Tuesday, January 14, 2020

तुलसीदास - अनोखे रस-लालित्य के कवि

बाबा तुलसीदास
(चित्र गूगल से साभार)
        बाबा तुलसीदास ने आधुनिक सनातन हिन्दू धर्म को एक नई दिशा ही नहीं दी बल्कि एक सामान्य मनुष्य को कैसा सामाजिक व्यवहार रखना चाहिए इसकी भी शिक्षा दी। आदिगुरु शंकराचार्य की तरह उन्होंने हिन्दू धर्म के विभिन्न पंथों यथा शैव, वैष्णव एवं शाक्त को एक दूसरे का पूरक बताया। उन्होंने धर्म के मर्म को जन - जन तक पहुँचाया और इसका माध्यम बनाया जनभाषा अवधी को। अवधी जिसे अब हिंदी की ही उपभाषा (Dialect) मानी जाती है किन्तु जो आधुनिक हिंदी से बहुत पुरानी है। तुलसीदास के पूर्व जो भी धार्मिक रचना की जाती थी वो परम्परावश संस्कृत में की जाती थी क्योंकि संस्कृत देवभाषा मानी जाती है। परन्तु संस्कृत जनभाषा या लोकभाषा नहीं थी। अतः जनता को धर्म की जानकारी ऋषि, मुनि और पंडितजन के द्वारा ही मिल पाती थी, वे सीधे पुस्तक से ज्ञान प्राप्त नहीं कर सकते थे। तुलसीदास ने लोकभाषा में धार्मिक रचना करने का साहस किया और उनकी रचना अभूतपूर्व रूप से लोकप्रिय हुई। पर मात्र लोकभाषा अपनाने के कारण ही वे लोकप्रिय नहीं हुए बल्कि सबसे बड़ा योगदान उनकी रचना का रसमाधुर्य है।
वृहत शब्दभंडार के मालिक होने के साथ साथ भाषा पर उनकी पकड़ अद्वितीय थी। इसके साथ ही कल्पनाशीलता भी नवीन थी। भक्तिरस की बात तो छोड़िये, विरह और प्रेमरस में उनकी कल्पनाशीलता की आज भी नक़ल की जाती है। इसका उदहारण देता हूँ। अशोकवाटिका में श्री हनुमान, प्रभु राम का सन्देश सीता माता को देते हैं। हनुमान कहते हैं,

कहेउ राम बियोग तव सीता। मो कहुँ सकल भए बिपरीता।
नव तरु किसलय मनहुँ कृसानू। कालनिसा सम निसि ससि भानू।
कुबलय बिपिन कुंतबन सरिसा। बारिद तपत तेल जनू बरिसा।
जे हित रहे करत तेइ पीरा। उरग स्वास सम त्रिबिध समीरा।
कहेहु तें कछु दुख घटि होई। काहि कहौं यह जान न कोई।
तत्व प्रेम कर मम अरु तोरा। जानत प्रिया एकु मनु मोरा।
सो मनु सदा रहत तोहि पाहीं। जानु प्रीति रसु एतनेहि माहीं। 

(श्रीरामचन्द्रजी ने कहा है कि हे सीते ! तुम्हारे वियोग में मेरे लिए सभी पदार्थ प्रतिकूल हो गए हैं। वृक्षों के नये नये कोमल पत्ते मानो अग्नि के समान, रात्रि कालरात्रि के समान, चन्द्रमा सूर्य के समान और कमलों के वन भालों के समान हो गए हैं। मेघ मानों खौलता हुआ तेल बरसाते हैं। जो हित करनेवाले थे, वे ही अब पीड़ा देने लगे हैं। त्रिविध वायु सॉंप के श्वास के समान हो गयी है। मन का दुःख कह डालने से भी कुछ घट जाता है। पर कहूँ किससे ? यह दुःख कोई नहीं जनता। हे प्रिये ! मेरे और तेरे प्रेम का तत्व एक मेरा मन ही जानता है। और वह मन सदा तेरे ही पास रहता है। बस मेरे प्रेम का सार इतने में ही समझ ले। )

          सिर्फ अवधी भाषा में ही नहीं, संस्कृत में भी उनकी रचना में जो मधुरता है वह अनोखी है। आदिगुरु शंकराचार्य की रचनाएँ ही इनसे मेल कर सकती हैं। उदाहरण के लिए तुलसीदास द्वारा रचित संस्कृत रचना "रुद्राष्टक" को लीजिये। भगवान शंकर की आराधना में यह सबसे लोकप्रिय स्तुति है --- "नमामीशमीशान निर्वाणरूपं विभुं व्यापकं ब्रह्मवेदस्वरूपम" --- 
      
