Tuesday, October 13, 2020

माँ दुर्गा की आराधना अवश्य करें

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          देवी दुर्गा "आदिशक्ति" हैं, अर्थात शक्ति का मूल स्रोत हैं। दुनियाँ में कोई भी कार्य करने के लिए कम या अधिक शक्ति की आवश्यकता होती ही है, चाहे वह कार्य मनुष्य करे या कोई देव, दानव, राक्षस कोई भी जीव। फिर चाहे वह कार्य रचनात्मक हो या विध्वंसक। इस शक्ति और ऊर्जा के कई रूप होते हैं। इनके कई रूपों को हमलोग भौतिकी में जानते भी हैं। किन्तु दैनिक जीवन में हम अनुभव करते हैं कि इस शक्ति के कई अन्य रूप भी हैं जो भौतिकी से बाहर हैं। यथा, धन-सम्पदा की शक्ति, शारीरिक शक्ति, राजनैतिक शक्ति, आध्यात्मिक शक्ति, प्रेम की शक्ति, इत्यादि। अपने जीवन में हमलोग शक्तिशाली लोगों का अनुसरण करते हैं, हमें करना होता है। हमें शक्ति प्राप्त करने की इच्छा होती है, हम शक्तिशाली होना चाहते हैं। जाने - अनजाने हमलोग शक्ति की ही पूजा करते हैं चाहे हमारा कोई भी धर्म हो। सनातन हिन्दू धर्म में, किसी भी जीव यथा मानव, दानव, देवता, आदि के भीतर की शक्ति को देवी आदिशक्ति या दुर्गा का ही रूप माना जाता है। जो त्रिदेव हैं उनकी भी अपरिमित शक्ति ये ही आदिशक्ति हैं, सिर्फ उनके नाम अलग अलग हैं। जैसे ब्रह्मा की शक्ति को ब्राह्मणी कहते हैं,  विष्णु की शक्ति को वैष्णवी और शिव की शक्ति को शाम्भवी अर्थात पार्वती। ये तीनों देवता या अन्य इसीलिए पूजे जाते हैं क्योंकि इनके पास ये शक्तियाँ हैं। इन्हीं शक्तियों के कारण ये अपने अनुगामियों और भक्तों की मनोकामनाएँ पूर्ण कर सकते हैं। इस प्रकार सबके मूल में भगवती आदिशक्ति अर्थात भगवती दुर्गा ही हैं। शिव को देवों के देव महादेव कहते हैं किन्तु शक्ति के बिना शिव शव सामान हैं। शक्ति की पूजा करनेवाले "शाक्त" कहे जाते हैं।

श्रीदुर्गा सप्तशती पुस्तक

 

       एक बार भगवती ने दुर्ग नाम के भयंकर राक्षस का वध किया, फलस्वरूप उनका नाम दुर्गा पड़ा। कहा जाता है कि जब माँ दुर्गा प्रसन्न होती हैं तो वे अपने भक्तों को वांछित ज्ञान, मोक्ष, स्वर्ग तथा अन्य सांसारिक वस्तुएँ प्रदान करती हैं। माँ दुर्गा को प्रसन्न करने का सर्वोत्तम तरीका है "दुर्गा सप्तशती" का नियमपूर्वक पाठ। "दुर्गा सप्तशती" एक धार्मिक पुस्तक है जिसमें सात सौ श्लोक हैं। इसमें वर्णन है कि किस प्रकार राजा सुरथ (जिनका राज-पाट छिन गया था) और वैश्य समाधि (जिनकी धन-सम्पदा छिन गई थी) वैभव से रहित वन में जाते हैं जहाँ शिष्यों सहित एक मुनि को देखते हैं। वे मुनि को अपना अपना परिचय देकर विपत्तियों को दूर करने का उपाय पूछते हैं। मुनि उन्हें भगवती दुर्गा की शरण में जाने को कहा, उनकी आराधना करने कहा, उनके प्रसन्न होने पर वे अपने भक्तों को सांसारिक सुख, स्वर्ग तथा मोक्ष देती हैं:-

