बाल कृष्ण |
अचतुर्वदनो ब्रह्मा द्विबाहुर्परो हरि : |अभाल लोचनो शम्भुः भगवान बादरायणः ||
( भगवान बादरायण अर्थात वेद व्यास बिना चार सिर के ब्रह्मा हैं, मात्र दो हाथ वाले विष्णु और बिना कपाल पर तीसरे नेत्र वाले शिव हैं। )
भागवत महापुराण को स्वयं भगवान कृष्ण ही माना जाता है। जब व्याध के तीर से (जो उनके पैरों में लगा था) श्रीकृष्ण ने पृथ्वी पर अपनी लीला समाप्त की तब जन कल्याण के लिए उन्होंने स्वयं को महर्षि वेद व्यास के माध्यम से श्रीमद्भागवत महापुराण के रूप में प्रकट किया जिससे हमलोग धर्म के मार्ग पर चल सकें।
श्रीमदभागवत महापुराण के पाठ का माहत्म्य पहले अध्याय में ही दिया गया है। इसमें कहा गया है कि,
नित्यं भागवतम् यस्तु पुराणं पठते नरः ।प्रत्यक्षरं भवेत्तस्य कपिलादानजं फलम् ॥
(जो व्यक्ति नित्य भागवत का पाठ करता है उसे प्रति अक्षर उच्चारण करने का कपिला गाय के दान के बराबर पुण्य प्राप्त होता है।)
श्लोकार्धं श्लोकपादं या नित्यं भागवतोद्भवम् ।पठते शृणुयाद् यस्तु गोसहस्त्रफलं लभेत् ॥
( जो व्यक्ति प्रतिदिन भागवत के आधे या चौथाई श्लोक के भी पाठ या श्रवण करता है उसे हजारों गायों के दान का पुण्य प्राप्त होता है। )
श्रीमद्भागवत महापुराण एक वृहद् पुस्तक है जिसमें बारह स्कन्द हैं। गीता-प्रेस द्वारा इसे दो मोटे भागों में मुद्रित एवं प्रकाशित किया गया है। इन्हें प्रत्येक सनातनधर्मी के घर में होना चाहिए। इस महापुराण में कुछ जगहों पर संस्कृत श्लोकों के उच्चारण में साधारण व्यक्ति को कठिनाई हो सकती है। अगर कोई भक्त प्रतिदिन इस पुराण का पाठ करते हैं तो अति उत्तम किन्तु यह आम व्यक्ति के लिए बहुत कठिन है। अतः हमें एक ऐसी विधि चाहिए जिससे संक्षिप्त में पूरे भागवत महापुराण के सार का भी पाठ हो जाये और ऊपर बताये गए भागवत पाठ का पुण्य भी मिले। भगवान श्रीकृष्ण ने नवमें अध्याय में चार श्लोकों में अपने बारे में बताया है। ये चार श्लोक श्रीमद्भागवत महापुराण की आत्मा और सार हैं, और जो ईश्वर को जानना चाहते हैं उनके लिए वांछित हैं। इसीलिए इन चार श्लोकों को चतुश्लोकी भागवत नाम दिया गया है। इसके पहले श्लोक में श्रीकृष्ण ने अपने बारे में बताया है। दूसरे में उन्होंने अपनी माया के बारे में कहा है। तीसरे श्लोक में श्रीकृष्ण ने इस जगत के बारे में बताया है जबकि चौथे और अंतिम श्लोक में उन्होंने कहा है कि जो तत्वान्वेषी हैं अर्थात ज्ञान की खोज में हैं उन्हें सिर्फ ऊपर के तीन श्लोकों में बताये गए मर्म को ही जानने की आवश्यकता है।
