Sunday, August 21, 2016

कृष्ण जन्माष्टमी -परमात्मा के पूर्ण अवतार का समय !

जन्माष्टमी परमात्मा श्री कृष्ण के सम्पूर्ण कलाओं के साथ पृथ्वी पर अवतार का समय है। परमात्मा के सगुण रूप और शक्ति का साक्षात्कार पृथ्वी के मनुष्यों को कराने हेतु श्री कृष्ण ने कंस के कारागार में जन्म लिया ताकि ईश्वर और उसकी सत्ता पर विश्वास दृढ़ हो। जन्म के साथ ही उनकी लीला प्रारम्भ हो गई। जो कभी नहीं हुआ था वह हुआ। स्वयं ही रक्षकों का सो जाना, कारागार के ताले खुल जाना, भादों की अँधेरी अष्टमी की रात में बाढ़ से लबालब यमुना को बिना किसी की सहायता के वसुदेव का कृष्ण को सर पर रख कर सहज ही पार कर लेना, नन्द जी के घर में बिना किसी के जाने कृष्ण को यशोदा के पास रखना और बदले में बच्ची को सर पर रख कर सुरक्षित वापस आ जाना फिर कारागार का माहौल पूर्ववत हो जाना - धरती पर आते ही इतने सारे चमत्कार एक साथ हो जाना कृष्णलीला का अद्-भुत प्रारम्भ था। श्रीकृष्ण की बाललीलाओं में ही परमात्मा की शक्तियों का ऐसा प्रदर्शन हुआ जो अभूतपूर्व था, अकल्पनीय था। बाल्यावस्था में ही उनकी बुद्धि से बड़े -बड़े प्रभावित थे। उनका प्रभाव ही था कि समाज में बदलाव की प्रक्रिया प्रारम्भ हुई। कई रूढ़ियाँ टूटीं, इन्द्र के स्थान पर गोवर्धन की पूजा प्रारम्भ हुई। 
बंसीधर /गोपाल
                  भगवान श्रीकृष्ण की चतुराई के कौन बुद्धिमान कायल नहीं थे। अर्जुन ने भगवान की अक्षौहिणी सेना के बदले स्वयं भगवान को ही चुना। वह भी तब जब श्रीकृष्ण महाभारत के युद्ध में अस्त्र -शस्त्र का स्वयं उपयोग न करने हेतु वचनबद्ध थे। सारथी के रूप में भी सेना के बदले अर्जुन को श्रीकृष्ण स्वीकार्य थे। महाभारत एक ऐसा अभूतपूर्व युद्ध था जिसमे एक से बढ़कर एक महारथी योद्धा विध्वंशकारी अस्त्र - शस्त्र के साथ उपस्थित थे, उन्होंने दर्शनीय युद्ध भी किये परंतु पूरे अठारह दिनों तक चले महायुद्ध का नायक सहज ही निःशस्त्र श्रीकृष्ण थे। जिस बर्बरीक ने पूरा युद्ध स्वयं देखा उनके इस स्पष्ट अभिमत से कौन सहमत न होगा। वही बर्बरीक जिसने भगवान की लीलाओं को इस लोकवासियों को देखने हेतु अपना जीवन दान कर दिया और भगवान ने प्रसन्न हो कर उन्हें अपना नाम और वरदान दिया। उन बर्बरीक को हम खाटू - श्याम के नाम से जानते हैं। 
                 भगवान श्रीकृष्ण की चतुराई और रणनीति कालयवन के वध के प्रसंग में अचरज भरी है। अपनी लीलाओं में कभी वे सीधे बल का प्रयोग करते हैं तो कहीं बुद्धि का, कहीं वे कठोर दीखते है तो कहीं करुणा से परिपूर्ण, कहीं अपने भक्तों के हृदय से अभिमान का छोटा सा कतरा भी निकालने से नहीं चूकते तो कहीं निष्काम प्रेम का अनुपम उदाहरण देते हैं।कौन सी कला नहीं दिखलाते हमें ? गोपियों के साथ निष्काम प्रेम को वही समझ सकता है जिसके हृदय में भगवान के चरण कमल बसते हों अन्यथा अनेक तो इसे  लैला - मजनू जैसा प्रेम समझते हैं। गोपियों का बिना किसी फल की इच्छा के श्रीकृष्ण के प्रति ऐसा समर्पण भक्ति की उस दिशा को दिखलाता है जिधर पहले किसी ने न देखा था। न ज्ञान चाहिए न योग चाहिए, न यज्ञ चाहिए न कर्मकांड - बस भगवान के चरणों में अनवरत निष्काम प्रेम चाहिए। ईश्वर कुछ देने को भी तैयार हो तो यही मांगें कि इसी तरह उनके चरणों में अनुराग बना रहे। इच्छा भी हो तो मोक्ष की नहीं जो ज्ञानीजन बतलाते हैं बल्कि मरने के बाद भी ईश्वर के चरणों में ही गति मिले। जब ऐसे भाव भक्त के हृदय में घर करते हैं तो प्रेम की अधिकता से जहाँ भी श्रीकृष्ण की प्रतिमा के दर्शन होते हैं आंखें भर आती हैं। 
                    हम साधारण मनुष्यों की तो क्या बात जब वेद व्यास जैसे ज्ञानी भी अनेक पुराण लिखने के बाद भी बेचैन रहें और उन्हें चैन तभी आये जब वे श्रीमद्भागवत महापुराण लिख लें। वही भागवत कथा जिसे सुनकर राजा परीक्षित का मृत्यु भय दूर हुआ। वही भागवत कथा जिसमें भगवान श्रीकृष्ण की लीलाओं और अन्य कथाओं का विस्तृत विवरण है पर मात्र चार श्लोकों में भगवान ने बिल्कुल स्पष्ट कर दिया है कि वे कौन हैं, उनकी माया क्या हैं और ये जगत क्या है -इन चार श्लोकों को "चतुश्लोकी भागवत" के नाम से जाना जाता है जो पूरे श्रीमद्भागवत महापुराण का सार है।     
                  महाभारत प्रारम्भ होने से पहले गीता का जो उपदेश भगवान ने दिया वह आज भी करोड़ों हिंदुओं का सच्चे मार्ग पर चलने हेतु मार्गदर्शन करता है। कृष्ण जन्म भगवान का हम मनुष्यों पर महाउपकार है। उनके जन्म की वर्षगॉँठ को "जन्माष्टमी" त्यौहार के रूप में प्रतिवर्ष मनायें। इस दिन उपवास रख, फलाहार रख या सात्विक आहार के साथ जैसे भी हो परंतु भक्तिभाव के साथ भगवान श्रीकृष्ण के जन्म का उनके नाम संकीर्तन के साथ प्रतीक्षा करें ताकि हमारे जीवन में कभी भय-क्लेश का प्रवेश न हो और सुखपूर्वक हमारा जीवन भगवद्भक्ति के साथ बीते। 
जय श्री कृष्ण !      
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Thursday, July 28, 2016