         वर्षों पहले पढ़ा था कि तुलसीदास द्वारा रचित श्रीरामचरितमानस को बनारस के अधिकांश विद्वान द्वेष भाव से मान्यता नहीं देना चाहते थे। विवाद बढ़ने पर यह तय हुआ कि सभी विद्वानों की रचनाएँ बाबा विश्वनाथ के गर्भगृह में रात को रखी जाएँ और सुबह जिसकी रचना सबसे ऊपर रखी मिले वही सर्वोत्तम रचना होगी। ऐसा ही किया गया। अगली सुबह सबसे ऊपर श्रीरामचरितमानस ही मिली और इस अनुपम रचना को मान्यता और प्रसिद्धि मिली। तब मुझे इसे पढ़ने में यह समझ में नहीं आता था, अर्थ हिंदी अनुवाद से समझता था। शायद शब्दों का भण्डार मेरे पास नहीं था और सबसे बड़ी बात कि हृदय में सच्ची भक्ति नहीं थी। अब जब ये सब हैं तो सच में मानस छोड़ और किसी रचना में वह आनंद ही नहीं आता।  
          ईo सन 1511 में उत्तर प्रदेश के राजापुर, बाँदा में पिता आत्माराम दुबे और माता हुलसी देवी के घर में जन्मे तुलसीदास के श्रीरामचरितमानस की लोकप्रियता और जनसम्मान की तो बात ही क्या ! यथा, मन्त्रों की बात करें तो संस्कृत में ही मन्त्र होते हैं किन्तु मानस की चौपाइयां ही संस्कृत के अलावा अन्य भाषा में मन्त्रों की तरह प्रयुक्त किये जाते हैं। जैसे - आकस्मिक विपत्ति को दूर करने के लिए 
दीनदयाल बिरुद संभारी। हरहु नाथ मम संकट भारी।

घर से निकलते समय यात्रा की सफलता के लिए,
प्रबिसि नगर कीजे सब काजा। हृदय राखी कोसलपुर राजा।

मंगलकामनाओं के लिए, 
मंगल भवन अमंगल हारी। द्रवउ सो दसरथ अजिर बिहारी।

कार्य सिद्धि के आग्रह के लिए और संकट को दूर रखने के लिए,
कहइ  रीछपति  सुनु  हनुमाना। का  चुप  साधि  रहेहु बलवाना।

पवन  तनय  बल  पवन समाना । बुधि  बिबेक बिग्यान  निधाना।

कवन सो काज कठिन जग माहीं। जो नहिं होइ तात तुम्ह पाहीं।

घर में सुख समृद्धि के वास के लिए,
जब ते राम ब्याही घर आये, नित नव मंगल मोद बधाये। 
भुवन चारी दस भूधर भारी, सुकृत मेघ वर्षहिं सूखवारी।
रिद्धी सिद्धी संपति नदी सूहाई, उमगि अव्धि अम्बूधि तहं आई। 

क्लेश नाश के लिए,
हरन कठिन कलि कलुष कलेसु। महामोह निसि दलन दिनेसू।

रोग और उपद्रव शांति के लिए,
दैहिक दैविक भौतिक तापा। रामराज नहीं काहुहि व्यापा।

नज़र न लगने के लिए,
स्याम गौर सुन्दर दोउ जोरि। ताकर नाम भरत अस होइ।

पुत्र प्राप्ति के लिए,
 प्रेम मगन कौसल्या निसि दिन जात न जान।
सुख सनेह बस माता बालचरित कर गान।

संपत्ति प्राप्ति के लिए,
जे सकाम नर सुनहि जे गावहि। सुख संपति नाना बिधि पाबहि।

शत्रुता समाप्ति के लिए,
गरल सुधा रिपु करहीं मिताई। गोपद सिंधु अनल सितलाई।

विघ्नरहित यात्रा पूर्ण होने के लिए,
चलत बिमान कोलाहल होइ। जै रघुबीर कहै सब कोई। 

इत्यादि  .......


        तुलसीदास मात्र कवि और भक्त ही नहीं थे बल्कि जीवन के विभिन्न अनुभवों से तपे हुए खरी - खरी बातें कहने वाले व्यक्ति भी थे। ये बातें उन्होंने इन चौपाईयों में भी कहीं हैं। जैसे जीवन के यथार्थ को बताने वाली निम्नलिखित चौपाई :-


स्वारथ लागि करहीं सब प्रीती। सुर नर मुनि सब के यही रीति।

(अर्थात सभी प्रेम स्वार्थ के फलस्वरूप ही करते हैं चाहे वे देवता हों, मनुष्य हों या मुनि हों।) 
और ये,
सुत बित नारी भवन परिवारा। होहि जाहिं जग बारहिं बारा।
अस बिचारि जियँ जागहु ताता। मिलइ न जगत सहोदर भ्राता।

