Wednesday, June 1, 2016

सदगुरु की खोज - Search of a Satguru ! True Guru !

गुरुर्ब्रह्मा    गुरुर्विष्णुः  गुरुर्देवो    महेश्वरः। 
गुरुः साक्षात् परब्रह्मः तस्मै श्री गुरुवे नमः।। 

सतगुरु, सदगुरु 
                      यह गुरु मन्त्र स्पष्ट करता है कि गुरु का हमारे जीवन और संस्कृति में कितना ऊँचा स्थान है।गुरु का शाब्दिक अर्थ है शिक्षक।किन्तु वृहत मायने में गुरु वह है जो हमें सन्मार्ग पर चलने को प्रेरित करे और परम ज्ञान, परम सत्य और परमात्मा को प्राप्त करने का उपाय सिखाए ताकि मानव जीवन प्राप्त करने का हमारा उद्देश्य पूर्ण हो, हमारा उद्धार हो। ऐसे गुरु ही सच्चे गुरु होते हैं जो कहलाते हैं, सत् +गुरु = द्गुरु। लेकिन द्गुरु को पहचानना और पाना आसान नहीं है। आज के इस प्रचार युग में एक से बढ़कर एक बाबा और ज्ञानी नजर आते हैं जो शिष्य की पात्रता जांचे बिना ही थोक के भाव से शिष्य बनाने को तत्पर रहते हैं। इनके बड़े बड़े आश्रम देश विदेश के कई शहरों में फैले होते हैं और इनका संगठन अनुयायियों की संख्या बढ़ाने का हर प्रयास करता है। ये गुरु शिष्यों को तो माया का त्याग करने एवं दान के लिए प्रेरित करते हैं किन्तु स्वयं मायाजाल में फंसे हुए विलासिता का जीवन जीते हैं। यही नहीं कुछ गुरु तो शिष्यों को भगवान की पूजा करने की बजाय स्वयं की ही पूजा करने का आदेश देते हैं और विडम्बना तो देखिये, इसका कारण ऊपर लिखे गुरु मंत्र को ही बताते हैं। कहते हैं जब शास्त्रों में गुरु को ही ब्रह्मा, विष्णु और महेश माना गया है तो गुरु की पूजा ही त्रिदेव की पूजा है। क्या ऐसे गुरु द्गुरु हो सकते हैं। गुरु -मन्त्र का ऐसा दुरुपयोग !
                गुरु -मन्त्र के शब्दों को नहीं बल्कि इसके भाव को देखना चाहिए। इसका भाव है कि गुरु का स्थान ईश्वर तुल्य है। जितना आदर और भक्ति हमें भगवान पर होता है उतना ही गुरु पर भी हो। क्योंकि गुरु पर विश्वास और गुरु का सम्मान किये बिना हम उस पथ पर बढ़ नहीं सकते जिस पथ पर हमें जाना है। आध्यात्मिक ज्ञान की बात तो दूर साधारण विद्या भी जिस गुरु से सीखें उनके प्रति भी आदर और सम्मान होना आवश्यक है। गुरु के प्रति सम्मान से सम्बंधित एक कहानी याद आ रही है जो वर्षों पहले सुनी थी:-
             "एक राजा के आम के बाग़ में बड़े रसीले और स्वादिष्ट आम लगे थे। राजा रोज उन्हें देख कर खुश होता। पर एक दिन उसे लगा कि कोई चोरी से आम तोड़ रहा है। बाग के बाहर पहरेदार बैठाए पर चोर का पता नहीं चला। उसने स्वयं चोर पकड़ने की सोची। रात भर बाग़ में बैठा रहा कोई न आया। सवेरे जब चलने को सोचा तो बाग़ में झाडूवाला आया। राजा चुपके से पीछे लगा। उसने देखा कि झाड़ूवाले ने कुछ ऐसा किया कि आम लगे ऊपर की डालियां खुद उसके पास झुक गईं और उसने चुनकर सुन्दर आम तोड़े फिर अपने टोकरी में रख लिए। राजा ने उसे पकड़ा तो वह माफ़ी मांगने लगा। राजा एक शर्त पर माफ़ करने को तैयार हुआ यदि अपनी विद्या वह सिखाये। झाड़ू वाला मान गया। कई दिनों तक राजा वह विद्या सीखता रहा पर सीख न पाया। राजा गुस्से में बोला 'तू मुझे सही विद्या नहीं सिखा रहा, मैं तेरा सर कलम कर दूंगा।' झाड़ू वाला बोला,'गलती मेरी नहीं बल्कि आपकी है। जब तक गुरु का सम्मान नहीं करेंगे विद्या सिद्ध नहीं होगी। आप मुझे झाड़ू वाला नहीं, गुरु की तरह देखें तभी सीख पायेंगे।' राजा को अपनी गलती का एहसास हुआ। उसने उसे गुरु माना और विद्या सीख ली।"