क्या सतयुग में पहाड़ों के पंख हुआ करते थे ?

Flying Mountains-उड़नेवाले पर्वत /पहाड़ों के पंख 
                  यह बात विचित्र लगती है कि पहाड़ों के पंख हो सकते हैं और वे उड़ भी सकते हैं | ऐसी कपोल कल्पनाएँ हमने फिल्मों में ही देखी हैं | प्रसिद्ध हॉलीवुड फिल्म अवतार में हमने हवा में तैरते पर्वतों को देखा है पर उसके पीछे कुछ अलग ही वैज्ञानिक सिद्धांत दिए गए हैं पर धार्मिक पुस्तकों में पंख वाले पर्वतों का वर्णन मिलता है जो सजीव की भांति उड़ सकते थे |ऐसा ही एक प्रसंग महर्षि वाल्मीकि द्वारा रचित रामायण के सुन्दरकाण्ड में मिलता है जब हनुमान द्वारा समुद्र लंघन किया जा रहा होता है | भगवान श्री राम के कार्य के लिए हनुमान को समुद्र लंघन करते देख स्वयं समुद्र ने मैनाक नामक पर्वत से अनुरोध किया कि वह हनुमान को अपने ऊपर कुछ समय विश्राम करने को कहे | बाबा तुलसीदास ने रामचरित मानस में इस प्रसंग को बहुत संक्षेप में इतना ही लिखा है,



