Sunday, June 19, 2022

"गोपी-गीत" - अर्थ-सहित

"गोपी-गीत" का प्रसंग जानने के लिए पिछले ब्लॉग पोस्ट - "गोपी-गीत" रासपंचाध्यायी -भूमिका - पढ़ने की सलाह दी जाती है। 

विरहाकुल गोपिकाएं
(चित्र - गूगल से साभार)


     गोपी -गीत श्रीमद्भागवतमहापुराण के दसवें स्कन्द के इकतीसवें अध्याय में वर्णित एक गीत है जो गोपियाँ श्रीकृष्ण के उनकी आँखों से ओझल हो जाने के बाद विह्वल हो कर गातीं हैं। यह गीत प्रेम और भक्ति में आकंठ डूबी गोपियों के मनोभावों का बहुत ही गहराई से एहसास कराती है। कथावाचकों और धर्माचार्यों द्वारा इस गीत की महिमा अपरम्पार कही गयी है। भगवद् प्रेम सम्बन्ध में गोपियों का प्रेम सबसे निर्मल, सर्वोच्च और अतुलनीय माना गया है। इसमें 19 श्लोक हैं। 
श्रीकृष्णमय गोपिकाएं
(चित्र: गूगल से साभार)


गोप्य ऊचुः
(गोपिका विरहावेश में गाने लगीं)

जयति  तेऽधिकं  जन्मना  व्रजः    श्रयत  इन्दिरा  शश्वदत्र  हि ।
दयित दृश्यतां दिक्षु तावकास्त्वयि धृतासवस्त्वां विचिन्वते ॥1॥

(हे प्यारे ! तुम्हारे जन्म के कारण वैकुण्ठ आदि लोकों से भी व्रज की महिमा बढ गयी है। तभी तो सौन्दर्य और मृदुलता की देवी लक्ष्मीजी अपना निवास स्थान वैकुण्ठ छोड़कर यहाँ नित्य निरंतर निवास करने लगी हैं, इसकी सेवा करने लगी हैं। परन्तु हे प्रियतम ! देखो तुम्हारी गोपियाँ जिन्होंने तुम्हारे चरणों में ही अपने प्राण समर्पित कर रखे हैं , वन वन में भटककर तुम्हें ढूंढ़ रही हैं।।)

शरदुदाशये   साधुजातसत्     सरसिजोदरश्रीमुषा   दृशा ।
सुरतनाथ तेऽशुल्कदासिका वरद निघ्नतो नेह किं वधः ॥2॥

(हे हमारे प्रेम पूर्ण ह्रदय के स्वामी ! हम तुम्हारी बिना मोल की दासी हैं। तुम शरदऋतु के जलाशय में सुन्दर से सुन्दर कमल कलियो के सौन्दर्य को चुरानेवाले नेत्रों से हमें घायल कर चुके हो । हे हमारे मनोरथ पूर्ण करने वाले प्राणेश्वर ! क्या नेत्रों से मारना वध नहीं है? अस्त्रों से हत्या करना ही वध है।।)

विषजलाप्ययाद् व्यालराक्षसाद् वर्षमारुताद् वैद्युतानलात् ।
वृषमयात्मजाद्  विश्वतोभयादृषभ  ते  वयं  रक्षिता  मुहुः ॥3॥

(हे पुरुष शिरोमणि ! यमुनाजी के विषैले जल से होने वाली मृत्यु, अजगर के रूप में खाने वाले अघासुर, इन्द्र की वर्षा, आंधी, बिजली, दावानल, वृषभासुर और व्योमासुर आदि से एवम भिन्न भिन्न अवसरों पर सब प्रकार के भयों से तुमने बार- बार हम लोगों की रक्षा की है।)

न  खलु  गोपिकानन्दनो  भवानखिलदेहिनामन्तरात्मदृक् ।
विखनसार्थितो विश्वगुप्तये सख उदेयिवान्सात्वतां कुले ॥4॥

(तुम केवल यशोदा के ही पुत्र नहीं हो; समस्त शरीरधारियों के ह्रदय में रहने वाले उनके साक्षी हो,अन्तर्यामी हो । सखे ! ब्रह्मा जी की प्रार्थना से विश्व की रक्षा करने के लिए तुम यदुवंश में अवतीर्ण हुए हो।।)

विरचिताभयं   वृष्णिधुर्य   ते   चरणमीयुषां   संसृतेर्भयात् ।
करसरोरुहं कान्त कामदं शिरसि धेहि नः श्रीकरग्रहम् ॥5॥

(हे यदुवंश शिरोमणि ! तुम अपने प्रेमियों की अभिलाषा पूर्ण करने वालों में सबसे आगे हो । जो लोग जन्म-मृत्यु रूप संसार के चक्कर से डरकर तुम्हारे चरणों की शरण ग्रहण करते हैं, उन्हें तुम्हारे कर कमल अपनी छत्र छाया में लेकर अभय कर देते हैं । हे हमारे प्रियतम ! सबकी लालसा-अभिलाषाओ को पूर्ण करने वाला वही करकमल, जिससे तुमने लक्ष्मीजी का हाथ पकड़ा है, हमारे सिर पर रख दो।।)

व्रजजनार्तिहन्  वीर  योषितां    निजजनस्मयध्वंसनस्मित ।
भज सखे भवत्किंकरीः स्म नो जलरुहाननं चारु दर्शय ॥6॥