             गुरु ईश्वर तुल्य है पर गुरु ईश्वर नहीं है। जब गुरु शिष्य को ईश्वर से मिला देता है तो कृतज्ञ हो कर शिष्य गुरु के पाँव छूता है और कहता है,
गुरु गोविन्द  दोउ खड़े   काको लागों पांय
बलिहारी गुरु आपकी गोविन्द दियो बताय
              स्पष्ट है कि गुरु शिष्य को ईश्वर की ओर ले जाता है, खुद को ईश्वर नहीं बताता। ऐसा ही गुरु द्गुरु होता है। द्गुरु हर किसी को शिष्य बनाने  को तैयार नहीं होता क्योंकि हर शिष्य सुपात्र नहीं होता। पात्र का शाब्दिक अर्थ बर्तन होता है। हम व्यक्ति की तुलना बर्तन से ही करें। अगर हमें दूध लेना है तो सिर्फ हमारे पास बर्तन होना ही काफी नहीं है बल्कि बर्तन का सीधा होना भी चाहिए। बर्तन भी ऐसा हो जिसका मुंह बोतल जैसा संकीर्ण न हो। उसमें छेद न हो।तभी तो यह बर्तन (पात्र) सुपात्र होगा। इसी प्रकार द्गुरु शिष्य बनाने से पहले व्यक्ति में पात्रता देखता है। ज्ञान रूपी दूध प्राप्त करने हेतु शिष्य का सुपात्र होना जरूरी है ताकि ज्ञान रुपी दूध उसके अंदर समा सके। शिष्य बनाने से पहले गुरु शिष्य की पात्रता की परीक्षा भी ले सकता है।  
                बिल्कुल इसी प्रकार व्यक्ति को भी किसी को गुरु बनाने से पहले सोच समझ लेना चाहिए। इसके लिए विचाराधीन व्यक्ति की प्रसिद्धि अथवा प्रचार से प्रभावित नहीं होना चाहिए। न ही भेड़ - चाल चलनी चाहिए। कई बार अपने कुछ परिचित या रिश्तेदार को किसी को गुरु बनाते देख लोग स्वयं भी यही करना चाहते हैं। पर हमेशा यह ध्यान में रखना चाहिए कि गुरु हमारी नौका का मांझी होता है। उसमें इतना सामर्थ्य होना चाहिए कि हमारी जीवन रूपी नौका को सही दिशा दे सके और भवसागर को पार करने में हमारी मदद कर सके। यदि गुरु स्वयं ही कमजोर हो तो शिष्य का क्या उद्धार कर सकेगा ? गोस्वामी तुलसीदास कृत रामचरितमानस के प्रारम्भ का तीसरा श्लोक ही इस प्रश्न का उत्तर देता है कि गुरु कैसा हो :-
वन्दे  बोधमयं  नित्यं  गुरुं  शंकर रुपिणम्,यमाश्रितो ही वक्रोsपि चन्द्रः सर्वत्र वन्द्यते। 


मैं ऐसे ज्ञानमय, अविनाशी गुरु शंकर की वंदना करता हूँ जिनके आश्रित होने के कारण टेढ़ा होने पर भी चन्द्रमा सर्वत्र पूजे जाते हैं। अर्थात जब गुरु इतना समर्थ हो तो शिष्य के अवगुण भी छिप जाते हैं। 
                   ऐसे गुरु शंकर सिर्फ चन्द्रमा के ही नहीं बल्कि सभी देवताओं के भी गुरु हैं। जैसा कि शिव षडक्षर स्तोत्र में वर्णित है, 
यत्र यत्र स्थितो देवः    सर्वव्यापी महेश्वरः।
यो गुरुः सर्व देवानां यकाराय नमो नमः।।