जलनिधि रघुपति दूत विचारी | तैं मैनाक होहु श्रम हारी ||

हनूमान तेहिं परसा कर पुनि कीन्ह प्रणाम,
राम काज कीन्हें बिना   मोहे कहां विश्राम |




(अर्थात समुद्र ने हनुमान को श्री राम के दूत जान कर मैनाक से कहा कि तुम हनुमान जी के श्रम को दूर करो , उन्हें विश्राम दो किन्तु हनुमान जी ने मैनाक को छूकर उन्हें प्रणाम किया और उनके अनुरोध को अस्वीकार करते हुए कहा कि जबतक श्री राम जी के कार्य को पूरा न कर लूँ मैं विश्राम न कर पाउँगा |)
                     पर महर्षि वाल्मीकि ने रामायण में इस प्रसंग को थोड़ा विस्तार से लिखा है | समुद्र ने सोचा कि भगवान श्री राम के पूर्वज इक्ष्वाकुवंशी सगर महाराज तो मेरी उन्नति करने वाले थे अतः इस समय राम जी के दूत की सहायता करना मेरा कर्तव्य है | यह सोचकर उन्होंने स्वर्ण की चोटी वाले मैनाक के पास जाकर कहा,"हे गिरिवर ! देवराज इंद्र ने तुम्हें पातालवासी असुरों को उपर आने से रोकने के लिए एक परिघ की तरह स्थापित कर रखा है इसी से तुम असीम पाताल का द्वार रोके रहते हो | तुम सीधे तिरछे उपर नीचे किसी भी तरफ बढ़ सकते हो | अतएव हे पर्वोत्तम ! मैं तुमसे कहता हूँ कि तुम उपर उठो | देखो ये बलवान हनुमानजी तुम्हारे उपर पहुँचना ही चाहते हैं |मैं इक्ष्वाकुवंशियों का हितैषी हूँ, अतः मेरा यह कर्तव्य है कि मैं इनकी कुछ सहायता करूँ। तुम हनुमानजी के श्रम को हरने के लिए ऊपर उठो।" 
                       तब स्वर्णिम शिखरवाला बड़े बड़े वृक्षों और लताओं से युक्त मैनाक पर्वत समुद्र के जल को चीर कर वैसे ही ऊपर उठा जैसे मेघों को चीर कर सूर्यदेव उदय होते हैं। उस समय सौ सूर्यों की तरह पर्वतश्रेष्ठ मैनाक की शोभा हुई। तेजी से विशालकाय पर्वत को सामने उठे हुए देखकर हनुमानजी ने सोचा कि अचानक कोई विघ्न उपस्थित आ खड़ा हुआ है। अतः उन्होंने छाती की ठोकर से मैनाक को समुद्र के भीतर ठेल दिया। मैनाक उनके बल और वेग को देख कर बहुत प्रसन्न हुआ, वह पुनः ऊपर उठा और गर्जा। फिर मानव रूप धारण कर अपने पर्वत पर खड़ा हो कर आकाश में स्थित हनुमानजी से प्रसन्न एवं प्रेमपूर्वक बोला -"हे वानरोत्तम !यह तुम बड़ा ही कठिन कार्य करने को उद्धत हुए हो। अतः तुम थोड़ी देर मेरे वृक्षों से स्वादिष्ट एवं सुगंधयुक्त फलों और कंद मूलों को खाकर मेरे श्रृंग पर ठहरकर विश्राम कर लो फिर सुखपूर्वक आगे चले जाना।