Monday, December 21, 2020

सद्गुरु महर्षि आरुणि द्वारा व्याध का उद्धार - सत्यतप का तप; भाग - 2

सद्गुरु की कृपा

बंदऊँ गुरु  पद  पदुम  परागा। सुरुचि सुबास सरस अनुरागा॥
अमिअ मूरिमय चूरन चारू। समन सकल भव रुज परिवारू।|

(मैं गुरु महाराज के चरण कमलों की रज की वन्दना करता हूँ, जो सुरुचि (सुंदर स्वाद), सुगंध तथा अनुराग रूपी रस से पूर्ण है। वह अमर मूल (संजीवनी जड़ी) का सुंदर चूर्ण है, जो सम्पूर्ण भव रोगों के परिवार को नाश करने वाला है)
कृष्णं वन्दे जगद्गुरुं



           सद्गुरु महर्षि आरुणि की कृपा से एक व्याध परम तपस्वी बना और सत्यतप के नाम से विख्यात हुआ। यह कथा पिछले ब्लॉग पोस्ट में "सद्गुरु महर्षि आरुणि द्वारा व्याध का उद्धार -सत्यतप की कथा ;भाग -1" में वर्णित है। अब आगे देखते हैं कि किस प्रकार सत्यतप सत्य के मार्ग पर आगे बढ़ा और उन ऊँचाइयों तक पहुँचा जहाँ स्वयं भगवान भी उससे अत्यंत प्रभावित हुए। 
            गुरुकृपा से सत्यतप की उपाधि पाकर व्याध ऋषि बन चुका था जो कि बहुत सम्मान की बात थी। उसने सत्य पर ध्यान लगाते हुए कठिन तप किया जिससे उसे वेदों का ज्ञान हुआ। उसे अनेक मन्त्रों और होम करने की प्रक्रिया का ज्ञान हुआ। वह वन से लाये गए औषधियों और समिधा से हवन करता जिससे सम्बन्धित देवता प्रसन्न होकर प्रकट होते और उसे अनेक वरदान दे जाते। उसकी एकमात्र इच्छा सत्य को और भी अधिक आत्मसात करने की थी।  
      एक दिन उसे एक विशेष समिधा की आवश्यकता हुई जो जम्मी वृक्ष की टहनियाँ थीं। उसे खोजते हुए वह वन में गया। उसने देखा एक जम्मी वृक्ष एक अंजीर पेड़ के ऊपर उगा था। यही तो उसे चाहिये था। एक पेड़ पर दूसरा पेड़ उगना साधारण नहीं है और जंगल में इसे खोजना आसान नहीं। अगर मिल भी जाये तो इस पर चढ़ कर टहनियाँ तोड़ना कठिन है। ऐसे वृक्षों पर यक्ष और गन्धर्व भी निवास कर सकते हैं जो टहनियाँ तोड़ने नहीं देते। 
          सत्यतप को समिधा की जरुरत थी इसलिए वह पेड़ पर चढ़ गया और टहनियाँ काटने लगा। उस समय उस पेड़ पर एक किन्नर दंपत्ति का निवास था। वे सत्यतप को देखने लगे। टहनियाँ काटते समय सत्यतप का ध्यान उधर गया और कुल्हाड़ी का वार उसकी एक ऊँगली पर गया। ऊँगली कट कर अलग हो गयी। किन्तु आश्चर्य की बात कि घाव से रक्त की जगह भस्म निकला। उससे भी अधिक आश्चर्य की बात यह कि उसने कटी ऊँगली को घाव की जगह साट दिया और वह पूर्ववत हो गयी। यह अप्रत्याशित घटना देखकर किन्नर दंपत्ति आवाक रह गए। उसका पीछा कर उन्होंने सत्यतप के आश्रम को देखा और इस चमत्कारिक घटना को देवराज इंद्र को सुनाया। इंद्र और महाविष्णु ने सत्यतप की परीक्षा लेने की सोची।
              इंद्र ने एक भयानक जंगली सूअर का रूप धरा जिसके एक तीर लगी थी। यह सूअर तेजी से सत्यतप की बगल से दौड़ा और उसके आश्रम में घुसा। सत्यतप हर प्राणी में सत्य के दर्शन करता था अतः वह जरा भी नहीं घबराया। किन्तु तभी पीछे से सूअर से भी भयानक व्याध का रूप धरे महाविष्णु दौड़े आये। उसे देख सत्यतप को अपना अतीत याद आया कि शिकार में कितना यत्न करना होता है। व्याध सत्यतप के पास आया और पूछा, "मैंने एक जंगली सूअर को घायल किया है जो इधर ही आया है। क्या तुमने देखा कि वह किधर गया ?" इस प्रश्न ने सत्यतप को भारी दुविधा में डाल दिया। वह सोचने लगा, "मैं सत्यतप हूँ, सत्य ही मेरी तपस्या है। परन्तु मेरे सत्य से बेचारा सूअर मारा जायेगा। किन्तु एक हिंसा सत्य हो  सकती है? नहीं हिंसा सत्य नहीं हो सकती। ऐसी परिस्थिति में क्या किया जाय ? "  
             दुविधा में  फँसे सत्यतप को एक विचार आया और उसने व्याध को कहा, "बंधु ! मेरी आँखों ने सूअर को देखा है पर बोल नहीं सकतीं। मेरा मुँह बोल सकता है पर वह देख नहीं सकता। एक अंग देख सकता है पर दूसरा बोल सकता है। जो अंग देख नहीं सकता उस पर कैसे विश्वास किया जा सकता है ?" यह प्रश्न सुनकर व्याध निरुत्तर हो गया। पर कुछ ही क्षणों में वह जोर -जोर से ठहाके मार कर हँसने लगा। पेट जल्दी में फूलने पिचकने लगा। इस प्रक्रिया में उसके सर पर लगे पंख मुकुट में बदल गए और गले में लटकते माला के दाने कौस्तुभ मणि में बदल गए। उसके कपड़े दिव्य वस्त्रों में बदल गए और व्याध ने महाविष्णु का रूप प्रकट किया। उधर इंद्र भी सूअर से अपने दिव्य रूप में प्रकट हुए। सत्यतप ने उनको श्रद्धा से नमन किया। महा विष्णु ने सत्यतप के कंधे पर हाथ रखते हुए कहा,"मैं भगवान् महाविष्णु हूँ और ये देवराज इंद्र हैं जो सूअर के वेश में तुम्हारे आश्रम में गए। हमलोग सत्य के प्रति तुम्हारी दृढ़ता और निष्ठा की परीक्षा लेने आये थे। तुम में यह सब देख कर हमलोग अभिभूत हैं। वे किन्नर दंपत्ति तुम्हें नहीं समझ पाए थे।हम लोग भी तुम्हारी महानता की सीमा को समझ नहीं सकते, अतः कोई वरदान ही नहीं बचता जो तुम्हें हम दे सकें क्योंकि वरदान का निचोड़ ही सत्य है जो पहले से ही तुम्हारे पास है। इसी तरह सदा सत्य के लिए तप करते रहो और चिरंजीवी होओ।" यह कहकर दोनों देवता चले गए। सत्यतप बिना किसी प्रसन्नता के वहीं रहा। 
                  यह कथा सद्गुरु की कृपा और सत्य की शक्ति को दर्शाती है जो मनुष्य को महान ऊँचाइयों तक ले जाती है। यहाँ तक कि जो मनुष्य सत्य को आत्मसात कर लेता है उसे ब्रह्मा और विष्णु भी कुछ देने में सक्षम नहीं हैं।  
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Saturday, December 12, 2020

