शरद पूर्णिमा की रात में गोपीकाओं संग श्रीकृष्ण (चित्र - गूगल से साभार) |
गोपी -गीत श्रीमद्भागवतमहापुराण के दसवें स्कन्द के इकतीसवें अध्याय में वर्णित एक गीत है जो गोपियाँ श्रीकृष्ण के उनकी आँखों से ओझल हो जाने के बाद विह्वल हो कर गातीं हैं। यह गीत प्रेम और भक्ति में आकंठ डूबी गोपियों के मनोभावों का बहुत ही गहराई से एहसास कराती है। कथावाचकों और धर्माचार्यों द्वारा इस गीत की महिमा अपरम्पार कही गयी है।
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यद्यपि श्रीमद्भागवतमहापुराण के एक या आधे श्लोक को पढ़ने से भी अपार पुण्य प्राप्त होता है तथापि गोपी -गीत की तो बात ही कुछ और है। यह सिर्फ अपार पुण्य प्राप्त करने का ही साधन नहीं है बल्कि परमात्मा श्रीकृष्ण को अपने पास अनुभव करने का अवसर भी देता है। गोपियों ने इस गीत में विरह और स्मृतियों का रुदन, प्रेम के अश्रु, श्रीकृष्ण-दर्शन की उत्कंठा और मिलन की उत्कट प्यास को उड़ेल दिया है। भक्तजन जब गोपी-गीत गाते हैं तो गोपियों के इन मनोभावों को स्वयं महसूस करते हैं।
इससे पहले कि गोपी-गीत यहाँ लिखूँ, इसके प्रसङ्ग की चर्चा करना उचित होगा। दसवें स्कन्द के उन्तीसवें अध्याय से तैंतीसवें अध्याय तक के पाँच अध्याय "रासपंचाध्यायी" कहे जाते हैं, ये भागवत महापुराण के पाँच प्राण हैं। इसपर अनेक धार्मिक विद्वानों और धर्माचार्यों द्वारा टीका और व्याख्या लिखे गए हैं। यह इस पुराण का हृदय है। श्रीमद्भागवतमहापुराण में रासपंचाध्यायी का अनेक धर्माचार्यों द्वारा सर्वाधिक महत्व बताया गया है। इसे पढ़ते समय भक्तजन इतना जरूर ध्यान रखें कि इन पाँच अध्यायों में जो भगवान ने लीला की है उसमें भौतिक जीवन की काम-वासनाओं, मर्यादा का उल्लंघन या फूहड़पन का कोई स्थान नहीं है यद्यपि ऐसा भ्रम हो सकता है। जब राजा परीक्षित ने भी ऐसी ही शङ्का की तो उसका निवारण बहुत ही अच्छी तरह से शुकदेव जी ने किया है जो तैंतीसवें अध्याय में है। यह भी ध्यान में रहे कि भगवान् की आयु उस समय मात्र दस वर्ष की थी।
शरद पूर्णिमा की रात थी और यह विशेष रात ऐसी थी जिसमें सभी रात्रियों की अमृत -आत्मा घनीभूत हो कर एक अद्भुत प्रभाव की रचना कर रहीं थीं। चंद्रदेव नूतन केसर के समान लाल हो रहे थे मानो लक्ष्मीजी का मुखमण्डल हो। उनकी किरणों से सारा वन अनुराग के रंग में रंगा था, कोने -कोने में अमृत का समुद्र उड़ेल दिया था। ऐसे में परमात्मा श्रीकृष्ण ने गोपियों को वस्त्र-हरण के समय दिये गए एक वचन को पूरा करने का निर्णय किया और अपने दिव्य उज्जवल रस के उद्दीपन हेतु अपनी प्यारी वंशी पर व्रजसुंदरियों के मन को हरण करने वाली कामबीज "क्लीं" की अस्पष्ट और मधुर तान छेड़ दी। मुरलीधर का वह वंशीवादन भगवान के प्रेम को, उनके मिलन की लालसा को उकसाने और बढ़ाने वाला था। गोपियों के मन को श्यामसुंदर ने वैसे ही वश में कर रखा था पर जब उन्होंने यह मनमोहक धुन सुनी तो उन्होंने अपना सुध-बुध खो दिया। जो भी जिस काम को कर रहीं थीं उसे उसी हाल में छोड़ कर निकल पड़ीं। घरवालों ने टोका, रात्रि के समय का हवाला दिया पर जब परमात्मा से मिलन का अवसर हो तो भला जीव रुक सकता है ?