(व्रजवासियों के दुःख दूर करने वाले हे वीर शिरोमणि श्यामसुंदर ! तुम्हारी मंद मंद मुस्कान की एक उज्ज्वल रेखा ही तुम्हारे प्रेमी जनों के सारे मान-मद को चूर-चूर कर देने के लिए पर्याप्त है । हे हमारे प्यारे सखा ! हमसे रूठो मत, प्रेम करो । हम तो तुम्हारी दासी हैं, तुम्हारे चरणों पर न्योछावर हैं । हम अबलाओं को अपना वह परमसुन्दर सांवला मुखकमल दिखलाओ।।)

प्रणतदेहिनां     पापकर्शनं      तृणचरानुगं     श्रीनिकेतनम् ।
फणिफणार्पितं ते पदाम्बुजं कृणु कुचेषु नः कृन्धि हृच्छयम् ॥7॥

(तुम्हारे चरणकमल शरणागत प्राणियों के सारे पापों को नष्ट कर देते हैं। वे समस्त सौन्दर्य, माधुर्यकी खान है और स्वयं लक्ष्मी जी उनकी सेवा करती रहती हैं । तुम उन्हीं चरणों से हमारे बछड़ों के पीछे-पीछे चलते हो और हमारे लिए उन्हें सांप के फणों तक पर रखने में भी तुमने संकोच नहीं किया । हमारा ह्रदय तुम्हारी विरह व्यथा की आग से जल रहा है तुम्हारी मिलन की आकांक्षा हमें सता रही है । तुम अपने वे ही चरण हमारे वक्ष स्थल पर रखकर हमारे ह्रदय की ज्वाला शांत कर दो।।)

मधुरया   गिरा   वल्गुवाक्यया   बुधमनोज्ञया   पुष्करेक्षण ।
विधिकरीरिमा वीर मुह्यतीरधरसीधुनाऽऽप्याययस्व नः ॥8॥

(हे कमल नयन ! तुम्हारी वाणी कितनी मधुर है । उसका एक-एक पद, एक-एक शब्द, एक-एक अक्षर मधुर से भी मधुर है । बड़े बड़े विद्वान उसमे रम जाते हैं । उसपर अपना सर्वस्व न्योछावर कर देते हैं । तुम्हारी उसी वाणी का रसास्वादन करके तुम्हारी आज्ञाकारिणी दासी गोपियाँ मोहित हो रही हैं । हे दानवीर ! अब तुम अपना दिव्य अमृत से भी मधुर अधर-रस पिलाकर हमें जीवन-दान दो, छका दो।।)

तव कथामृतं  तप्तजीवनं  कविभिरीडितं  कल्मषापहम् ।
श्रवणमङ्गलं श्रीमदाततं भुवि गृणन्ति ते भूरिदा जनाः ॥9॥

(हे प्रभो ! तुम्हारी लीला कथा भी अमृत स्वरूप है । विरह से सताए हुये लोगों के लिए तो वह जीवन सर्वस्व ही है। बड़े बड़े ज्ञानी महात्माओं - भक्तकवियों ने उसका गान किया है, वह सारे पाप - ताप तो मिटाती ही है, साथ ही श्रवण मात्र से परम मंगल - परम कल्याण का दान भी करती है । वह परम सुन्दर, परम मधुर और बहुत विस्तृत भी है । जो तुम्हारी उस लीलाकथा का गान करते हैं, वास्तव में भू-लोक में वे ही सबसे बड़े दाता हैं।।)

प्रहसितं   प्रिय   प्रेमवीक्षणं   विहरणं   च   ते   ध्यानमङ्गलम् ।
रहसि संविदो या हृदिस्पृशः कुहक नो मनः क्षोभयन्ति हि ॥10॥

(प्यारे ! एक दिन वह था, जब तुम्हारे प्रेम भरी हँसी और चितवन तथा तुम्हारी तरह-तरह की क्रीडाओं का ध्यान करके हम आनंद में मग्न हो जाया करती थी । उनका ध्यान भी परम मंगलदायक है, उसके बाद तुम मिले । तुमने एकांत में ह्रदय-स्पर्शी ठिठोलियाँ कीं, प्रेम की बातें कहीं । हे कपटी मित्र ! अब वे सब बातें याद आकर हमारे मन को क्षुब्ध कर देती हैं।।)

चलसि  यद्  व्रजाच्चारयन्  पशून्    नलिनसुन्दरं  नाथ  ते  पदम् ।
शिलतृणाङ्कुरैः सीदतीति नः कलिलतां मनः कान्त गच्छति ॥11॥

(हे हमारे प्यारे स्वामी ! तुम्हारे चरण, कमल से भी सुकोमल और सुन्दर हैं । जब तुम गौओं को चराने के लिये व्रज से निकलते हो तब यह सोचकर कि तुम्हारे वे युगल चरण कंकड़, तिनके, कुश एंव कांटे चुभ जाने से कष्ट पाते होंगे, हमारा मन बेचैन होजाता है । हमें बड़ा दुःख होता है।।)

दिनपरिक्षये     नीलकुन्तलैर्वनरुहाननं    बिभ्रदावृतम् ।
घनरजस्वलं दर्शयन् न्मुहुर्मनसि नः स्मरं वीर यच्छसि ॥12॥

(दिन ढलने पर जब तुम वन से घर लौटते हो तो हम देखतीं हैं कि तुम्हारे मुख कमल पर नीली नीली अलकें लटक रही हैं और गौओं के खुर से उड़ उड़कर घनी धुल पड़ी हुई है । तुम अपना वह मनोहारी सौन्दर्य हमें दिखा दिखाकर हमारे ह्रदय में मिलन की आकांक्षा-प्रेम उत्पन्न करते हो।।)