सद्गुरु महर्षि आरुणि द्वारा व्याध का उद्धार - सत्यतप की कथा ; भाग - 1

सद्गुरु की कृपा
बंदउँ  गुरुपद  कंज  कृपासिंधु  नररूप  हरि।
महामोह तम पुंज जासु बचन रबि कर निकर।

(मैं उन गुरु महाराज के चरण कमल की वंदना करता हूँ, जो कृपा के समुद्र और नर रूप में श्री हरि ही हैं और जिनके वचन महामोह रूपी घने अन्धकार का नाश करने के लिए  सूर्य किरणों के समूह हैं|)


सद्गुरु की कृपा


    इस ब्लॉग के पोस्ट "सद्गुरु की खोज" में इस बात की चर्चा की गयी थी ऐसे गुरु की खोज करनी चाहिए जिनमें शिष्य को भवसागर से पार कराने का सामर्थ्य हो। ऐसे ही गुरु को सद्गुरु कहा जाता है जो शिष्य के सुपात्र होने की पहचान कर सके। गुरु नारद मुनि ने लुटेरे की पात्रता समझी और उसका मार्गदर्शन कर महान कवि कोकिल वाल्मीकि बनाया। यह कथा बहुत प्रसिद्ध है क्योंकि वाल्मीकि ने रामायण जैसा काव्य और रामकथा लिखी। ऐसी ही एक और कथा पुराणों में है जिसमें महर्षि आरुणि ने एक व्याध को सन्मार्ग दिखाया और उस व्याध ने ऐसा तप किया कि उसका नाम ही सत्यतप पड़ गया। सत्यतप की प्रसिद्धि उसके गुरु महर्षि आरुणि से भी अधिक हो गयी और उसने इन्द्रादि देवताओं से भी अधिक श्रद्धा पायी। 