जब गोपियाँ वन में श्रीकृष्ण के पास पहुंचीं तो भगवान् ने उनका स्वागत करते हुए इतनी रात्रि में आने का कारण पूछा, व्रज का कुशल मङ्गल पूछा। कहा कि आज की रात्रि में यह वन अत्यंत सुन्दर लग रहा है, अगर इसे देख लिया तो अब वापस जाओ। तुम्हारे घर में बच्चे रो रहे हैं, गाय के बछड़े रंभा रहे हैं। जाओ बच्चों को दूध पिलाओ, गौवें दूहो। तुमलोग कुलीन स्त्रियाँ हो अतः शीघ्र घर लौटो और अपने पतियों और घर के वृद्धजनों की सेवा करो। यदि तुमलोग मेरे प्रेम के परवश हो कर यहाँ आयी हो तो इसमें कोई अनुचित बात नहीं क्योंकि जगत के पशु-पक्षी तक मुझसे प्रेम करते हैं, मुझे देख कर प्रसन्न होते हैं। फिर भगवान् उन्हें मर्यादा और स्त्री-धर्म की दुहाई देते हैं कि स्त्रियों का परम धर्म है कि वे पति और उसके भाई बंधुओं की निष्कपट भाव से सेवा करें और संतान का पालन पोषण करें। परपुरुष की सेवा उनके लिए निंदनीय है - यह इस लोक में अपयश का कारण है और इससे परलोक बिगड़ता है। यह कुकर्म तो अत्यंत तुच्छ और क्षणिक है। इसमें वर्तमान में भी प्रत्यक्ष ही कष्ट -ही -कष्ट है। मोक्ष की तो बात ही क्या, यह साक्षात परम भय और नरक का हेतु है। इतना समझाने पर भी जब वे न लौटीं तो तो भगवान् ने कहा, गोपियों ! मेरी लीला और गुणों के श्रवण से, रूप के दर्शन से, उनसब के कीर्तन और ध्यान से मेरे प्रति जैसे अनन्य प्रेम की प्राप्ति होती है वैसी प्रेम की प्राप्ति पास रहने से नहीं होती। इसलिए तुमलोग अभी अपने अपने घर लौट जाओ।
गोपियों को अपने प्रियतम श्रीकृष्ण का यह अप्रिय भाषण सुन कर बड़ी दुःख और ग्लानि हुई। निराशा और चिन्ता में उनके आँखों से निरंतर अश्रुधारा चल पड़ी। खड़ी-खड़ी पाँवों के अंगूठे से जमीन कुरेदने लगीं। उनके लाल होंठ कांपने लगे और सांस फूलने लगे। रोने के कारण आँखें लाल-लाल हो गयीं और गले रुँध गए। फिर किसी तरह धीरज धारण कर और स्वयं पर काबू कर श्रीकृष्ण से कहने लगीं - तुम तो घट -घट वासी हो, सबके मन की बात जानते हो। हम सबको छोड़कर सिर्फ तुम्हारे चरणों में ही प्रेम करती हैं। जैसे भगवान् नारायण कृपा करके अपने मुमुक्षु भक्तों से प्रेम करते हैं वैसे ही तुम हमें स्वीकार कर लो। हमारा त्याग मत करो। तुम सब धर्मों का रहस्य जानते हो। "अपने पति, पुत्र और भाई-बंधुओं की सेवा करना ही स्त्रियों का परम धर्म है"-तुम्हारा यह कहना अक्षरसः सत्य है। किन्तु तुम्हारे इस उपदेश के अनुसार हमें तुम्हारी ही सेवा करनी चाहिए क्योंकि इन उपदेशों के परम लक्ष्य तुम्हीं हो। साक्षात भगवान् हो। समस्त जीवधारियों के सुहृद, आत्मा और परम प्रियतम हो। तुम नित्य, प्रिय और अपने ही आत्मा हो जिस कारण आत्मज्ञान में निपुण महापुरुष तुमसे ही प्रेम करते हैं। फिर मरणशील और दुःखद पति-पुत्रादि से क्या क्या प्रयोजन है ? हे परमेश्वर ! इसलिए प्रसन्न होओ, हमपर कृपा करो और चिरकाल से तुम्हारे प्रति पाली गयी आशा -अभिलाषा की लता का छेदन मत करो। हमलोग