प्रणतकामदं   पद्मजार्चितं     धरणिमण्डनं   ध्येयमापदि ।
चरणपङ्कजं शन्तमं च ते रमण नः स्तनेष्वर्पयाधिहन् ॥13॥

(हे प्रियतम ! एकमात्र तुम्हीं हमारे सारे दुखों को मिटाने वाले हो । तुम्हारे चरण कमल शरणागत भक्तों की समस्त अभिलाषाओं को पूर्ण करने वाले है । स्वयं लक्ष्मी जी उनकी सेवा करती हैं । और पृथ्वी के तो वे भूषण ही हैं । आपत्ति के समय एकमात्र उन्हीं का चिंतन करना उचित है जिससे सारी आपत्तियाँ कट जाती हैं । हे कुंजबिहारी ! तुम अपने उन परम कल्याण स्वरूप चरण हमारे वक्षस्थल पर रखकर हमारे ह्रदय की व्यथा शांत कर दो।।)

सुरतवर्धनं  शोकनाशनं  स्वरितवेणुना  सुष्ठु  चुम्बितम् ।
इतररागविस्मारणं नृणां वितर वीर नस्तेऽधरामृतम् ॥14॥

(हे वीर शिरोमणि ! तुम्हारा अधरामृत मिलन के सुख को-आकांक्षा को बढ़ाने वाला है । वह विरहजन्य समस्त शोक संताप को नष्ट कर देता है । यह गाने वाली बांसुरी भलीभांति उसे चूमती रहती है । जिन्होंने उसे एक बार पी लिया, उन लोगों को फिर अन्य सारी आसक्तियों का स्मरण भी नहीं होता । अपना वही अधरामृत हमें बाँटो और पिलाओ।।)

अटति   यद्   भवानह्नि   काननं    त्रुटिर्युगायते   त्वामपश्यताम् ।
कुटिलकुन्तलं श्रीमुखं च ते जड उदीक्षतां पक्ष्मकृद् दृशाम् ॥15॥

(हे प्यारे ! दिन के समय जब तुम वन में विहार करने के लिए चले जाते हो, तब तुम्हें देखे बिना हमारे लिए एक-एक क्षण युग के समान हो जाता है और जब तुम संध्या के समय लौटते हो तथा घुंघराली अलकों से युक्त तुम्हारा परम सुन्दर मुखारविंद हम देखती हैं, उस समय पलकों का गिरना भी हमारे लिए भार हो जाता है और ऐसा जान पड़ता है कि इन पलकों को बनाने वाला विधाता मूर्ख है।।)

पतिसुतान्वयभ्रातृबान्धवानतिविलङ्घ्य      तेऽन्त्यच्युतागताः ।
गतिविदस्तवोद्गीतमोहिताः कितव योषितः कस्त्यजेन्निशि ॥16॥

(प्यारे श्याम सुन्दर ! हम अपने पति-पुत्र, भाई -बन्धु, और कुल परिवार का त्यागकर, उनकी इच्छा और आज्ञाओं का उल्लंघन करके तुम्हारे पास आयी हैं । हम तुम्हारी हर चाल को जानती हैं, हर संकेत समझती हैं और तुम्हारे मधुर गान की गति समझकर, उसी से मोहित होकर यहाँ आयी हैं । हे कपटी ! इस प्रकार रात्रि के समय आयी हुई युवतियों को तुम्हारे सिवा और कौन छोड़ सकता है।।)

रहसि  संविदं  हृच्छयोदयं     प्रहसिताननं  प्रेमवीक्षणम् ।
बृहदुरः श्रियो वीक्ष्य धाम ते मुहुरतिस्पृहा मुह्यते मनः ॥17॥

(प्यारे ! एकांत में तुम मिलन की आकांक्षा और प्रेम-भाव जगाने वाली बातें करते थे । ठिठोली करके हमें छेड़ते थे । तुम प्रेम भरी चितवन से हमारी ओर देखकर मुस्कुरा देते थे और हम तुम्हारा वह विशाल वक्ष:स्थल देखती थीं जिस पर लक्ष्मी जी नित्य-निरंतर निवास करती हैं । तबसे अब तक निरंतर हमारी लालसा बढ़ती ही जा रही है और हमारा मन अधिकाधिक मुग्ध होता जा रहा है।।)

व्रजवनौकसां   व्यक्तिरङ्ग   ते    वृजिनहन्त्र्यलं   विश्वमङ्गलम् ।
त्यज मनाक् च नस्त्वत्स्पृहात्मनां स्वजनहृद्रुजां यन्निषूदनम् ॥18॥

(हे प्यारे ! तुम्हारी यह अभिव्यक्ति व्रज-वनवासियों के सम्पूर्ण दुःख-ताप को नष्ट करने वाली और विश्व का पूर्ण मंगल करने के लिए है । हमारा हृदय तुम्हारे प्रति लालसा से भर रहा है । कुछ थोड़ी सी ऐसी औषधि दो, जो तुम्हारे निजजनों के हृदय रोग को सर्वथा निर्मूल कर दे।।)

यत्ते   सुजातचरणाम्बुरुहं   स्तनेषु  भीताः  शनैः   प्रिय   दधीमहि   कर्कशेषु ।
तेनाटवीमटसि तद् द्व्यथते न किंस्वित् कूर्पादिभिर्भ्रमति धीर्भवदायुषां नः ॥19॥