             एक बार महर्षि आरुणि वन में तप में लीन थे। कहा जाता है कि जब ऋषि वन में तप करते थे तो जंगली जानवर भी अपना हिंसक व्यवहार छोड़ कर मृदुल हो जाते थे क्योंकि ऋषियों का प्रत्येक जीव के प्रति जो दया, करुणा और प्रेम का भाव होता था उसका असर उनपर होता था। तप में लीन ऋषियों को कोई भी हिंसक जानवर तंग नहीं करता था। महर्षि आरुणि गहरी समाधि की अवस्था में लीन आनंद का अनुभव कर रहे थे। तभी उनके आसपास जोरों का शोरगुल होने लगा। एक व्याध जोर जोर से चिल्ला रहा था - "मैंने चोर को पकड़ लिया है। बताओ बहुरूपिये ! तुमने सोना कहाँ छिपा कर रखा है?" ऋषि गहरी समाधि से थोड़ा बहार आये और अधखुली आँखों से सामने एक डरावने व्याध को चिल्लाते देखा जिसके हाथ में तलवार भी था जिसे वह जोर जोर से भाँज रहा था। किन्तु समाधि में उन्हें इतना आनंद आ रहा था कि उसे अनदेखा कर ऋषि ने पुनः अपनी आँखें बंद कर लीं। 

                     इधर व्याध की हालत अलग थी। वह महर्षि आरुणि को इस हालात में भी इतना शांत देख कर विस्मित था। वह ऋषि को मार नहीं पा रहा था, साथ ही वह यह भी नहीं समझ पा रहा था कि चाह कर भी वह ऋषि पर कैसे वार नहीं कर पा रहा था। वह सोचने लगा, इस परिस्तिथि में भी ये ऋषि इतने प्रसन्न और आनंदित कैसे हैं ? क्या इन्हें मृत्यु का डर नहीं ? क्या इन्होंने मृत्यु पर विजय पा ली है?  मैं भी इनसे शिक्षा ले कर ऐसी ही तप की अवस्था प्राप्त करूँगा। यह निर्णय ले कर उस व्याध ने अपनी तलवार फेंक दी और महर्षि के चरणों में गिर पड़ा और बोला - "मुझे अपना शिष्य बना लीजिये।" महर्षि जो अभी तक समाधि में ही थे अब उनकी समाधि टूटी और आसपास का ज्ञान हुआ। उनके चेहरे की प्रसन्नता और शांति दूर हो गयी, होंठ आपस में जोर से सट गए और ऑंखें पूरी खुल गयीं। कुछ नहीं बोले और खीज कर उठे, फिर जंगल में एक ओर चल दिए। व्याध भी उनके पीछे पीछे चल दिया। रास्ते में बीच - बीच में वह अपना अनुरोध दुहराता रहा। पर ऋषि पर कोई असर न हुआ। वे मीलों चलते गए। बीच - बीच में उन्हें आराम भी करना पड़ा। अंततः वे एक सकता वृक्षों के वन में पहुँचे। इन वृक्षों में फल लगते हैं जिनमें औषधीय गुण होते हैं। इस वन में चलते हुए एक गुफा के पास से एकाएक एक बाघ निकला और महर्षि पर आक्रमण कर दिया। उसके आक्रमण से महर्षि ने किसी तरह स्वयं को बचाया और एक तरफ खड़े हो गए।  उनका हृदय भय के कारण जोर -जोर से धड़क रहा था। जो हुआ उसपर वे सोचने लगे, भला ऐसा कैसे हुआ? मेरे तप का क्या हुआ? मेरी उपस्थिति में कोई जीव हिंसक कैसे हो  सकता है ? यह बाघ मुझ पर आक्रमण कैसे कर सकता है ? तभी महर्षि ने देखा कि जो जंगली व्याध शिष्य बनने के लिए उनके पीछे आ रहा था उसने एक पत्थर से बाघ का सर कुचल कर मार दिया है किन्तु स्वयं भी बहुत बुरी तरह घायल हो  गया है। फिर भी व्याध बहुत प्रसन्न था कि उसने महर्षि की जान बचायी। 

           इससे भी आश्चर्यचकित करने वाली बात उनदोनों ने देखा कि एक अतिसुन्दर क्षत्रिय उस बाघ के शरीर से प्रकट हुआ और महर्षि की ओर नतमस्तक होकर कृतज्ञता से बोला, "महर्षि आपका तप असाधारण है, आपका धर्म महान है और आपका प्रेम सार्वभौमिक है। आपके ये तीनों गुण जान के ही मैंने आपपर आक्रमण किया था। मैंने सोचा आपका स्पर्श पाकर मैं अपने श्राप का अंत कर सकूँगा। पर मैं आपको छू ही नहीं पाया। फिर भी मैं अपने श्राप से मुक्त हो गया क्योंकि मैंने आपके शिष्य का स्पर्श पा लिया था। मैंने अपने पूर्व शरीर को प्राप्त कर लिया है। मेरा नाम दीर्घबाहु है। मेरे अतिघमंडी स्वभाव के कारण मैंने यह बाघ के शरीर को प्राप्त करने का श्राप पाया था। आपके सान्निध्य में अब मुझे इस श्राप से मुक्ति मिल गयी। अब मुझे जाने की आज्ञा दीजिये।" 