तो अबतक घर के काम-काज में ही लगी रहतीं थीं। पर तुमने हमारे चित्त का हरण कर लिया। अब हमारी मति-गति निराली हो गयी है। हम तुम्हारे चरण कमलों को छोड़ कर कहीं नहीं जा रहीं। हे सखा ! तुम्हारी मंद-मंद मुस्कान, प्रेमभरी चितवन और मनोहर संगीत ने हमारे ह्रदय में तुम्हारे प्रेम और मिलन की ज्वाला धधका दी है। उसे तुम अपने अधरों की रसधारा से बुझा दो, नहीं तो प्रियतम ! तुम्हारी विरह -व्यथा की आग में हम अपने शरीर को जला देंगी और ध्यान के द्वारा तुम्हारे चरण कमलों को प्राप्त करेंगी।
इस प्रकार अनेक उपमा, उदहारण और तर्क के साथ अपने हृदय के भावों को रखते हुए गोपियाँ वापस घर जाने को तैयार न हुईं। भगवान श्रीकृष्ण सनकादि योगियों और शिवादि योगेश्वरों के भी ईश्वर हैं। गोपियों की व्यथा और व्याकुलता की वाणी सुनकर उनका हृदय दया से भर गया और उन्होंने हँसकर उनके साथ क्रीड़ा प्रारम्भ की। उन्होंने अपनी भाव-भंगिमाएँ और चेष्टाएँ गोपियों के अनुकूल कर दीं। फिर भी वे अपने स्वरूप में ज्यों-के-त्यों एकरस स्थित थे, अच्युत थे। जब वे खुल कर हँसते थे तो उनके श्वेत दाँत कुंद फूल की कली के समान जान पड़ते थे। उनकी प्रेम भरी चितवन से और दर्शन के आनंद से गोपियों का मुखकमल प्रफुल्लित हो गया। वे उन्हें घेर कर खड़ी हो गयीं। उस समय श्रीकृष्ण की शोभा ऐसी हुई जैसे तारिकाओं से घिरे चाँद की होती है। वैजयंतीमाला पहने श्रीकृष्ण वृन्दावन को शोभायमान करते हुए विचरण करने लगे। कभी गोपियाँ अपने प्रियतम श्रीकृष्ण के गुण और लीलाओं का गान करतीं, तो कभी श्रीकृष्ण गोपियों के प्रेम और सौंदर्य के गीत गाने लगते। फिर भगवान् ने गोपियों के साथ यमुना जी के पावन पुलिन पर, जो कर्पूर के समान चमकीली बालू से जगमगा रहा था, पदार्पण किया। वह यमुनाजी की तरंगों से शीतल और कुमुदिनी की सहज सुगंध से सुवासित वायु के द्वारा सेवित हो रहा था। उस आनंदप्रद पुलिन पर भगवान् ने गोपियों के साथ क्रीड़ा की। हाथ फैलाना, आलिङ्गन करना, हाथ दबाना, चोटी, बाँह आदि का स्पर्श करना, विनोद करना, विनोदपूर्वक चितवन से देखना और मुसकाना -- इस प्रकार की क्रियाओं द्वारा गोपियों की कामरस और परमोज्ज्वल प्रेमभाव को उत्तेजित करते हुए भगवान् श्रीकृष्ण उन्हें आनंदित करने लगे। उदारशिरोमणि सर्वव्यापक भगवान् श्रीकृष्ण ने जब इस प्रकार गोपियों का सम्मान किया तो गोपियों के मन में ऐसा भाव आया कि संसार की समस्त स्त्रियों में हम ही श्रेष्ठ हैं, हमारे समान और कोई नहीं। वे थोड़ी मानवती हो गयीं। पर भगवान् तो ऐसे हैं कि उन्हें अहंकार का लेश मात्र भी पसंद नहीं। वह भी अपने प्रिय और भक्तों का तो बिलकुल भी नहीं क्योंकि यह पतन का कारण होता है। अतः श्रीकृष्ण उनका गर्व शांत करने के लिए और उनका अभिमान दूर कर प्रसन्न करने के लिए वहीं उनके बीच से ही अंतर्ध्यान हो गए।