(हे श्रीकृष्ण ! तुम्हारे चरण, कमल से भी सुकुमार हैं । उन्हें हम अपने कठोर स्तनों पर भी डरते डरते बहुत धीरे से रखती हैं कि कहीं उन्हें चोट न लग जाय । उन्हीं चरणों से तुम रात्रि के समय घोर जंगल में छिपे-छिपे भटक रहे हो । क्या कंकड़, पत्थर, आदि की चोट लगने से उनमे पीड़ा नहीं होती ? हमें तो इसकी कल्पना मात्र से ही चक्कर आ रहा है । हम अचेत होती जा रही हैं । हे प्यारे श्यामसुन्दर ! हे प्राणनाथ ! हमारा जीवन तुम्हारे लिए है, हम तुम्हारे लिए जी रही हैं, हम तुम्हारी हैं।।) 


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44. मिथिला के लोकप्रिय कवि विद्यापति रचित - गोसाओनिक गीत (Gosaonik Geet) अर्थ सहित

43. पौराणिक कथाओं में शल्य - चिकित्सा - Surgery in Indian mythology

42. सुन्दरकाण्ड के पाठ या श्रवण से हनुमानजी प्रसन्न हो कर सब बाधा और कष्ट दूर करते हैं

41. माँ काली की स्तुति - Maa Kali's "Stuti"

40. महाशिवरात्रि - Mahashivaratri


39. तुलसीदास - अनोखे रस - लालित्य के कवि

38. छठ महापर्व - The great festival of Chhath

37. भगवती प्रार्थना - बिहारी गीत (पाँच वरदानों के लिए)

36. सावन में पार्थिव शिवलिंग का अभिषेक

35. श्रीविद्या - सर्वोपरि मन्त्र साधना

34. श्री दुर्गा के बत्तीस नाम - भीषण विपत्ति और संकटों से बचानेवाला

33. मैथिलि भगवती गीत - "माँ सिंह पर एक कमल राजित"

32. माँ दुर्गा की देवीसूक्त से स्तुति करें -Praise Goddess Durga with Devi-Suktam!


31. शनि की पूजा -क्या करें क्या न करें। The worship of God Shani, What to do & what not!

30. संस्कृत सूक्तों के प्रारम्भ में शीर्षक का क्या अर्थ है ?


25. भगवती स्तुति। .... देवी दुर्गा उमा, विश्वजननी रमा......

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24. कृष्ण -जन्माष्टमी -- परमात्मा के पूर्ण अवतार का समय। 

23. क्या सतयुग में पहाड़ों के पंख हुआ करते थे?

22. सावन में शिवपूजा। ..... Shiva Worship in Savan  

21. सद्गुरु की खोज ---- Search of a Satguru! True Guru!

20. देवताओं के वैद्य अश्विनीकुमारों की अद्भुत कथा  ....
(The great doctors of Gods-Ashwinikumars !). भाग - 4 (चिकित्सा के द्वारा चिकित्सा के द्वारा अंधों को दृष्टि प्रदान करना)
19. God does not like Ego i.e. अहंकार ! अभिमान ! घमंड !

18. देवताओं के वैद्य अश्विनीकुमारों की अदभुत कथा (The great doctors of Gods-Ashwinikumars !)-भाग -3 (चिकित्सा के द्वारा युवावस्था प्रदान करना)

17. देवताओं के वैद्य अश्विनीकुमारों की अदभुत कथा (The great doctors of Gods-Ashwinikumars !)-भाग -2 (चिकित्सा के द्वारा युवावस्था प्रदान करना)

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16. बाबा बासुकीनाथ का नचारी भजन -Baba Basukinath's "Nachari-Bhajan" !

15. शिवषडक्षर स्तोत्र (Shiva Shadakshar Stotra-The Prayer of Shiva related to Six letters)

14. देवताओं के वैद्य अश्विनीकुमारों की अदभुत कथा (The great doctors of Gods-Ashwinikumars !)-भाग -१ (अश्विनीकुमार और नकुल- सहदेव का जन्म)

13. पवित्र शमी एवं मन्दार को वरदान की कथा (Shami patra and Mandar phool)

12. Daily Shiva Prayer - दैनिक शिव आराधना

11. Shiva_Manas_Puja (शिव मानस पूजा)

10. Morning Dhyana of Shiva (शिव प्रातः स्मरण) !

09. जप कैसे करें ?

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08. पूजा में अष्टक का महत्त्व ....Importance of eight-shloka- Prayer (Ashtak) !

07. संक्षिप्त लक्ष्मी पूजन विधि...! How to Worship Lakshmi by yourself ..!!