तमुपैहि महाराज शरणं परमेश्वरीं आराधिता सैव नृणां भोगस्वर्गापवर्गदा।


   मुनि के निर्देशानुसार उन्होंने श्रद्धा और भक्तिपूर्वक भगवती दुर्गा की आराधना की, उनसे प्रसन्न होकर देवी प्रकट हुईं और वरदान मांगने के लिए कहा। समाधि ने ज्ञान और मोक्ष माँगा जबकि सुरथ ने अचल राज्य। देवी ने दोनों को इच्छित वरदान दिया। साथ ही राजा सुरथ को दूसरे जन्म में अगले मन्वन्तर के मनु होने का भी वरदान दिया। इस प्रकार सुरथ अगले मन्वन्तर सावर्णि के मनु होंगे। 

    दुर्गासप्तशती में भगवती द्वारा अनेक असुरों का वध कर बार-बार देवताओं की रक्षा करने का वर्णन है। कुल सात सौ श्लोकों को तेरह अध्यायों में बाँटा गया है। ये सभी अध्याय तीन चरित्रों में रखे गए हैं। 

 

प्रथम चरित्र - एक अध्याय (पहला)

मध्यम चरित्र - तीन अध्याय (दूसरा से चौथा)

उत्तर चरित्र - नौ अध्याय (पाँचवाँ से तेरहवाँ)


     इन अध्यायों की संख्या पर गौर करें। 1, 3, 9 - ये गणित के ज्यामितीय प्रोग्रेशन में हैं, रहस्यमयी ! यद्यपि प्रत्येक अध्याय के प्रारम्भ में भगवती के अलग अलग रूपों का ध्यान किया गया है किन्तु प्रत्येक चरित्र में, देवियों के तीन मूल रूप का ध्यान किया जाता है। 

     प्रथम चरित्र महाकाली को समर्पित है। इसके एकमात्र प्रथम अध्याय में देवी के महामाया रूप के प्रभाव का वर्णन है। एक बार महामाया के प्रभाव से भगवान विष्णु गहरी निंद्रा में सो गए। लम्बे समय उपरान्त उनके कानों से गन्दगी बहार गिरे जो तुरंत ही मधु और कैटभ नाम के दो विकट असुरों में परिवर्तित हो गए। उनकी दृष्टि विष्णु के नाभि कमल पर बैठे ब्रह्मा पर गयी। दोनों असुर ब्रह्मा को मारने दौड़े। ब्रह्मा ने विष्णु को बचाने के लिए पुकारा पर वे तो महामाया के प्रभाव में सो रहे थे। तब ब्रह्मा ने महामाया भगवती की सुन्दर श्लोकों से स्तुति की (जिसे रात्रिसूक्त कहते हैं) और भगवान् विष्णु को अपने प्रभाव से मुक्त करने की विनती की। प्रसन्न हो कर भगवती ने ऐसा ही किया। महामाया के प्रभाव से मुक्त होकर विष्णु जागे और उन दैत्यों से युद्ध किया। 5000 वर्षों तक युद्ध होने पर भी कोई नतीजा न देख कर महामाया ने उन दैत्यों पर माया की। माया के प्रभाव से सम्मोहित दैत्यों ने विष्णु से कहा -"हम तुम्हारी युद्धकला से प्रसन्न हैं, तुम वर मांगो।" विष्णु बोले -"मेरे हाथों तुम्हारा वध हो।" तब दैत्यों ने पूरी धरती को पानी में जलमग्न देख कर कहा - "तुम हमें वहाँ मारो जहाँ सूखा हो।" विष्णु ने दैत्यों को अपनी जंघा पर लिटाया और चक्र से उनका गला काट दिया। इस प्रकार ब्रह्मा की रक्षा की। 