इक्ष्वाकुवंशियों का कृतज्ञ यह समुद्र श्री रामजी के हितसाधन में लगे आप का प्रत्युपकार करना चाहते हैं क्योंकि उपकार करने वाले का उपकार करना सनातन धर्म है। हे कपिश्रेष्ठ, मेरा भी तुम्हारे साथ कुछ सम्बन्ध है जो तीनो लोकों में प्रसिद्ध है। तुम देवताओं में श्रेष्ठ महात्मा पवनदेव के पुत्र हो। तुम्हारी पूजा करना मानो पवनदेव की पूजा करना है। अतः तुम मेरे भी पूज्य हो। इसके अतिरिक्त तुम्हारे पूज्य होने का एक और भी कारण  है उसे सुनो। हे तात ! प्राचीनकाल में सतयुग में सभी पहाड़ों के पंख हुआ करते थे। वे पंखधारी पहाड़ गरुड़ जी की तरह बड़े वेग से चारो तरफ उड़ा करते थे। पर्वतों को उड़ते देख देवता, ऋषि तथा अन्य प्राणी उनके अपने ऊपर गिरने की आशंका से डर गए। तब हज़ार नेत्रों वाले इंद्र ने कुपित होकर अपने वज्र से इधर उधर घूमने वाले हज़ारों पहाड़ों के पंख काट डाले। जब देवराज इंद्र वज्र उठाकर मेरी ओर आये तब महात्मा पवनदेव ने मुझे सहसा उठा कर खारे समुद्र में फेंक दिया। इस प्रकार उन्होंने मेरे समस्त पंखों की रक्षा की।हे पवननंदन !तुम्हारे साथ मेरा यही सम्बन्ध है। तुम एक तो मेरे पूज्य पवनदेव के पुत्र हो दूसरे कपियों में मुख्य और बड़े गुणवान होने के कारण मेरे मान्य हो, अतः मैं तुम्हारी पूजा करता हूँ। तुम्हारे ऐसा करने पर मेरी और सागर की प्रीती और भी बढ़ेगी। अतः हे महाकपे तुम अपना श्रम दूर कर, मेरा आतिथ्य ग्रहण कर मुझे प्रसन्न करो।"
                  जब मैनाक ने इस प्रकार कहा तब कपिश्रेष्ठ हनुमान ने कहा,"मैं आपके आतिथ्य से प्रसन्न हूँ, आपने मेरा सत्कार किया। अब आप अपने मन में किसी प्रकार का खेद न करें। एक तो मुझे कार्य की जल्दी है, दूसरे समय भी बहुत हो चुका है और तीसरे मैंने वानरों के सामने यह प्रतिज्ञा भी की है कि मैं बीच में कहीं न ठहरूँगा।"  
                       यह कहकर कपिश्रेष्ठ हनुमान जी ने मैनाक को हाथ से छुआ और हँसते हुए आकाश में उड़ चले। तब तो मैनाक और समुद्र ने हनुमान जी को बड़े प्रतिष्ठा की दृष्टि से देखा, उनको आशीर्वाद दिया और उनका अभिनन्दन किया। हनुमान जी ने आकाश में पहुँच कर मैनाक की ओर देखा फिर विमल आकाश में बिना किसी अवलम्ब के उड़ चले। हनुमान जी का यह दुष्कर कार्य देख कर सभी देवता, सिद्ध और महर्षिगण उनकी प्रशंसा करने लगे।उस समय शचीपति इंद्र स्वर्ण शिखर वाले मैनाक से प्रसन्न होकर गदगद वाणी से बोले,"हे शैलेन्द्र ! मैं तुम्हारे इस कार्य से बहुत प्रसन्न हूँ, तुम्हें अभयवर देता हूँ कि तू अब जहाँ चाहे वहाँ सुखपूर्वक रह सकता है।" इंद्र से अभयदान पाकर मैनाक प्रसन्न हुआ और सुस्थिर हुआ।
                   इस प्रकार महर्षि वाल्मीकि रचित रामायण के मैनाक -हनुमान संवाद के अनुसार सतयुग में पहाड़ों के पंख हुआ करते थे जिन्हें इंद्र ने अपने वज्र से काट डाला ताकि वे उड़ न सकें और पृथ्वी के प्राणी निर्भय रह सकें। पवनदेव की कृपा से मात्र मैनाक के ही पंख बच पाए। 
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Monday, July 18, 2016