06. Common misbeliefs about Hindu Gods ... !!

05. Why should we worship Goddess "Durga" ... माँ दुर्गा की आराधना क्यों जरुरी है ?

04. Importance of 'Bilva Patra' in "Shiv-Pujan" & "Bilvastak"... शिव पूजन में बिल्व पत्र का महत्व !!

03. Bhagwat path in short ..!! संक्षिप्त भागवत पाठ !!

02. What Lord Shiva likes .. ? भगवान शिव को क्या क्या प्रिय है ?

01. The Sun and the Earth are Gods we can see .....

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Saturday, June 18, 2022

गोपी -गीत - (Gopi Geet), रासपंचाध्यायी - भूमिका

शरद पूर्णिमा की रात में गोपीकाओं संग श्रीकृष्ण
(चित्र - गूगल से साभार)

     गोपी -गीत श्रीमद्भागवतमहापुराण के दसवें स्कन्द के इकतीसवें अध्याय में वर्णित एक गीत है जो गोपियाँ श्रीकृष्ण के उनकी आँखों से ओझल हो जाने के बाद विह्वल हो कर गातीं हैं। यह गीत प्रेम और भक्ति में आकंठ डूबी गोपियों के मनोभावों का बहुत ही गहराई से एहसास कराती है। कथावाचकों और धर्माचार्यों द्वारा इस गीत की महिमा अपरम्पार कही गयी है। 
   यद्यपि श्रीमद्भागवतमहापुराण के एक या आधे श्लोक को पढ़ने से भी अपार पुण्य प्राप्त होता है तथापि गोपी -गीत की तो बात ही कुछ और है। यह सिर्फ अपार पुण्य प्राप्त करने का ही साधन नहीं है बल्कि परमात्मा श्रीकृष्ण को अपने पास अनुभव करने का अवसर भी देता है। गोपियों ने इस गीत में विरह और स्मृतियों का रुदन, प्रेम के अश्रु, श्रीकृष्ण-दर्शन की उत्कंठा और मिलन की उत्कट प्यास को उड़ेल दिया है। भक्तजन जब गोपी-गीत गाते हैं तो गोपियों के इन मनोभावों को स्वयं महसूस करते हैं। 
      इससे पहले कि गोपी-गीत यहाँ लिखूँ, इसके प्रसङ्ग की चर्चा करना उचित होगा। दसवें स्कन्द के उन्तीसवें अध्याय से तैंतीसवें अध्याय तक के पाँच अध्याय "रासपंचाध्यायी" कहे जाते हैं, ये भागवत महापुराण के पाँच प्राण हैं। इसपर अनेक धार्मिक विद्वानों और धर्माचार्यों द्वारा टीका और व्याख्या लिखे गए हैं। यह इस पुराण का हृदय है। श्रीमद्भागवतमहापुराण में रासपंचाध्यायी का अनेक धर्माचार्यों द्वारा सर्वाधिक महत्व बताया गया है। इसे पढ़ते समय भक्तजन इतना जरूर ध्यान रखें कि इन पाँच अध्यायों में जो भगवान ने लीला की है उसमें भौतिक जीवन की काम-वासनाओं, मर्यादा का उल्लंघन या फूहड़पन का कोई स्थान नहीं है यद्यपि ऐसा भ्रम हो सकता है। जब राजा परीक्षित ने भी ऐसी ही शङ्का की तो उसका निवारण बहुत ही अच्छी तरह से शुकदेव जी ने किया है जो तैंतीसवें अध्याय में है। यह भी ध्यान में रहे कि भगवान् की आयु उस समय मात्र दस वर्ष की थी। 
     शरद पूर्णिमा की रात थी और यह विशेष रात ऐसी थी जिसमें सभी रात्रियों की अमृत -आत्मा घनीभूत हो कर एक अद्भुत प्रभाव की रचना कर रहीं थीं। चंद्रदेव नूतन केसर के समान लाल हो रहे थे मानो लक्ष्मीजी का मुखमण्डल हो। उनकी किरणों से सारा वन अनुराग के रंग में रंगा था, कोने -कोने में अमृत का समुद्र उड़ेल दिया था। ऐसे में परमात्मा श्रीकृष्ण ने गोपियों को वस्त्र-हरण के समय दिये गए एक वचन को पूरा करने का निर्णय किया और अपने दिव्य उज्जवल रस के उद्दीपन हेतु अपनी प्यारी वंशी पर व्रजसुंदरियों के मन को हरण करने वाली कामबीज "क्लीं" की अस्पष्ट और मधुर तान छेड़ दी। मुरलीधर का वह वंशीवादन भगवान के  प्रेम को, उनके मिलन की लालसा को उकसाने और बढ़ाने वाला था। गोपियों के मन को श्यामसुंदर ने वैसे ही वश में कर रखा था पर जब उन्होंने यह मनमोहक धुन सुनी तो उन्होंने अपना सुध-बुध खो दिया। जो भी जिस काम को कर रहीं थीं उसे उसी हाल में छोड़ कर निकल पड़ीं। घरवालों ने टोका, रात्रि के समय का हवाला दिया पर जब परमात्मा से मिलन का अवसर हो तो भला जीव रुक सकता है ?  
     जब गोपियाँ वन में श्रीकृष्ण के पास पहुंचीं तो भगवान् ने उनका स्वागत करते हुए इतनी रात्रि में आने का कारण पूछा, व्रज का कुशल मङ्गल पूछा। कहा कि आज की रात्रि में यह वन अत्यंत सुन्दर लग रहा है, अगर इसे देख लिया तो अब वापस जाओ। तुम्हारे घर में बच्चे रो रहे हैं, गाय के बछड़े रंभा रहे हैं। जाओ बच्चों को दूध पिलाओ, गौवें दूहो। तुमलोग कुलीन स्त्रियाँ हो अतः शीघ्र घर लौटो और अपने पतियों और घर के वृद्धजनों की सेवा करो। यदि तुमलोग मेरे प्रेम के परवश हो कर यहाँ आयी हो तो इसमें कोई अनुचित बात नहीं क्योंकि जगत के पशु-पक्षी तक मुझसे प्रेम करते हैं, मुझे देख कर प्रसन्न होते हैं। फिर भगवान् उन्हें मर्यादा और स्त्री-धर्म की दुहाई देते हैं कि स्त्रियों का परम धर्म है कि वे पति और उसके भाई बंधुओं की निष्कपट भाव से सेवा करें और संतान का पालन पोषण करें। परपुरुष की सेवा उनके लिए निंदनीय है - यह इस लोक में अपयश का कारण है और इससे परलोक बिगड़ता है। यह कुकर्म तो अत्यंत तुच्छ और क्षणिक है। इसमें वर्तमान में भी प्रत्यक्ष ही कष्ट -ही -कष्ट है। मोक्ष की तो बात ही क्या, यह साक्षात परम भय और नरक का हेतु है। इतना समझाने पर भी जब वे न लौटीं तो तो भगवान् ने कहा, गोपियों ! मेरी लीला और गुणों के श्रवण से, रूप के दर्शन से, उनसब के कीर्तन और ध्यान से मेरे प्रति जैसे अनन्य प्रेम की प्राप्ति होती है वैसी प्रेम की प्राप्ति पास रहने से नहीं होती। इसलिए तुमलोग अभी अपने अपने घर लौट जाओ। 