         मध्यम चरित्र में महालक्ष्मी का ध्यान किया जाता है। इंद्र और अन्य देवताओं की रक्षा देवी ने महिषासुर को मार कर किया। इसलिए उनका नाम महिषासुरमर्दिनि भी पड़ा। 

उत्तर चरित्र में महासरस्वती का ध्यान किया जाता है। इंद्र आदि देवताओं की प्रार्थना पर भगवती का देवी पार्वती के शरीर से प्राकट्य हुआ। भयंकर दैत्य शुम्भ और निशुम्भ का वध उनके बलशाली और मायावी सेनापतियों सहित कर देवी ने देवताओं की रक्षा की। इन सेनापतियों में धूम्रलोचन, चण्ड -मुण्ड, रक्तबीज आदि थे। 

          जब जब मनुष्य अथवा देवताओं ने भक्तिपूर्वक देवी को पुकारा है तब तब देवी ने उनकी सहायता की है। उत्तर  चरित्र का बारहवाँ अध्याय देवी चरित्रों के पाठ अथवा श्रवण का माहात्म्य बताता है। मात्र बारहवें अध्याय के श्रवण का ही अनेक फल बताया गया है। रोग, महामारी, दुष्ट ग्रहों के कुप्रभाव, मृत्यु-भय, डाकुओं का भय या अन्य कोई भी कष्ट इसके श्रवण मात्र से ही दूर होते हैं। स्वयं भगवती ने प्रसन्न हो कर वरदान दिया था की भविष्य में भी जब जब असुरों की वृद्धि होगी तब तब मैं अनेक नाम रूपों से प्रकट होकर उनका सँहार करुँगी और देवताओं तथा मनुष्यों की रक्षा करुँगी। उनमें से मेरे कुछ नाम इस प्रकार होंगे - दुर्गा, भ्रामरी, शाकम्भरी, भीमा, चामुंडा, आदि। बारहवें अध्याय के अंतिम श्लोकों में भगवती ने इस प्रकार कहा है:-


भवकाले नृणां सैव लक्ष्मीर्वृद्धिप्रदा गृहे।
सैवाभावे तथाSलक्ष्मीर्विनाशायोप जायते।।



स्तुता सम्पूजिता पुष्पैर्धूपगन्धादिभिस्तथा।
ददाति वित्तं पुत्रांश्च मतिं धर्मे गतिं शुभाम्।।


(अर्थात जब मनुष्य की भौतिक जगत में उन्नति होती है तब मैं ही हूँ जो उसके घर में लक्ष्मी बनकर आती हूँ और जब अभाव का समय आता है तो मैं ही दारिद्र्य बनकर उसे बर्बाद कर देती हूँ। अतः जो भी पुष्प, धूप, गंध, आदि से मेरी पूजा - स्तुति  करता है उसे मैं धन और पुत्र देती हूँ, उसकी मति धर्म की ओर अग्रसर होती है तथा शुभ गति होती है।)


     हिन्दू पञ्चाङ्ग की अष्टमी, नवमी और चतुर्दशी की तिथियाँ नियमपूर्वक दुर्गा सप्तशती के पाठ के लिए सर्वोत्तम होती हैं। वार्षिक पूजा के लिए आश्विन मास के शुक्ल पक्ष के प्रथम नौ दिन अर्थात नवरात्र में दुर्गा सप्तशती का पाठ, पूजा उपरान्त होम तथा ब्राह्मण -कुमारिका भोजन बहुत ही फलदायी माना जाता है। यद्यपि वर्ष में इसके अतिरिक्त तीन-तीन माह के अंतराल पर तीन और नवरात्र होते हैं, तथापि आश्विन मास का नवरात्र सबसे अधिक महत्वपूर्ण होता है। पूर्वी भारत यह सबसे बड़ी पूजा मानी जाती है।  