श्रीकृष्ण के सहसा अन्तर्ध्यान हो जाने से गोपियाँ व्याकुल हो गयीं। भगवान् की गजराज सी चाल, प्रेमभरी मुस्कान,मनोरम प्रेमालाप, विलासभरी चितवन, विभिन्न प्रकार की लीलाओं तथा श्रृंगार रस की भाव भंगियों ने उनके चित्त को चुरा लिया था। कृष्ण-प्रेम में मतवाली गोपियाँ श्रीकृष्णमय हो गयीं और उनकी ही विभिन्न चेष्टाओं का अनुकरण करने लगीं। श्रीकृष्ण की चाल-ढाल, हास-विलास और चितवन-बोलन आदि में उनके समान ही बन गयीं उनके शरीर में भी वही मति-गति, वही भाव-भंगी उतर आयी। गोपियाँ स्वयं को भूलकर श्रीकृष्ण स्वरुप हो गयीं। मैं श्रीकृष्ण ही हूँ - इस प्रकार कहते हुए वे आपस में मिलकर ऊँचे स्वर में भगवान् का गुणगान करने लगीं और मतवाली होकर एक वन से दूसरे वन में, एक झाड़ी से दूसरी झाड़ियों में जाकर श्रीकृष्ण को ढूँढने लगीं। पेड़-पौधों, लता-पता, तुलसी-तृण, पृथ्वी-वनजीवों आदि से भगवान् का सुन्दर वर्णन करते हुए उनका पता पूछने लगीं।
भगवान् श्रीकृष्ण तो अंतर्धान हुए थे कहीं गए नहीं थे। वे तो सर्वव्यापी हैं और सर्वद्रष्टा हैं। सब देख रहे थे किन्तु प्रकट नहीं हो रहे थे। विरहाकुल गोपियाँ उन्हें ढूँढ़ते हुए कातर हो रही थीं। अब और भी अधिक आवेश हो जाने के कारण वे भगवान् की लीलाओं का अनुकरण करने लगीं। कोई एक पूतना बन गयी तो दूसरी श्रीकृष्ण बनकर उसका स्तन पीने लगी। कोई छकड़ा बन गयी तो दूसरी ने उसे बालकृष्ण बनकर रोते हुए पैरों से उलट दिया। कभी तृणावर्त दैत्य वाली लीला करतीं तो कभी बकासुर और वत्सासुर वाली। कभी कालिया मर्दन वाली लीला करतीं तो कभी गोवर्धन पर्वत वाली। इस प्रकार श्रीकृष्ण की बाल-लीलाओँ का अनुकरण करते-करते वे फिर से वृन्दावन के वृक्षों-लताओं से श्रीकृष्ण का पता पूछने लगीं। इसी क्रम में उन्होंने एक स्थान पर श्रीकृष्ण के चरण-चिह्न देखे। उन्होंने कहा, इन चरण-चिह्नों में ध्वजा, कमल, वज्र, अंकुश और जौ के चिह्न भी हैं, अतः निश्चय ही ये श्रीकृष्ण के हैं। उनका अनुसरण कर जब वे आगे बढ़ीं तो उनके साथ किसी व्रजयुवती के भी चरण-चिह्न दीख पड़े। आगे मात्र श्रीकृष्ण के गहरे चरण-चिह्न थे, उस व्रजयुवती की नहीं। गोपियों ने विचार किया कि भगवान ने प्रेयषी को गोद में उठा लिया था जिससे उसके चरणों में तृण की नोंक न चुभे। आगे के चरण-चिह्न ऐसे थे मानो श्रीकृष्ण ने उचक-उचक कर व्रजयुवती के लिए वृक्ष से फूल तोड़े हों। गोपियाँ उस बड़भागी व्रजयुवती के भाग्य की सराहना करने लगीं और अपने वर्तमान स्थिति पर उन्हें क्षोभ होने लगा। (श्रीकृष्ण स्वयं आत्माराम हैं, वे अपने आप में ही परिपूर्ण हैं तो उनमें काम की कल्पना कैसे की जा सकती है। उन्होंने एक कामी की तरह उस गोपी के साथ क्रीड़ा का खेल रचा था। ) इधर जिस गोपी के साथ श्रीकृष्ण एकांत में क्रीड़ा कर रहे थे उसे स्वयं पर मान हो गया कि मैं ही सभी गोपियों में श्रेष्ठ हूँ, तभी तो सब को छोड़ कर भगवान् उसे ही चाहते हैं। वह भगवान् के प्रेम और सौभाग्य के मद से मतवाली हो गयी। उसने श्रीकृष्ण से कहा कि प्यारे अब मुझ से नहीं चला