          व्याध बाघ से लड़ाई कारण अब भी हाँफ रहा था। उसके शरीर पर जगह जगह घाव हो गए थे। यह कहना मुश्किल था कि उसकी कितनी हड्डियाँ टूटी थीं। फिर भी महर्षि आरुणि के सामने वह श्रद्धापूर्वक नतमस्तक था। महर्षि ने सोचा - "इस व्याध ने सैकड़ों महर्षियों की हत्या की है, यह पापी है लेकिन इसमें कुछ गुण अवश्य है जिसके कारण यह तप की ओर आकर्षित हुआ है। तप करने के अडिग निश्चय के कारण ही यह धार्मिक और गुणी हो गया है। वह तप करना चाहता था और मुझे अपना गुरु बनाना चाहता था पर कैसे बनाये यह नहीं जनता था। मैंने ना उसे कुछ सिखाया ना उसपर ध्यान दिया। फिर भी उसने मेरे प्राण बचाये क्योंकि उसने मुझे अपना गुरु मान लिया था। भला गुरु के लिए ऐसा काम कौन करेगा? अवश्य ही वह एक महान आत्मा है। " 

         महर्षि आरुणि ने विचार किया, "इसके पाप तो मिट गए पर इसमें कोई प्रतिभा नहीं है। मैं कौन सा मन्त्र इसे सिखा सकता हूँ ? ना तो मैं इससे प्राणायाम करा सकता हूँ और न तत्व सिखा सकता हूँ। फिर भी मैं इसे कुछ अमूल्य सिखाऊंगा।" यह विचार कर महर्षि गहन ध्यानमग्न हुए और परमात्मा से प्रार्थना की। फिर आँखें खोल बोले, "हे व्याध ! तप सीखने के लिए तुम इतनी दूर तक मेरे पीछे आये। विश्वास करो, आज बहुत शुभ दिन है। आज के बाद कभी झूठ न बोलो, सदा सत्य बोलो। यही तुम्हारा तप है और यही तुम्हारी शिक्षा। इन सकता पेड़ों के फल कभी मत खाना और इसी स्थान पर रह कर तप करना।" व्याध ने गुरु के निर्देशों को स्वीकार किया पर न तो उसने अपने घावों की चर्चा की और न अपनी टूटी  हड्डियों की। वह आनंद के अतिरेक में भावविभोर हो गया। जब वह इस आनंद की अवस्था में खोया था उसके गुरु वहाँ से चले गए। 

        टूटी हड्डियों के कारण व्याध चलने फिरने में असमर्थ था। जितनी दूर तक चल सकता था वहाँ तक सिर्फ सकता के ही पेड़ थे। पर वह न तो निराश हुआ और न उसने भोजन की चिंता की। उसका ध्यान गुरु की शिक्षा अर्थात सत्य पर टिका था। उसका ध्यान इतना गहरा हो गया कि वह समाधि की अवस्था में चला गया। बाद में वह "सत्यतप" के नाम से प्रसिद्ध हो हुआ जिसकी घटना इस प्रकार है। 

             बिना भोजन के लम्बी अवधि तक समाधि में रहने के कारण वह कृशकाय हो गया। वह इतना दुबला हो गया था कि आसपास में कोई भी इसकी परवाह नहीं करता था कि वह ज़िंदा है या मुर्दा। इसी तरह कई वर्ष बीते।  

            एक बार की बात है व्याध ने एक आदमी को देखा जिसके कपड़े मैले कुचैले और मिट्टी में सने थे। वह लगभग पागलों की तरह व्यवहार कर रहा था। किन्तु उसके चारों ओर की आभा को देख कर व्याध ने उसे दुर्वासा ऋषि के रूप में पहचाना। शिकारी उनके पैरों में गिरा और कई बार उन्हें अपना अतिथि बनने का आग्रह किया। ऋषि दुर्वासा ने उसके पेड़ के तने जैसे शरीर को देखा जिसपर कई घाव के निशान थे। यज्ञोपवीत शरीर पर न था। परन्तु ऋषि यह देख कर आश्चर्यचकित थे कि उसके चारों ओर एक दिव्य आभा थी। महर्षि कुछ पल स्थिर और चुप रहे फिर पूछा, "तुम क्या खाते हो?" 

           एकाएक पूछे गए प्रश्न से सकपकाए व्याध ने सोचा कि महर्षि ने उसे एक मांसाहारी के रूप में समझा है। उसने जवाब दिया, "इनदिनों मैं कुछ नहीं खाता।" 

         व्यंगात्मक रूप से ऋषिने पूछा, "कब से ?"