    गोपियों को अपने प्रियतम श्रीकृष्ण का यह अप्रिय भाषण सुन कर बड़ी दुःख और ग्लानि हुई। निराशा और चिन्ता में उनके आँखों से निरंतर अश्रुधारा चल पड़ी। खड़ी-खड़ी पाँवों के अंगूठे से जमीन कुरेदने लगीं। उनके लाल होंठ कांपने लगे और सांस फूलने लगे। रोने के कारण आँखें लाल-लाल हो गयीं और गले रुँध गए। फिर किसी तरह धीरज धारण कर और स्वयं पर काबू कर श्रीकृष्ण से कहने लगीं - तुम तो घट -घट वासी हो, सबके मन की बात जानते हो। हम सबको छोड़कर सिर्फ तुम्हारे चरणों में ही प्रेम करती हैं। जैसे भगवान् नारायण कृपा करके अपने मुमुक्षु भक्तों से प्रेम करते हैं वैसे ही तुम हमें स्वीकार कर लो। हमारा त्याग मत करो। तुम सब धर्मों का रहस्य जानते हो। "अपने पति, पुत्र और भाई-बंधुओं की सेवा करना ही स्त्रियों का परम धर्म है"-तुम्हारा यह कहना अक्षरसः सत्य है। किन्तु तुम्हारे इस उपदेश के अनुसार हमें तुम्हारी ही सेवा करनी चाहिए क्योंकि इन उपदेशों के परम लक्ष्य तुम्हीं हो। साक्षात भगवान् हो। समस्त जीवधारियों के सुहृद, आत्मा और परम प्रियतम हो। तुम नित्य, प्रिय और अपने ही आत्मा हो जिस कारण आत्मज्ञान में निपुण महापुरुष तुमसे ही प्रेम करते हैं। फिर मरणशील और दुःखद पति-पुत्रादि से क्या क्या प्रयोजन है ? हे परमेश्वर ! इसलिए प्रसन्न होओ, हमपर कृपा करो और चिरकाल से तुम्हारे प्रति पाली गयी आशा -अभिलाषा की लता का छेदन मत करो। हमलोग तो अबतक घर के काम-काज में ही लगी रहतीं थीं। पर तुमने हमारे चित्त का हरण कर लिया। अब हमारी मति-गति निराली हो गयी है। हम तुम्हारे चरण कमलों को छोड़ कर कहीं नहीं जा रहीं। हे सखा ! तुम्हारी मंद-मंद मुस्कान, प्रेमभरी चितवन और मनोहर संगीत ने हमारे ह्रदय में तुम्हारे प्रेम और मिलन की ज्वाला धधका दी है। उसे तुम अपने अधरों की रसधारा से बुझा दो, नहीं तो प्रियतम ! तुम्हारी विरह -व्यथा की आग में हम अपने शरीर को जला देंगी और ध्यान के द्वारा तुम्हारे चरण कमलों को प्राप्त करेंगी।  
    इस प्रकार अनेक उपमा, उदहारण और तर्क के साथ अपने हृदय के भावों को रखते हुए गोपियाँ वापस घर जाने को तैयार न हुईं। भगवान श्रीकृष्ण सनकादि योगियों और शिवादि योगेश्वरों के भी ईश्वर हैं। गोपियों की व्यथा और व्याकुलता की वाणी सुनकर उनका हृदय दया से भर गया और उन्होंने हँसकर उनके साथ क्रीड़ा प्रारम्भ की। उन्होंने अपनी भाव-भंगिमाएँ और चेष्टाएँ गोपियों के अनुकूल कर दीं। फिर भी वे अपने स्वरूप में ज्यों-के-त्यों एकरस स्थित थे, अच्युत थे। जब वे खुल कर हँसते थे तो उनके श्वेत दाँत कुंद फूल की कली के समान जान पड़ते थे। उनकी प्रेम भरी चितवन से और दर्शन के आनंद से गोपियों का मुखकमल प्रफुल्लित हो गया। वे उन्हें घेर कर खड़ी हो गयीं। उस समय श्रीकृष्ण की शोभा ऐसी हुई जैसे तारिकाओं से घिरे चाँद की होती है। वैजयंतीमाला पहने श्रीकृष्ण वृन्दावन को शोभायमान करते हुए विचरण करने लगे। कभी गोपियाँ अपने प्रियतम श्रीकृष्ण के गुण और लीलाओं का गान करतीं, तो कभी श्रीकृष्ण गोपियों के प्रेम और सौंदर्य के गीत गाने लगते। फिर भगवान् ने गोपियों के साथ यमुना जी के पावन पुलिन पर, जो कर्पूर के समान चमकीली बालू से जगमगा रहा था, पदार्पण किया। वह यमुनाजी की तरंगों से शीतल और कुमुदिनी की सहज सुगंध से सुवासित वायु के द्वारा सेवित हो रहा था। उस आनंदप्रद पुलिन पर भगवान् ने गोपियों के साथ क्रीड़ा की। हाथ फैलाना, आलिङ्गन करना, हाथ दबाना, चोटी, बाँह आदि का स्पर्श करना, विनोद करना, विनोदपूर्वक चितवन से देखना और मुसकाना -- इस प्रकार की क्रियाओं द्वारा गोपियों की कामरस और परमोज्ज्वल प्रेमभाव को उत्तेजित करते हुए भगवान् श्रीकृष्ण उन्हें आनंदित करने लगे। उदारशिरोमणि सर्वव्यापक भगवान् श्रीकृष्ण ने जब इस प्रकार गोपियों का सम्मान किया तो गोपियों के मन में ऐसा भाव आया कि संसार की समस्त स्त्रियों में हम ही श्रेष्ठ हैं, हमारे समान और कोई नहीं। वे थोड़ी मानवती हो गयीं। पर भगवान् तो ऐसे हैं कि उन्हें अहंकार का लेश मात्र भी पसंद नहीं। वह भी अपने प्रिय और भक्तों का तो बिलकुल भी नहीं क्योंकि यह पतन का कारण होता है। अतः श्रीकृष्ण उनका गर्व शांत करने के लिए और उनका अभिमान दूर कर प्रसन्न करने के लिए वहीं उनके बीच से ही अंतर्ध्यान हो गए। 
                               