सावन में शिव पूजा - Shiva Worship in Savan !

ॐ नमः शिवाय। 
ॐ विशुद्ध ज्ञान देहाय त्रिवेदी दिव्य चक्षुषे।
श्रेयः प्राप्ति निमित्ताय नमः सोमार्द्ध धारिणे।। 
   
(मैं अर्द्ध चन्द्र को धारण करने वाले उन भगवन शंकर को नमस्कार करता हूँ जिनका समस्त शरीर ही विशुद्ध ज्ञान है, तीनों वेद ही जिनके दिव्य नेत्र हैं और जो कल्याण प्राप्त करने के साधन हैं)

               शिव कल्याणकर्ता हैं, उनकी आराधना कभी भी की जाय वह कल्याणकारी होती है। वैसे तो शिव आशुतोष हैं अर्थात शीघ्र प्रसन्न होने वाले परन्तु ऐसा विश्वास है की सावन के पवित्र मास में उनकी पूजा शीघ्र फलदायी होती है क्योंकि भोलेनाथ अत्यन्त प्रसन्न होते हैं। सोमवार का दिन शिव पूजा का विशेष दिन होता है परन्तु जब सोमवार सावन का हो तो कहना ही क्या ! 


                  सावन जीव-जंतुओं एवं वनस्पतियों की संख्या में वृद्धि का समय होता है। अतः शिव-भक्त सावन में मांसाहार और साग का भक्षण नहीं करते। हृदय में भक्तिभाव के साथ नित्य शिव का पूजन और यथासम्भव शिव मंदिर को जाना अच्छा लगता है। सावन का सोमवार व्रत सोमवारी के नाम से जाना जाता है। इस दिन शिव-मंदिरों में भक्तों की भीड़ देखते ही बनती है। भक्त यथासम्भव उपवास अथवा फलाहार रखते हुए शिव-पूजन करते हैं। शिव को प्रसन्न करने के लिए शिव को प्रिय वस्तुओं का अर्पण करते हैं। यथा गंगाजल, बिल्व-पत्र (बेलपत्र), अर्क-पुष्प, ध्रुव-पुष्प,  धतूरा, भांग, कनेर, दूर्वा, इत्यादि। 
                       कांवड़ यात्रा सावन में आम बात है। भक्त नदी में स्नान कर दो पात्रों  में जल भरते हैं और पैदल चल कर प्रसिद्ध शिव मंदिरों में अर्पण करते हैं। इस यात्रा में बोल-बम का नारा भक्ति के साथ साथ जोश भी भरता है। स्थानीय तौर पर यह कांवड़ यात्रा सोमवार के दिन अधिक होती है जब भक्त आधी रात को ही नदी स्नान कर कुछ किलोमीटर की यात्रा कर बोल-बम के नारे के साथ जलार्पण हेतु मंदिर पहुँचते हैं। यथा राँची शहर में स्वर्णरेखा नदी में स्नान कर कांवरिये पहाड़ी मंदिर में जल चढ़ाते हैं। परन्तु लम्बी दूरी वाली कांवड़ यात्रा में प्रतिदिन जलार्पण होता है यद्यपि सोमवार को भीड़ विशेष होती है। सबसे प्रसिद्ध कांवड़ यात्रा बिहार के सुल्तानगंज से झारखण्ड के बैद्यनाथधाम तक होती है जो लगभग १०० किलोमीटर है।सुल्तानगंज में गंगा का प्रवाह उत्तर की ओर है अतः यहाँ गंगा-स्नान एवं गंगाजल का बहुत ही विशेष महत्व है जहाँ का जल भोलेनाथ को बहुत प्रिय है। कांवरिये पैदल तो चलते ही हैं और वो भी बिना जूते चप्पल के। प्रतिदिन इनकी संख्या लाखों में पहुँच जाती है।सभी एक दूसरे को बम के नाम से सम्बोधित करते हैं। अधिकांश कांवरिये दो में से एक गंगाजल का पात्र देवघर के बैद्यनाथ ज्योतिर्लिंग पर अर्पण करते हैं जबकि दूसरा वहां से ४० किलोमीटर दूर बासुकीनाथ के नागेश ज्योतिर्लिंग पर। 
                  यहाँ के अतिरिक्त देश के विभिन्न भागों में काँवर यात्राएँ अलग अलग दूरियों के लिए होती हैं। शिव में भक्तों का अपार विश्वास ही है जो सावन में अनेक रूपों में नजर आता है।
                

