गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णुः गुरुर्देवो महेश्वरः।
गुरुः साक्षात् परब्रह्मः तस्मै श्री गुरुवे नमः।।
सतगुरु, सदगुरु |
वन्दे बोधमयं नित्यं गुरुं शंकर रुपिणम्,यमाश्रितो ही वक्रोsपि चन्द्रः सर्वत्र वन्द्यते। |
मैं ऐसे ज्ञानमय, अविनाशी गुरु शंकर की वंदना करता हूँ जिनके आश्रित होने के कारण टेढ़ा होने पर भी चन्द्रमा सर्वत्र पूजे जाते हैं। अर्थात जब गुरु इतना समर्थ हो तो शिष्य के अवगुण भी छिप जाते हैं।
ऐसे गुरु शंकर सिर्फ चन्द्रमा के ही नहीं बल्कि सभी देवताओं के भी गुरु हैं। जैसा कि शिव षडक्षर स्तोत्र में वर्णित है,
आज भी ऐसे सदगुरु हैं जो दिखावे से दूर रहते हुए समाज के बीच में हैं और अपने शिष्यों का उपकार करते हैं। और ऐसे पहुंचे हुए ज्ञानी भी हैं जो समाज से दूर हिमालय में एकांतवास करते हुए साधना करते हैं। जिन लोगों को उनकी तलाश होती है, सच्चे हृदय से तलाशने पर मिल सकते हैं। जरूरत है ऑंखें खुली रखने की ताकि उनकी पहचान हो सके।
ऐसी ही एक संस्था के सदस्य से मैं मिला हूँ। वर्षों साथ रहने के बावजूद उन्होंने इसके बारे में मुझसे कभी नहीं कहा परन्तु जब उन्हें यह पता चला कि मेरा भी अध्यात्म की ओर झुकाव है तभी इसके बारे में चर्चा की। कारण यह कि इस संस्था को अपने सदस्यों की संख्या बेहिसाब बढ़ाने में दिलचस्पी नहीं और न ही अनेक नए आश्रम देश भर में बनाने का उद्देश्य है। आज भी इसका एक मात्र आश्रम गुरु के पुश्तैनी माकान में है। प्रति वर्ष किसी एक शहर में भंडारे का आयोजन होता है जिसमें सभी सदस्य उत्साह के साथ भाग लेते हैं। आयोजन हेतु बाहर वालों से चन्दा नहीं लिया जाता बल्कि सभी सदस्य आपस में ही चन्दा करते हैं। यह चन्दा भी असीमित नहीं होता बल्कि इसकी एक सीमा निश्चित की जाती है यथा रु २०००/- से २००००/- . यह इसलिए ताकि जहाँ तक हो सके सभी सदस्य भागीदार बनें।इसी में अलग सत्र होता है जिसमें गुरु द्वारा प्रवचन एवं शिक्षा दी जाती है। भंडारे के बाद सभी सदस्य वापस घर आते हैं और गुरु के निर्देश के अनुसार प्रतिदिन साधना करते हैं। ऐसे ही गुरु को सदगुरु कहा जा सकता है और गुरु -मंत्र की कसौटी पर परम आदरणीय होते हैं।
यत्र यत्र स्थितो देवः सर्वव्यापी महेश्वरः।
यो गुरुः सर्व देवानां यकाराय नमो नमः।।
पर क्या शिव जैसे गुरु शिष्य बनाने का अभियान चलाते हैं। नहीं, वे तो दुर्गम कैलाश पर्वत के शिखर पर रहते हैं जहाँ हर कोई नहीं पहुँच सकता। कहने का अर्थ यह है की समर्थ गुरु अपना शिष्य बनाने, आश्रम का विस्तार करने और दान के लिए प्रोत्साहित करने के लिए टीवी अथवा अन्य प्रचार का सहारा नहीं लेते। वे तो समाज से अलग अपने ध्यान साधना में लीन रहते हैं। ऐसे गुरु को खोजना पड़ता है। जिन शिष्यों में लगन होती है वे ही सदगुरु तक पहुँच पाते हैं। जो सदगुरु समाज के अंदर रहते भी हैं वे एक साधारण जीवन व्यतीत करते हैं, आडंबर एवं विलासिता से दूर रहते हैं। वे वैसे ही शिष्यों को अपनाते हैं जो सुपात्र हों। इसका एक उदहारण स्वामी योगानंद की प्रसिद्ध पुस्तक "एक योगी की आत्मकथा" से लिया जा सकता है। स्वामी जी के गुरु युक्तेश्वर महाराज और उनके भी गुरु लाहरी महाशय समाज में रहते हुए एक साधारण व्यक्ति का जीवन बिताते थे। लाहरी महाशय तो परम योगी थे। उनके कई शिष्य भी बड़े पहुँचे हुए बने। पर लाहरी महाशय के गुरु 'महावतार बाबाजी' तो समाज से दूर हिमालय में विचरते थे। उन्हें तो कोई खोज भी नहीं सकता था। वे तभी किसी से मिलते थे जब वे स्वयं चाहते थे। लाहरी महाशय भी तभी उनके शिष्य बने जब 'महावतार बाबाजी' ने चाहा। गुरु ने अपने प्रताप से ऐसी परिस्थितियाँ पैदा कर दीं कि लाहरी महाशय को अनजाने में ही हजारों किलोमीटर दूर हिमालय की गोद जाना पड़ा और गुरु ने दर्शन दिए।आज भी ऐसे सदगुरु हैं जो दिखावे से दूर रहते हुए समाज के बीच में हैं और अपने शिष्यों का उपकार करते हैं। और ऐसे पहुंचे हुए ज्ञानी भी हैं जो समाज से दूर हिमालय में एकांतवास करते हुए साधना करते हैं। जिन लोगों को उनकी तलाश होती है, सच्चे हृदय से तलाशने पर मिल सकते हैं। जरूरत है ऑंखें खुली रखने की ताकि उनकी पहचान हो सके।
ऐसी ही एक संस्था के सदस्य से मैं मिला हूँ। वर्षों साथ रहने के बावजूद उन्होंने इसके बारे में मुझसे कभी नहीं कहा परन्तु जब उन्हें यह पता चला कि मेरा भी अध्यात्म की ओर झुकाव है तभी इसके बारे में चर्चा की। कारण यह कि इस संस्था को अपने सदस्यों की संख्या बेहिसाब बढ़ाने में दिलचस्पी नहीं और न ही अनेक नए आश्रम देश भर में बनाने का उद्देश्य है। आज भी इसका एक मात्र आश्रम गुरु के पुश्तैनी माकान में है। प्रति वर्ष किसी एक शहर में भंडारे का आयोजन होता है जिसमें सभी सदस्य उत्साह के साथ भाग लेते हैं। आयोजन हेतु बाहर वालों से चन्दा नहीं लिया जाता बल्कि सभी सदस्य आपस में ही चन्दा करते हैं। यह चन्दा भी असीमित नहीं होता बल्कि इसकी एक सीमा निश्चित की जाती है यथा रु २०००/- से २००००/- . यह इसलिए ताकि जहाँ तक हो सके सभी सदस्य भागीदार बनें।इसी में अलग सत्र होता है जिसमें गुरु द्वारा प्रवचन एवं शिक्षा दी जाती है। भंडारे के बाद सभी सदस्य वापस घर आते हैं और गुरु के निर्देश के अनुसार प्रतिदिन साधना करते हैं। ऐसे ही गुरु को सदगुरु कहा जा सकता है और गुरु -मंत्र की कसौटी पर परम आदरणीय होते हैं।
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