            श्रीकृष्ण के सहसा अन्तर्ध्यान हो जाने से गोपियाँ व्याकुल हो गयीं। भगवान् की गजराज सी चाल, प्रेमभरी मुस्कान,मनोरम प्रेमालाप, विलासभरी चितवन, विभिन्न प्रकार की लीलाओं तथा श्रृंगार रस की भाव भंगियों ने उनके चित्त को चुरा लिया था। कृष्ण-प्रेम में मतवाली गोपियाँ श्रीकृष्णमय हो गयीं और उनकी ही विभिन्न चेष्टाओं का अनुकरण करने लगीं। श्रीकृष्ण की चाल-ढाल, हास-विलास और चितवन-बोलन आदि में उनके समान ही बन गयीं उनके शरीर में भी वही मति-गति, वही भाव-भंगी उतर आयी। गोपियाँ स्वयं को भूलकर श्रीकृष्ण स्वरुप हो गयीं। मैं श्रीकृष्ण ही हूँ - इस प्रकार कहते हुए वे आपस में मिलकर ऊँचे स्वर में भगवान् का गुणगान करने लगीं और मतवाली होकर एक वन से दूसरे वन में, एक झाड़ी से दूसरी झाड़ियों में जाकर श्रीकृष्ण को ढूँढने लगीं। पेड़-पौधों, लता-पता, तुलसी-तृण, पृथ्वी-वनजीवों आदि से भगवान् का सुन्दर वर्णन करते हुए उनका पता पूछने लगीं। 
     भगवान् श्रीकृष्ण तो अंतर्धान हुए थे कहीं गए नहीं थे। वे तो सर्वव्यापी हैं और सर्वद्रष्टा हैं। सब देख रहे थे किन्तु प्रकट नहीं हो रहे थे। विरहाकुल गोपियाँ उन्हें ढूँढ़ते हुए कातर हो रही थीं। अब और भी अधिक आवेश हो जाने के कारण वे भगवान् की लीलाओं का अनुकरण करने लगीं। कोई एक पूतना बन गयी तो दूसरी श्रीकृष्ण बनकर उसका स्तन पीने लगी। कोई छकड़ा बन गयी तो दूसरी ने उसे बालकृष्ण बनकर रोते हुए पैरों से उलट दिया। कभी तृणावर्त दैत्य वाली लीला करतीं तो कभी बकासुर और वत्सासुर वाली। कभी कालिया मर्दन वाली लीला करतीं तो कभी गोवर्धन पर्वत वाली। इस प्रकार श्रीकृष्ण की बाल-लीलाओँ का अनुकरण करते-करते वे फिर से वृन्दावन के वृक्षों-लताओं से श्रीकृष्ण का पता पूछने लगीं। इसी क्रम में उन्होंने एक स्थान पर श्रीकृष्ण के चरण-चिह्न देखे। उन्होंने कहा, इन चरण-चिह्नों में ध्वजा, कमल, वज्र, अंकुश और जौ के चिह्न भी हैं, अतः निश्चय ही ये श्रीकृष्ण के हैं। उनका अनुसरण कर जब वे आगे बढ़ीं तो उनके साथ किसी व्रजयुवती के भी चरण-चिह्न दीख पड़े। आगे मात्र श्रीकृष्ण के गहरे चरण-चिह्न थे, उस व्रजयुवती की नहीं। गोपियों ने विचार किया कि भगवान ने प्रेयषी को गोद में उठा लिया था जिससे उसके चरणों में तृण की नोंक न चुभे। आगे के चरण-चिह्न ऐसे थे मानो श्रीकृष्ण ने उचक-उचक कर व्रजयुवती के लिए वृक्ष से फूल तोड़े हों। गोपियाँ उस बड़भागी व्रजयुवती के भाग्य की सराहना करने लगीं और अपने वर्तमान स्थिति पर उन्हें क्षोभ होने लगा। (श्रीकृष्ण स्वयं आत्माराम हैं, वे अपने आप में ही परिपूर्ण हैं तो उनमें काम की कल्पना कैसे की जा सकती है। उन्होंने एक कामी की तरह उस गोपी के साथ क्रीड़ा का खेल रचा था। ) इधर जिस गोपी के साथ श्रीकृष्ण एकांत में क्रीड़ा कर रहे थे उसे स्वयं पर मान हो गया कि मैं ही सभी गोपियों में श्रेष्ठ हूँ, तभी तो सब को छोड़ कर भगवान् उसे ही चाहते हैं। वह भगवान् के प्रेम और सौभाग्य के मद से मतवाली हो गयी। उसने श्रीकृष्ण से कहा कि प्यारे अब मुझ से नहीं चला जा रहा, तुम जहाँ भी मुझे ले जाना चाहो अपने कंधे