जा रहा, तुम जहाँ भी मुझे ले जाना चाहो अपने कंधे पर चढ़ा कर ले चलो। भगवान श्रीकृष्ण जिन्हें ब्रह्मा और शङ्कर भी इष्ट मानते हैं वे समझ गए कि इस गोपी में भी अभिमान आ गया है जिसे हटाना आवश्यक है। अतः प्रकट में उन्होंने कहा कि ठीक है प्यारी, तुम मेरे कंधे चढ़ जाओ। फिर जैसे ही वह कंधे पर चढ़ने का उपक्रम करने लगी, भगवान् श्रीकृष्ण वहाँ से भी अंतर्ध्यान हो गए। यह देखते ही वह सौभाग्यवती गोपी रोने-पछताने लगी। अपनी भूल का अनुभव होते ही श्रीकृष्ण का नाम ले-लेकर विलाप करने लगी फिर अचेत होकर गिर पड़ी। तबतक अन्य गोपियाँ भी श्रीकृष्ण को ढूंढते-ढूंढते वहाँ पहुंचीं। अचेत गोपी को जब उन्होंने जगाया तो उसने श्रीकृष्ण से प्राप्त प्रेम और सम्मान को सुनाया और कहा कि मैंने कुटिलतवश उनका अपमान किया जिससे वे मुझे छोड़ कर अंतर्धान हो गए।
आश्चर्यचकित गोपियाँ श्रीकृष्ण के अंतर्धान होने का कारण जान चुकी थीं, पर वे उनके प्रेम और भक्ति में इतना डूब चुकीं थीं कि उन्हें अपने शरीर की भी सुधि न थी घर की कौन कहे। जहाँ तक चाँदनी थी वहाँ तक श्रीकृष्ण को पुकारते, विलाप करते और विह्वल हो कर उन्हें ढूँढा उसके आगे जंगल में घना अँधेरा था। उन्होंने सोचा कि अगर जंगल में जायेंगे तो श्रीकृष्ण छिपने के लिए और भी अंदर चले जायेंगे। वे सभी यमुनाजी के पावन पुलिन पर लौट आयीं। वे सभी कृष्णमय हो चुकी थीं। उनकी वाणी से मात्र कृष्ण चर्चा ही निकलती और उनकी लीलाओं का स्मरण -गान ही होता। शरीर से सिर्फ श्रीकृष्ण चेष्टाएँ ही होतीं। इसमें वे इतनी तन्मय हो गयीं थीं कि श्रीकृष्ण के अतिरिक्त उन्हें और कुछ याद ही न रहा। उन्हें बस यह प्रतीक्षा और इच्छा थी कि अतिशीघ्र श्रीकृष्ण आयें। श्रीकृष्ण-भाव में डूबी गोपियाँ यमुनाजी के पावन पुलिन पर -रमण-रेती में आ कर एकसाथ श्रीकृष्ण के गुणों का गान करने लगीं। यह गान/गीत परम भक्तिमय और कृष्ण भक्तों की व्याकुल भावनाओं को व्यक्त करने वाला चिर-नवीन "गोपीगीत" कहलाया।
अगले ब्लॉग पोस्ट में यथा श्रीमदभागवतपुराण में वर्णित संस्कृत में गोपीगीत लिखूँगा जिसका हिंदी में अर्थ भी होगा। भक्तजनों से अनुरोध कि जब वे गोपीगीत को गायें या पाठ करें तो अपने स्वयं और अपने परिचय को किनारे रख दें और अभिमान त्यागी हुई गोपियों की तरह अनुभव करते हुए कृष्णमय हो कर गायें। आप को एक अलग प्रकार की अनुभूति होगी। याद रखें कि गोपियों द्वारा इसी गीत को गाने के बाद श्रीकृष्ण प्रकट हुए थे।
(नोट :-- यह पोस्ट गीता प्रेस द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण से प्रेरित है, अतः शब्द-समूहों और भाषा की समानता हो सकती है।)
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17. देवताओं के वैद्य अश्विनीकुमारों की अदभुत कथा (The great doctors of Gods-Ashwinikumars !)-भाग -2 (चिकित्सा के द्वारा युवावस्था प्रदान करना)
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