       "हे आदरणीय महर्षि ! याद नहीं किन्तु संभवतः पिछले कई दसकों से।" जवाब दिया व्याध ने।  

           "तुम तो स्वयं कंगाल हो। जब तुम्हारे पास कुछ है ही नहीं तो तुम मुझे क्या दे सकते हो?" दुर्वासा ऋषि ने पूछा। 

        "हे ऋषि, ऐसा मत कहिये। आप मेरे आश्रम में चलिए। जो कहेंगे मैं आपको वह दूँगा।" व्याध ने कहा। 

        व्यंगात्मक शैली में दुर्वासा बोले, "मैं तो आसपास कोई कुटिया नहीं देख रहा। कौन से आश्रम की बात कर रहे हो ?" 

         व्याध बोला, "उस वृक्ष के तने में जो बड़ा सा छेद देख रहे हैं वही मेरा आश्रम है।" 

       "उस वृक्ष के छेद में तुम्हारा आश्रम है ? उसमें कई साँप और बिच्छू हो सकते हैं। मैं उसमें जाऊँ ?" महर्षि दुर्वासा बोले, "लगता है तुम मुझे पहचान नहीं रहे हो ?"  

      हाथ जोड़ कर व्याध बोला, "महात्मन ! आप शांत हो जाएँ। आप इस वृक्ष की छाया में बैठें। जो आप खाना चाहेंगे मैं आपको यहीं लाकर दूंगा।" महर्षि बोले - "ठीक है। तुम एक दर्ज़न केले के गुच्छे, 50 कटहल और 100 नारियल ले आओ।" व्याध फुर्ती से एक सर्प की तरह वृक्ष के छेद में घुसा और वहाँ बैठ कर ईश्वर का गहरा ध्यान किया। बहुत शीघ्र एक रत्नजड़ित पत्थर का बर्तन उसके हाथ पर आ गया। उस बर्तन को लेकर वह बाहर आया। पास के पेड़ों से पत्ते लेकर थाली और पानी के लिए दोने बनाये। फिर पास के झरने से पानी लाया और जो कुछ दुर्वासा ऋषि ने आदेश दिया था एक एक कर पत्थर के बर्तन से निकाल कर थाली पर रख दिया। यह देख कर ऋषि बहुत प्रभावित हुए और इन्हें खाने के बाद और भी कई वस्तुओं की इच्छा की जिसे व्याध ने पूरा किया। अंततः दुर्वासा ऋषि की क्षुधा तृप्त हुई और उन्होंने व्याध के कंधे पर हाथ रखकर कहा, "तुम्हारा तप सत्य पर आधारित है इसलिए तुम सत्यतप हो।" ऋषि ने जोर से तीन बार यह बात दुहराई और गहरे वन में ओझल हो गए।

         जब दुर्वासा ऋषि उस वन में आये थे तो अन्य ऋषियों ने उन्हें पहचान लिया था पर कोई भी उनके पास नहीं आये थे। कारण यह था कि सभी उनके बहुत गुस्सैल स्वाभाव से परिचित थे। छोटे से कारण से भी उनका बहुत अधिक गुस्सा भड़क जाना सर्वविदित था। जब व्याध ने महर्षि दुर्वासा को आमंत्रित किया तो अन्य ऋषियों ने सोचा कि व्याध ने अपनी विपत्ति को आमंत्रित किया है। परन्तु जब दुर्वासा ऋषि ने व्याध की प्रशंसा की और उसे सत्यतप की उपाधि दी तो वे ऋषिगण आश्चर्यचकित हो गए। तब से व्याध "सत्यतप" के नाम से जाना गया। 

                  इस प्रकार सद्गुरु महर्षि आरुणि की कृपा से एक व्याध ऋषि हो गया और सत्यतप के नाम से प्रसिद्ध हुआ जो कि एक बहुत बड़ा सम्मान है।        