पर चढ़ा कर ले चलो। भगवान श्रीकृष्ण जिन्हें ब्रह्मा और शङ्कर भी इष्ट मानते हैं वे समझ गए कि इस गोपी में भी अभिमान आ गया है जिसे हटाना आवश्यक है। अतः प्रकट में उन्होंने कहा कि ठीक है प्यारी, तुम मेरे कंधे  चढ़ जाओ। फिर जैसे ही वह कंधे पर चढ़ने का उपक्रम करने लगी, भगवान् श्रीकृष्ण वहाँ से भी अंतर्ध्यान हो गए। यह देखते ही वह सौभाग्यवती गोपी रोने-पछताने लगी। अपनी भूल का अनुभव होते ही श्रीकृष्ण का नाम ले-लेकर विलाप करने लगी फिर अचेत होकर गिर पड़ी। तबतक अन्य गोपियाँ भी श्रीकृष्ण को ढूंढते-ढूंढते वहाँ पहुंचीं। अचेत गोपी को जब उन्होंने जगाया तो उसने श्रीकृष्ण से प्राप्त प्रेम और सम्मान को सुनाया और कहा कि मैंने कुटिलतवश उनका अपमान किया जिससे वे मुझे छोड़ कर अंतर्धान हो गए। 
    आश्चर्यचकित गोपियाँ श्रीकृष्ण के अंतर्धान होने का कारण जान चुकी थीं, पर वे उनके प्रेम और भक्ति में इतना डूब चुकीं थीं कि उन्हें अपने शरीर की भी सुधि न थी घर की कौन कहे। जहाँ तक चाँदनी थी वहाँ तक श्रीकृष्ण को पुकारते, विलाप करते और विह्वल हो कर उन्हें ढूँढा उसके आगे जंगल में घना अँधेरा था। उन्होंने सोचा कि अगर जंगल में जायेंगे तो श्रीकृष्ण छिपने के लिए और भी अंदर चले जायेंगे। वे सभी यमुनाजी के पावन पुलिन पर लौट आयीं। वे सभी कृष्णमय हो चुकी थीं। उनकी वाणी से मात्र कृष्ण चर्चा ही निकलती और उनकी लीलाओं का स्मरण -गान ही होता। शरीर से सिर्फ श्रीकृष्ण चेष्टाएँ ही होतीं। इसमें वे इतनी तन्मय हो गयीं थीं कि श्रीकृष्ण के अतिरिक्त उन्हें और कुछ याद ही न रहा। उन्हें बस यह प्रतीक्षा और इच्छा थी कि अतिशीघ्र श्रीकृष्ण आयें। श्रीकृष्ण-भाव में डूबी गोपियाँ यमुनाजी के पावन पुलिन पर -रमण-रेती में आ कर एकसाथ श्रीकृष्ण के गुणों का गान करने लगीं। यह गान/गीत परम भक्तिमय और कृष्ण भक्तों की व्याकुल भावनाओं को व्यक्त करने वाला चिर-नवीन "गोपीगीत" कहलाया। 
      अगले ब्लॉग पोस्ट में यथा श्रीमदभागवतपुराण में वर्णित संस्कृत में गोपीगीत लिखूँगा जिसका हिंदी में अर्थ भी होगा। भक्तजनों से अनुरोध कि जब वे गोपीगीत को गायें या पाठ करें तो अपने स्वयं और अपने परिचय को किनारे रख दें और अभिमान त्यागी हुई गोपियों की तरह अनुभव करते हुए कृष्णमय हो कर गायें। आप को एक अलग प्रकार की अनुभूति होगी। याद रखें कि गोपियों द्वारा इसी गीत को गाने के बाद श्रीकृष्ण प्रकट हुए थे।    

(नोट :-- यह पोस्ट गीता प्रेस द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण से प्रेरित है, अतः शब्द-समूहों और भाषा की समानता हो सकती है।)  

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(The great doctors of Gods-Ashwinikumars !). भाग - 4 (चिकित्सा के द्वारा चिकित्सा के द्वारा अंधों को दृष्टि प्रदान करना)
19. God does not like Ego i.e. अहंकार ! अभिमान ! घमंड !

18. देवताओं के वैद्य अश्विनीकुमारों की अदभुत कथा (The great doctors of Gods-Ashwinikumars !)-भाग -3 (चिकित्सा के द्वारा युवावस्था प्रदान करना)

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