(हे भ्राता लक्ष्मण ! इस जग में पुत्र, धन, स्त्री, भवन और परिवार पुनः मिल सकते हैं पर सहोदर भाई नहीं। यह विचार कर तुम मूर्छा छोड़ कर जागो।) 


सचिव बैद गुर तीनि जौं प्रिय बोलहिं भय आस।
राज  धर्म  तन  तीनि  कर  होइ  बेगिहीं  नास।।

 (मंत्री, चिकित्सक और गुरु ये तीनों यदि भयवश प्रिय लगनेवाली बातें करें तो निश्चित ही राज, धर्म और शरीर इनका शीघ्र ही नाश हो जाता है।) 


 जहाँ सुमति तहँ संपति नाना। जहाँ कुमति तहँ बिपति निदाना।

(जहाँ व्यक्ति की बुद्धि सही होती है, अच्छी होती है वहाँ हर हर प्रकार से सुख - संपत्ति का वास होता है परन्तु जहाँ व्यक्ति के बुद्धि विचार सही नहीं होते वहाँ अनेक विपत्ति और दुःख का निवास होता है।)


बिनु सतसंग बिबेक न होई। राम कृपा बिनु सुलभ न सोई।


(सत्संग के बिना विवेक नहीं होता और श्रीराम की कृपा के बिना सत्संग सहज में मिलता नहीं।)


वन्दे  बोधमयं नित्यं  गुरुं शंकररूपिणम्।
यमाश्रितो ही वक्रोऽपि चन्द्रः सर्वत्र वन्द्यते।

(ज्ञानमय, नित्य, शंकररूपी गुरु की मैं वन्दना करता हूँ, जिनके आश्रित होने से ही टेढ़ा चन्द्रमा भी सर्वत्र वन्दित होता है। अर्थात यदि गुरु शिव जैसे महान होंगे तो शिष्य कमतर होने पर भी प्रशंसित होता है।) 


इत्यादि   . . . . . 

               श्रीरामचरितमानस की कुछ चौपाइयों के समूह तो विशेष प्रयोजन के लिए नित गाये जाते हैं। जैसे माता सीता द्वारा माँ भवानी की स्तुति जो श्रीरामजी को वर रूप में पाने के लिए की गई, माना जाता है कि इसे अविवाहित कन्या द्वारा नित पढ़ने से शीघ्र योग्य वर प्राप्त होता है। यह स्तुति है,
जय जय गिरिवरराज किसोरी। जय महेस मुख चंद चकोरी।
जय गजवदन षडानन माता। जगतजननी दामिनी द्युति गाता।
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जानी गौरी अनुकूल सिय हिय हरसू ना जाई कही।

मंजुल   मंगल   मूल   बाम  अंग   फरकन   लगे।




गुरु की महिमा बखान और उनकी वंदना निम्नलिखित चौपाइयों में हैं जिन्हे गुरु-गीता कहा जाता है,
बंदउँ गुरु पद कंज कृपा सिंधु नररूप हरि।
महामोह तम पुंज जासु बचन रवि कर निकर।
बंदउँ गुरु पद पदुम परागा। सुरुचि सुबास सरस अनुरागा।
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गुरु पद रज मृदु मंजुल अंजन। नयन अमिय दृग दोष बिभंजन।

तेहिं करि बिमल बिबेक बिलोचन। बरनउ राम चरित भव मोचन।

इत्यादि  . . . . . 

        जब बाबा तुलसीदास की रचनाओं की बात हो तो घर घर में और जन जन को कंठस्थ हनुमान चालीसा की चर्चा आवश्यक है। चालीस दोहों में हनुमान जी के अचंभित कर देने वाले कार्यों का विवरण जिसके पाठ मात्र से हर प्रकार की विघ्न बाधा दूर होने और अदृश्य हानिकारक शक्तियों को भगाने का विश्वास जनमानस में है। 
         फिर बजरंग बाण जिसमें एक अलग ही लय - ताल और रस है इसे भी कार्य सिद्धि और विघ्न बाधा दूर करने के लिए पढ़ा जाता है। 

            तुलसीदास की रचनाएँ इस बात का उदाहरण हैं कि यदि किसी के पास अमूल्य प्रतिभा है तो बिना प्रचार प्रसार के भी उसकी रचनाएँ जनचर्चा के माध्यम से लोकप्रिय हो सकती हैं। अंत में श्रीरामचरित मानस की वो चौपाई जो मुझे सबसे प्रिय है :-


      भगवान श्री राम कहते हैं जिनका मन निर्मल होता है वे ही मुझे पा सकते हैं क्योंकि मुझे कपटी और चालू लोग पसंद नहीं हैं। सच में, यदि ईश्वर को पाना है तो मात्र भक्ति ही नहीं सरल हृदय रखना जरूरी है।  


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