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Part -2

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Tuesday, October 13, 2020

माँ दुर्गा की आराधना अवश्य करें

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          देवी दुर्गा "आदिशक्ति" हैं, अर्थात शक्ति का मूल स्रोत हैं। दुनियाँ में कोई भी कार्य करने के लिए कम या अधिक शक्ति की आवश्यकता होती ही है, चाहे वह कार्य मनुष्य करे या कोई देव, दानव, राक्षस कोई भी जीव। फिर चाहे वह कार्य रचनात्मक हो या विध्वंसक। इस शक्ति और ऊर्जा के कई रूप होते हैं। इनके कई रूपों को हमलोग भौतिकी में जानते भी हैं। किन्तु दैनिक जीवन में हम अनुभव करते हैं कि इस शक्ति के कई अन्य रूप भी हैं जो भौतिकी से बाहर हैं। यथा, धन-सम्पदा की शक्ति, शारीरिक शक्ति, राजनैतिक शक्ति, आध्यात्मिक शक्ति, प्रेम की शक्ति, इत्यादि। अपने जीवन में हमलोग शक्तिशाली लोगों का अनुसरण करते हैं, हमें करना होता है। हमें शक्ति प्राप्त करने की इच्छा होती है, हम शक्तिशाली होना चाहते हैं। जाने - अनजाने हमलोग शक्ति की ही पूजा करते हैं चाहे हमारा कोई भी धर्म हो। सनातन हिन्दू धर्म में, किसी भी जीव यथा मानव, दानव, देवता, आदि के भीतर की शक्ति को देवी आदिशक्ति या दुर्गा का ही रूप माना जाता है। जो त्रिदेव हैं उनकी भी अपरिमित शक्ति ये ही आदिशक्ति हैं, सिर्फ उनके नाम अलग अलग हैं। जैसे ब्रह्मा की शक्ति को ब्राह्मणी कहते हैं,  विष्णु की शक्ति को वैष्णवी और शिव की शक्ति को शाम्भवी अर्थात पार्वती। ये तीनों देवता या अन्य इसीलिए पूजे जाते हैं क्योंकि इनके पास ये शक्तियाँ हैं। इन्हीं शक्तियों के कारण ये अपने अनुगामियों और भक्तों की मनोकामनाएँ पूर्ण कर सकते हैं। इस प्रकार सबके मूल में भगवती आदिशक्ति अर्थात भगवती दुर्गा ही हैं। शिव को देवों के देव महादेव कहते हैं किन्तु शक्ति के बिना शिव शव सामान हैं। शक्ति की पूजा करनेवाले "शाक्त" कहे जाते हैं।

श्रीदुर्गा सप्तशती पुस्तक

 

       एक बार भगवती ने दुर्ग नाम के भयंकर राक्षस का वध किया, फलस्वरूप उनका नाम दुर्गा पड़ा। कहा जाता है कि जब माँ दुर्गा प्रसन्न होती हैं तो वे अपने भक्तों को वांछित ज्ञान, मोक्ष, स्वर्ग तथा अन्य सांसारिक वस्तुएँ प्रदान करती हैं। माँ दुर्गा को प्रसन्न करने का सर्वोत्तम तरीका है "दुर्गा सप्तशती" का नियमपूर्वक पाठ। "दुर्गा सप्तशती" एक धार्मिक पुस्तक है जिसमें सात सौ श्लोक हैं। इसमें वर्णन है कि किस प्रकार राजा सुरथ (जिनका राज-पाट छिन गया था) और वैश्य समाधि (जिनकी धन-सम्पदा छिन गई थी) वैभव से रहित वन में जाते हैं जहाँ शिष्यों सहित एक मुनि को देखते हैं। वे मुनि को अपना अपना परिचय देकर विपत्तियों को दूर करने का उपाय पूछते हैं। मुनि उन्हें भगवती दुर्गा की शरण में जाने को कहा, उनकी आराधना करने कहा, उनके प्रसन्न होने पर वे अपने भक्तों को सांसारिक सुख, स्वर्ग तथा मोक्ष देती हैं:-

तमुपैहि महाराज शरणं परमेश्वरीं आराधिता सैव नृणां भोगस्वर्गापवर्गदा।


   मुनि के निर्देशानुसार उन्होंने श्रद्धा और भक्तिपूर्वक भगवती दुर्गा की आराधना की, उनसे प्रसन्न होकर देवी प्रकट हुईं और वरदान मांगने के लिए कहा। समाधि ने ज्ञान और मोक्ष माँगा जबकि सुरथ ने अचल राज्य। देवी ने दोनों को इच्छित वरदान दिया। साथ ही राजा सुरथ को दूसरे जन्म में अगले मन्वन्तर के मनु होने का भी वरदान दिया। इस प्रकार सुरथ अगले मन्वन्तर सावर्णि के मनु होंगे। 

    दुर्गासप्तशती में भगवती द्वारा अनेक असुरों का वध कर बार-बार देवताओं की रक्षा करने का वर्णन है। कुल सात सौ श्लोकों को तेरह अध्यायों में बाँटा गया है। ये सभी अध्याय तीन चरित्रों में रखे गए हैं। 

 

प्रथम चरित्र - एक अध्याय (पहला)

मध्यम चरित्र - तीन अध्याय (दूसरा से चौथा)

उत्तर चरित्र - नौ अध्याय (पाँचवाँ से तेरहवाँ)


     इन अध्यायों की संख्या पर गौर करें। 1, 3, 9 - ये गणित के ज्यामितीय प्रोग्रेशन में हैं, रहस्यमयी ! यद्यपि प्रत्येक अध्याय के प्रारम्भ में भगवती के अलग अलग रूपों का ध्यान किया गया है किन्तु प्रत्येक चरित्र में, देवियों के तीन मूल रूप का ध्यान किया जाता है। 