       भगवती ने यह भी कहा - "अगर बलिपूजा के समय दुर्गा सप्तशती का नियमपूर्वक पाठ किया जाय तो भक्त को विधि की जानकारी हो या न हो, मैं स्वीकार करती हूँ और प्रसन्न होती हूँ। जिस मंदिर में नित्य दुर्गा सप्तशती का पाठ होता है उस मंदिर को मैं कभी नहीं छोड़ती।"

    गीता प्रेस, गोरखपुर द्वारा दुर्गा सप्तशती पुस्तक आम जनों के लिए सही दाम पर उपलब्ध करा कर सराहनीय कार्य किया गया है। इसमें सप्तशती पाठ करने के नियमों भी वर्णन किया गया है। पुस्तक के अंत में भक्तों की विभिन्न कामनाओं के लिए सप्तशती के विशिष्ट मन्त्रों की एक सूची भी दी गयी है। देवी के भक्तों को इस पुस्तक को घर में अवश्य रखना चाहिए।

      संस्कृत में कहा गया है, " कलौ गौरी विनायकौ", अर्थात कलियुग में गणेश (पार्वतीपुत्र) और पार्वती (जो आदिशक्ति हैं) ही भक्तों का उद्धार तथा उनकी मनोकामना पूर्ण करेंगे। ये दोनों पंचदेवता में भी हैं, इनके अतिरिक्त शिव, नारायण और सूर्य पंचदेवता में हैं। प्रत्येक पूजन के प्रारम्भ में पंचदेवता की पूजा अनिवार्य है। 

       दुर्गा सप्तशती का नियमपूर्वक प्रतिदिन पूर्ण पाठ समय साध्य कार्य है और सब के लिए संभव नहीं है। फिर भी भगवती की पूजा -स्तुति कम समय में भी करनी चाहिए क्योंकि देवी की पूजा कभी व्यर्थ नहीं जाती। इस पुस्तक में भगवती की अनेक स्तुतियों को भी दिया गया है तथा प्रतिदिन पाठ के लिए तेरह अध्यायों में से एक या दो अध्यायों का कॉम्बिनेशन भी बताया गया है। स्तुतियों में:-

सप्तश्लोकी दुर्गा - सात श्लोकों का समूह जिसे देवी ने शिव के आग्रह पर उन्हें बताया था, इसके पाठ से देवी प्रसन्न होती हैं।  

दुर्गा अष्टोत्तर शतनाम -दुर्गा के 108 नाम जिसे भौमवती अमावस्या की आधी रात को जब चन्द्रमा शतभिषा नक्षत्र में हो लिखकर पाठ करने से व्यक्ति सम्पत्तिशाली होता है, 

देव्यथर्व शीर्ष - देवी की महिमा उनके ही श्रीमुख से, श्रीविद्या का मन्त्र,

रात्रिसूक्त - ब्रह्मा द्वारा देवी महामाया की स्तुति जिससे प्रसन्न हो कर उन्होंने विष्णु को नींद से जागने दिया और विष्णु ने मधु -कैटभ का वध किया, 

देवीसूक्त - देवताओं द्वारा शुम्भ-निशुम्भ दैत्यों से रक्षा के लिए देवी की स्तुति, 

दुर्गा मानस पूजा - भगवती की ऐसी पूजा जिसमें सभी प्रकार के अर्पण मानसिक रूप से की जाती है,

दुर्गा द्वात्रिंशनाम माला - दुर्गा के बत्तीस नाम जो मनुष्य को भीषण विपत्तियों से मुक्त करते हैं,

इत्यादि दिए गए हैं। भक्त इनमें से एक या अधिक स्तुतियों का चयन दैनिक पूजा के लिए कर सकते हैं।

अक्षमाला

 

इस पुस्तक में दुर्गा बीज मन्त्र भी दिया गया है जिसका अक्षमाला पर 108 बार जप किया जाना चाहिए। अक्षमाला छोटे छोटे रुद्राक्षों की माला होती है। बीज मन्त्र  प्रकार है :-  

"ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डाय्येे विच्चे"

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