अतः मैं भक्तों से अनुरोध करूँगा कि अपना दस मिनट का समय निकालें और नीचे लिखे पाठ प्रतिदिन करें जिससे भागवत पाठ के बारे में बताये गए लाभों को सहज ही प्राप्त किया जा सके। चतुश्लोकी भागवत के पहले ध्यान, प्रार्थना एवं बाद में समर्पण; सभी श्रीमद्भागवत महापुराण से लिए गए हैं। इन श्लोकों में कई स्थानों पर लम्बे संस्कृत के शब्द आते हैं जो कई शब्दों के सन्धि हैं। अगर इन्हें उच्चारण करने में कठिनाई हो तो सन्धि विच्छेद कर पढ़ सकते हैं। अथवा यदि आप तीन मिनट का समय निकालें तो इसे यूट्यूब परभी सुन कर पुण्य का भागी बन सकते हैं। यूट्यूब पर सुनें।
Prayer (प्रार्थना)
वन्दे श्रीकृष्णदेवं मुरनरकभिदं वेदवेदांतवेद्यं
लोके भक्ति प्रसिद्धं यदुकुलजलधौ प्रादुरासीदपारे ।
यस्यासीद् रुपमेवं त्रिभुवनतरणै भक्तिवच्चं स्वतन्त्रम्
शास्त्रं रूपं च लोके प्रकटयति मुदा यः स नो भूतिहेतुः ॥
(जिन श्रीकृष्ण भगवान् ने मुर और नरक नामक राक्षसों का वध किया, जिनके तत्व को वेद और वेदान्त के द्वारा ही जाना जा सकता है, जो सिर्फ भक्ति के द्वारा ही पाए जा सकते हैं और जो यदुकुल रूपी समुद्र से प्रकट हुए, उनकी मैं वंदना करता हूँ। श्रीकृष्ण जिनकी छवि एकमात्र वह भक्ति रूपी नाव है जो तीनों लोकों में स्वतंत्र रूप से विचरण कर सकती है, जिन्होंने स्वयं को इस लोक में शास्त्र के रूप में प्रकट किया है वे भगवान् हमलोगों का कल्याण करें।
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नमः कृष्ण पदाब्जाय भक्ताभीष्टप्रदायिने ।
आरक्तं रोचयेच्छश्वन्मामके हृदयाम्बुजे ॥
(सदा मेरे हृदय में रहने वाले भगवान श्रीकृष्ण के कुछ कुछ लालिमा लिए हुए चरण कमलों में मैं नमन करता हूँ जो भक्तों की मनोकामनाओं को पूर्ण करने वाले हैं।)
श्रीभागवतरूपम् च पूजयेत् भक्तिपूर्वकम् ।
अर्चकाया अखिलानकामान् प्रयच्छति नो शंशयः ॥
(हम श्रीभागवत महापुराण के रूप में प्रकट स्वयं भगवान श्रीकृष्ण की भक्तिपूर्वक पूजन करते हैं जिनकी अर्चना से सभी कामनायें पूर्ण होतीं हैं इसमें कुछ भी शंशय नहीं है। )
Dhyan (ध्यान )
किरीटकेयूरमहार्हनिष्कैर्मण्युत्तमालंकृत्तसर्वगात्रम् ।
पीताम्बरं काञ्चनचित्रनद्ध मालाधरं केशवमभ्युपैमि॥
(मैं भगवान केशव का ध्यान हूँ जिनके मस्तक पर मुकुट (किरीट), बाहों में बाजूबंद (केयूर), वक्ष पर कीमती हार, सभी अंग मणियों से निर्मित गहनों से अलंकृत, शरीर पर पीताम्बर और गले में स्वर्ण के तारों से विचित्र रूप से गुंथा हुआ माला सुशोभित हो रहा है।)
(श्रीमद्भागवत महापुराण के प्रथम अध्याय के प्रथम दो श्लोक)
कृष्णं नारायणं वन्दे कृष्णं वन्दे व्रजप्रियं ।
कृष्णं द्वैपायनं वन्दे कृष्णं वन्दे पृथासुतं ॥
सच्चिदानन्दरुपाय विश्वोत्पत्यादि हेतवे
तापत्रय: विनाशाय श्रीकृष्णाय वयं नुमः ॥
Chatushloki Bhagwat (चतुःश्लोकी भागवत)
कृष्णं द्वैपायनं वन्दे कृष्णं वन्दे पृथासुतं ॥