     प्रथम चरित्र महाकाली को समर्पित है। इसके एकमात्र प्रथम अध्याय में देवी के महामाया रूप के प्रभाव का वर्णन है। एक बार महामाया के प्रभाव से भगवान विष्णु गहरी निंद्रा में सो गए। लम्बे समय उपरान्त उनके कानों से गन्दगी बहार गिरे जो तुरंत ही मधु और कैटभ नाम के दो विकट असुरों में परिवर्तित हो गए। उनकी दृष्टि विष्णु के नाभि कमल पर बैठे ब्रह्मा पर गयी। दोनों असुर ब्रह्मा को मारने दौड़े। ब्रह्मा ने विष्णु को बचाने के लिए पुकारा पर वे तो महामाया के प्रभाव में सो रहे थे। तब ब्रह्मा ने महामाया भगवती की सुन्दर श्लोकों से स्तुति की (जिसे रात्रिसूक्त कहते हैं) और भगवान् विष्णु को अपने प्रभाव से मुक्त करने की विनती की। प्रसन्न हो कर भगवती ने ऐसा ही किया। महामाया के प्रभाव से मुक्त होकर विष्णु जागे और उन दैत्यों से युद्ध किया। 5000 वर्षों तक युद्ध होने पर भी कोई नतीजा न देख कर महामाया ने उन दैत्यों पर माया की। माया के प्रभाव से सम्मोहित दैत्यों ने विष्णु से कहा -"हम तुम्हारी युद्धकला से प्रसन्न हैं, तुम वर मांगो।" विष्णु बोले -"मेरे हाथों तुम्हारा वध हो।" तब दैत्यों ने पूरी धरती को पानी में जलमग्न देख कर कहा - "तुम हमें वहाँ मारो जहाँ सूखा हो।" विष्णु ने दैत्यों को अपनी जंघा पर लिटाया और चक्र से उनका गला काट दिया। इस प्रकार ब्रह्मा की रक्षा की। 

         मध्यम चरित्र में महालक्ष्मी का ध्यान किया जाता है। इंद्र और अन्य देवताओं की रक्षा देवी ने महिषासुर को मार कर किया। इसलिए उनका नाम महिषासुरमर्दिनि भी पड़ा। 

उत्तर चरित्र में महासरस्वती का ध्यान किया जाता है। इंद्र आदि देवताओं की प्रार्थना पर भगवती का देवी पार्वती के शरीर से प्राकट्य हुआ। भयंकर दैत्य शुम्भ और निशुम्भ का वध उनके बलशाली और मायावी सेनापतियों सहित कर देवी ने देवताओं की रक्षा की। इन सेनापतियों में धूम्रलोचन, चण्ड -मुण्ड, रक्तबीज आदि थे। 

          जब जब मनुष्य अथवा देवताओं ने भक्तिपूर्वक देवी को पुकारा है तब तब देवी ने उनकी सहायता की है। उत्तर  चरित्र का बारहवाँ अध्याय देवी चरित्रों के पाठ अथवा श्रवण का माहात्म्य बताता है। मात्र बारहवें अध्याय के श्रवण का ही अनेक फल बताया गया है। रोग, महामारी, दुष्ट ग्रहों के कुप्रभाव, मृत्यु-भय, डाकुओं का भय या अन्य कोई भी कष्ट इसके श्रवण मात्र से ही दूर होते हैं। स्वयं भगवती ने प्रसन्न हो कर वरदान दिया था की भविष्य में भी जब जब असुरों की वृद्धि होगी तब तब मैं अनेक नाम रूपों से प्रकट होकर उनका सँहार करुँगी और देवताओं तथा मनुष्यों की रक्षा करुँगी। उनमें से मेरे कुछ नाम इस प्रकार होंगे - दुर्गा, भ्रामरी, शाकम्भरी, भीमा, चामुंडा, आदि। बारहवें अध्याय के अंतिम श्लोकों में भगवती ने इस प्रकार कहा है:-


भवकाले नृणां सैव लक्ष्मीर्वृद्धिप्रदा गृहे।
सैवाभावे तथाSलक्ष्मीर्विनाशायोप जायते।।



स्तुता सम्पूजिता पुष्पैर्धूपगन्धादिभिस्तथा।
ददाति वित्तं पुत्रांश्च मतिं धर्मे गतिं शुभाम्।।


(अर्थात जब मनुष्य की भौतिक जगत में उन्नति होती है तब मैं ही हूँ जो उसके घर में लक्ष्मी बनकर आती हूँ और जब अभाव का समय आता है तो मैं ही दारिद्र्य बनकर उसे बर्बाद कर देती हूँ। अतः जो भी पुष्प, धूप, गंध, आदि से मेरी पूजा - स्तुति  करता है उसे मैं धन और पुत्र देती हूँ, उसकी मति धर्म की ओर अग्रसर होती है तथा शुभ गति होती है।)