              पर  क्या शिव जैसे गुरु शिष्य बनाने का अभियान चलाते हैं। नहीं, वे तो दुर्गम कैलाश पर्वत के शिखर पर रहते हैं जहाँ हर कोई नहीं पहुँच सकता। कहने का अर्थ यह है की समर्थ गुरु अपना शिष्य बनाने, आश्रम का विस्तार करने और दान के लिए प्रोत्साहित करने के लिए टीवी अथवा अन्य प्रचार का सहारा नहीं लेते। वे तो समाज से अलग अपने ध्यान साधना में लीन रहते हैं। ऐसे गुरु को खोजना पड़ता है। जिन शिष्यों में लगन होती है वे ही सदगुरु तक पहुँच पाते हैं। जो सदगुरु समाज के अंदर रहते भी हैं वे एक साधारण जीवन व्यतीत करते हैं, आडंबर एवं विलासिता से दूर  रहते हैं। वे वैसे ही शिष्यों को अपनाते हैं जो सुपात्र हों।  इसका एक उदहारण स्वामी योगानंद की प्रसिद्ध पुस्तक "एक योगी की आत्मकथा" से लिया जा सकता है। स्वामी जी के गुरु युक्तेश्वर महाराज और उनके भी गुरु लाहरी महाशय समाज में रहते हुए एक साधारण व्यक्ति का जीवन बिताते थे। लाहरी महाशय तो परम योगी थे। उनके कई शिष्य भी बड़े पहुँचे हुए बने। पर लाहरी महाशय के गुरु 'महावतार बाबाजी' तो समाज से दूर हिमालय में विचरते थे। उन्हें तो कोई खोज भी नहीं सकता था। वे तभी किसी से मिलते थे जब वे स्वयं चाहते थे। लाहरी महाशय भी तभी उनके शिष्य बने जब 'महावतार बाबाजी' ने चाहा। गुरु ने अपने प्रताप से ऐसी परिस्थितियाँ पैदा कर दीं कि लाहरी महाशय को अनजाने में ही हजारों किलोमीटर दूर हिमालय की गोद जाना पड़ा और गुरु ने दर्शन दिए।
                   आज भी ऐसे सदगुरु हैं जो दिखावे से दूर रहते हुए समाज के बीच में हैं और अपने शिष्यों का उपकार करते हैं। और ऐसे पहुंचे हुए ज्ञानी भी हैं जो समाज से दूर हिमालय में एकांतवास करते हुए साधना करते हैं। जिन लोगों को उनकी तलाश होती है, सच्चे हृदय से तलाशने पर मिल सकते हैं। जरूरत है ऑंखें खुली रखने की ताकि उनकी पहचान हो सके।
                   ऐसी ही एक संस्था के सदस्य से मैं मिला हूँ। वर्षों साथ रहने के बावजूद उन्होंने इसके बारे में मुझसे कभी नहीं कहा परन्तु जब उन्हें यह पता चला कि मेरा भी अध्यात्म की ओर झुकाव है तभी इसके बारे में चर्चा की। कारण यह कि इस संस्था को अपने सदस्यों की संख्या बेहिसाब बढ़ाने में दिलचस्पी नहीं और न ही अनेक नए आश्रम देश भर में बनाने का उद्देश्य है। आज भी इसका एक मात्र आश्रम गुरु के पुश्तैनी माकान में है। प्रति वर्ष किसी एक शहर में भंडारे का आयोजन होता है जिसमें सभी सदस्य उत्साह के साथ भाग लेते हैं। आयोजन हेतु बाहर वालों से चन्दा नहीं लिया जाता बल्कि सभी सदस्य आपस में ही चन्दा करते हैं। यह चन्दा भी असीमित नहीं होता बल्कि इसकी एक सीमा निश्चित की जाती है यथा रु २०००/- से २००००/- . यह इसलिए ताकि जहाँ तक हो सके सभी सदस्य भागीदार बनें।इसी में अलग सत्र होता है जिसमें  गुरु द्वारा प्रवचन एवं शिक्षा दी जाती है। भंडारे के बाद सभी सदस्य वापस घर आते हैं और गुरु के निर्देश के अनुसार प्रतिदिन साधना करते हैं। ऐसे ही गुरु को सदगुरु कहा जा सकता है और गुरु -मंत्र की कसौटी पर परम आदरणीय होते हैं।  
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