(मैं उन श्रीकृष्ण की वंदना करता हूँ जो भगवान् नारायण के रूप हैं, जिन्हें व्रज प्रिय है, जो महर्षि वेद व्यास के रूप में हैं और जो अर्जुन के रूप में भी हैं।)
सच्चिदानन्दरुपाय विश्वोत्पत्यादि हेतवे
तापत्रय: विनाशाय श्रीकृष्णाय वयं नुमः ॥
(सत् -चित् -आनन्द रूपी, विश्व के उत्पन्न होने के कारण और तीनों प्रकार के तापों (दुःख) को नाश करने वाले श्रीकृष्ण को हम नमस्कार करते हैं।)
Chatushloki Bhagwat (चतुःश्लोकी भागवत)
श्री भगवान उवाच :--
अहमेवासमेवाग्रे नान्यद् यत् सदसत् परं । पश्चादहं यदेतच्च यो अवशिष्येत सो अस्मि अहम् । १ ।
ऋते अर्थम् यत् प्रतीयेत न प्रतीयेत चात्मनि । तद्विद्याद्यात्मनो मायां यथा आभासो यथा तमः | २ ।
यथा महान्ति भूतानि भूतेषूच्चावचेष्वनु । प्रविष्टान्यप्रविष्टानि तथा तेषु न तेष्वहम् ।३ ।
एतावदेव जिज्ञास्यं तत्वजिज्ञासुना आत्मनः । अन्वयव्यतिरेकाभ्याम् यत् स्यात् सर्वत्र सर्वदा । ४ ।
(इस जगत की उत्पत्ति से पहले भी मैं था, वर्तमान में भी हूँ और जब यह जगत समाप्त हो जायेगा तब भी मात्र मैं ही रहूँगा अर्थात मैं शाश्वत हूँ।|1|
जिस प्रकार कोई वस्तु वास्तविक लगने पर भी वहाँ कुछ नहीं होता, (जैसे दर्पण में छवि) और कभी कुछ आभास न होने पर भी वहाँ कुछ होता है (जैसे आकाश में राहु) -ऐसा आभास या भ्रम को मेरी "माया" जानो |2|
चूँकि इस जगत में सब मुझसे ही बने हैं तो मैं उन सब में हूँ, परन्तु वे सब 'कुछ' हैं तो मैं उनमें नहीं भी हूँ (द्वैत-अद्वैत) |3|
जिनको तत्व को जानने की जिज्ञासा है वे मात्र यह जानें कि चाहे "अन्वय" की पद्धति से अथवा "व्यतिरेक" की पद्धति से (Proof -सिद्ध करने की पद्धति) यही सिद्ध होता है कि मैं सर्वत्र और सर्वदा हूँ। अर्थात हर स्थान पर, हर काल में हूँ।)
(महापुराण के अंतिम अध्याय के कुछ अंतिम श्लोक)
भवे भवे यथा भक्तिः पादयोस्तव जायते ।
तथा कुरुष्व देवेश नाथः त्वं नो यतः प्रभो ॥
(हे देवेश ! ऐसा वरदान दें कि जब जब भी मेरा जन्म हो, आपके चरणों में मेरी अविचल भक्ति बनी रहे, और कुछ नहीं।)
नाम संकीर्तनं यस्य सर्व पाप प्रणाशनम् ।
प्रणामो दुःख शमनः तं नमामि हरिं परम् ॥
(जिनके नाम संकीर्तन से सारा पाप नष्ट हो जाता है और जिनको प्रणाम करने से सारे दुःख समाप्त हो जाते हैं मैं उन "हरि" को नमस्कार करता हूँ।)
त्वदीयं वस्तु गोविन्दं तुभ्यमेव समर्पये ।
तेन त्वदंघ्रिकमले रतिं मे यच्छ शाश्वतिम् ॥
(हे गोविन्द ! सारी वस्तुएँ आपकी ही दी हुई हैं (मेरा कुछ भी नहीं है) आपको ही समर्पित करता हूँ। बस एक चीज मुझे दीजिये कि शाश्वत रूप से आपके चरण-कमलों में मेरी प्रीति हो।)
इस अंतिम प्रार्थना के साथ भगवान् को पूजा समर्पित करें।===<<<O>>>===
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