     हिन्दू पञ्चाङ्ग की अष्टमी, नवमी और चतुर्दशी की तिथियाँ नियमपूर्वक दुर्गा सप्तशती के पाठ के लिए सर्वोत्तम होती हैं। वार्षिक पूजा के लिए आश्विन मास के शुक्ल पक्ष के प्रथम नौ दिन अर्थात नवरात्र में दुर्गा सप्तशती का पाठ, पूजा उपरान्त होम तथा ब्राह्मण -कुमारिका भोजन बहुत ही फलदायी माना जाता है। यद्यपि वर्ष में इसके अतिरिक्त तीन-तीन माह के अंतराल पर तीन और नवरात्र होते हैं, तथापि आश्विन मास का नवरात्र सबसे अधिक महत्वपूर्ण होता है। पूर्वी भारत यह सबसे बड़ी पूजा मानी जाती है।  

       भगवती ने यह भी कहा - "अगर बलिपूजा के समय दुर्गा सप्तशती का नियमपूर्वक पाठ किया जाय तो भक्त को विधि की जानकारी हो या न हो, मैं स्वीकार करती हूँ और प्रसन्न होती हूँ। जिस मंदिर में नित्य दुर्गा सप्तशती का पाठ होता है उस मंदिर को मैं कभी नहीं छोड़ती।"

    गीता प्रेस, गोरखपुर द्वारा दुर्गा सप्तशती पुस्तक आम जनों के लिए सही दाम पर उपलब्ध करा कर सराहनीय कार्य किया गया है। इसमें सप्तशती पाठ करने के नियमों भी वर्णन किया गया है। पुस्तक के अंत में भक्तों की विभिन्न कामनाओं के लिए सप्तशती के विशिष्ट मन्त्रों की एक सूची भी दी गयी है। देवी के भक्तों को इस पुस्तक को घर में अवश्य रखना चाहिए।

      संस्कृत में कहा गया है, " कलौ गौरी विनायकौ", अर्थात कलियुग में गणेश (पार्वतीपुत्र) और पार्वती (जो आदिशक्ति हैं) ही भक्तों का उद्धार तथा उनकी मनोकामना पूर्ण करेंगे। ये दोनों पंचदेवता में भी हैं, इनके अतिरिक्त शिव, नारायण और सूर्य पंचदेवता में हैं। प्रत्येक पूजन के प्रारम्भ में पंचदेवता की पूजा अनिवार्य है। 

       दुर्गा सप्तशती का नियमपूर्वक प्रतिदिन पूर्ण पाठ समय साध्य कार्य है और सब के लिए संभव नहीं है। फिर भी भगवती की पूजा -स्तुति कम समय में भी करनी चाहिए क्योंकि देवी की पूजा कभी व्यर्थ नहीं जाती। इस पुस्तक में भगवती की अनेक स्तुतियों को भी दिया गया है तथा प्रतिदिन पाठ के लिए तेरह अध्यायों में से एक या दो अध्यायों का कॉम्बिनेशन भी बताया गया है। स्तुतियों में:-

सप्तश्लोकी दुर्गा - सात श्लोकों का समूह जिसे देवी ने शिव के आग्रह पर उन्हें बताया था, इसके पाठ से देवी प्रसन्न होती हैं।  

दुर्गा अष्टोत्तर शतनाम -दुर्गा के 108 नाम जिसे भौमवती अमावस्या की आधी रात को जब चन्द्रमा शतभिषा नक्षत्र में हो लिखकर पाठ करने से व्यक्ति सम्पत्तिशाली होता है, 

देव्यथर्व शीर्ष - देवी की महिमा उनके ही श्रीमुख से, श्रीविद्या का मन्त्र,

रात्रिसूक्त - ब्रह्मा द्वारा देवी महामाया की स्तुति जिससे प्रसन्न हो कर उन्होंने विष्णु को नींद से जागने दिया और विष्णु ने मधु -कैटभ का वध किया, 

देवीसूक्त - देवताओं द्वारा शुम्भ-निशुम्भ दैत्यों से रक्षा के लिए देवी की स्तुति, 

दुर्गा मानस पूजा - भगवती की ऐसी पूजा जिसमें सभी प्रकार के अर्पण मानसिक रूप से की जाती है,

दुर्गा द्वात्रिंशनाम माला - दुर्गा के बत्तीस नाम जो मनुष्य को भीषण विपत्तियों से मुक्त करते हैं,

इत्यादि दिए गए हैं। भक्त इनमें से एक या अधिक स्तुतियों का चयन दैनिक पूजा के लिए कर सकते हैं।

अक्षमाला

 

इस पुस्तक में दुर्गा बीज मन्त्र भी दिया गया है जिसका अक्षमाला पर 108 बार जप किया जाना चाहिए। अक्षमाला छोटे छोटे रुद्राक्षों की माला होती है। बीज मन्त्र  प्रकार है :-  

"ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डाय्येे विच्चे"

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