हनुमान जी का यह दुष्कर कार्य देख कर सभी देवता, सिद्ध और महर्षिगण उनकी प्रशंसा करने लगे।उस समय शचीपति इंद्र स्वर्ण शिखर वाले मैनाक से प्रसन्न होकर गदगद वाणी से बोले,"हे शैलेन्द्र ! मैं तुम्हारे इस कार्य से बहुत प्रसन्न हूँ, तुम्हें अभयवर देता हूँ कि तू अब जहाँ चाहे वहाँ सुखपूर्वक रह सकता है।" इंद्र से अभयदान पाकर मैनाक प्रसन्न हुआ और सुस्थिर हुआ।
                   इस प्रकार महर्षि वाल्मीकि रचित रामायण के मैनाक -हनुमान संवाद के अनुसार सतयुग में पहाड़ों के पंख हुआ करते थे जिन्हें इंद्र ने अपने वज्र से काट डाला ताकि वे उड़ न सकें और पृथ्वी के प्राणी निर्भय रह सकें। पवनदेव की कृपा से मात्र मैनाक के ही पंख बच पाए। 
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