 सावन में शिव का रुद्राभिषेक विशेष मनोरथों को प्रदान करने वाला होता है। जल, गंगाजल, दूध और गन्ने के रस की शिवलिंग पर अविरल धारा से अभिषेक और रुद्र अष्टाध्यायी का ब्राह्मणों द्वारा निरन्तर पाठ रुद्राभिषेक को पूर्ण करता है। मिट्टी से बनाये गए "पार्थिव शिवलिङ्ग" का भी सावन में अभिषेक किया जाता है। [Parthiv Shivling - पार्थिव शिवलिङ्ग को जानने के लिए यहाँ क्लिक करें।]
                 शिवभक्त प्रातःकाल से ही शिवध्यान और शिवप्रातःस्मरण स्तोत्र का मनन करते हैं। फिर शिवमानस पूजा, शिवपंचाक्षरी स्तोत्र, शिवमहिम्न स्तोत्र, शिवषडक्षर स्तोत्र, रुद्राष्टक, लिंगाष्टक इत्यादि द्वारा शिव-आराधना करते हैं। शिवमहिम्न स्तोत्र के अनुसार :-
महेशान्नापरो देवो     महिम्नो नापरा स्तुतिः। अघोरान्नापरो मन्त्रो नास्ति तत्त्वं गुरोः परम्
अर्थात महेश से बड़े कोई देव नहीं, महिम्न स्तोत्र से बड़ी कोई स्तुति नहीं अघोर से बड़ा कोई मन्त्र नहीं और गुरु से बड़ा कोई तत्व नहीं। अघोर शिव को ही कहते हैं। कोई भी मन्त्र अघोर अर्थात शिव से बड़ा नहीं है। इसका अर्थ यह भी कहा जाता है कि अघोर मन्त्र से बड़ा कोई मन्त्र नहीं और "ॐ नमः शिवाय" को ही अघोर मन्त्र भी कहा जाता है। परन्तु शिव की स्तुति हेतु एक अघोर मन्त्र यह भी है, 
ॐ अघोरेभ्योSथ घोरेभ्यो घोरघोरतरेभ्यः सर्वेभ्यः।
सर्वशर्वेभ्यो       नमोस्तेSस्तु       रुद्र      रुपेभ्यः।।

(जो अघोर हैं, जो घोर हैं और जो घोर से भी घोरतर हैं, सर्वसंहारकरी रुद्र को मैं सभी रूपों में नमस्कार करता हूँ।)
                इस प्रकार शिव-आराधना करते हुए संध्या पूजन के समय शिवताण्डवस्तोत्र का पाठ एवं शिव की आरती करते हैं। भगवान महादेव से प्रार्थना करते हैं,
ॐ पञ्चवक्त्राणि विद्महे महादेवाय धीमहि तन्नो रुद्रः प्रचोदयात।

(हम पाँच मुखों वाले महादेव को जाने, उनका ध्यान करें, वे रुद्र हमें सन्मार्ग की ओर  प्रेरित करें।) 
सावन का पवित्र माह हमें सर्वव्यापी, कल्याणकारी परमात्मा शिव के सान्निध्य में जाने का और उनसे जुड़ने का अवसर प्रदान करता है। 
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Wednesday, June 1, 2016

सदगुरु की खोज - Search of a Satguru ! True Guru !

गुरुर्ब्रह्मा    गुरुर्विष्णुः  गुरुर्देवो    महेश्वरः। 
गुरुः साक्षात् परब्रह्मः तस्मै श्री गुरुवे नमः।। 

सतगुरु, सदगुरु 
                      यह गुरु मन्त्र स्पष्ट करता है कि गुरु का हमारे जीवन और संस्कृति में कितना ऊँचा स्थान है।गुरु का शाब्दिक अर्थ है शिक्षक।किन्तु वृहत मायने में गुरु वह है जो हमें सन्मार्ग पर चलने को प्रेरित करे और परम ज्ञान, परम सत्य और परमात्मा को प्राप्त करने का उपाय सिखाए ताकि मानव जीवन प्राप्त करने का हमारा उद्देश्य पूर्ण हो, हमारा उद्धार हो। ऐसे गुरु ही सच्चे गुरु होते हैं जो कहलाते हैं, सत् +गुरु = द्गुरु। लेकिन द्गुरु को पहचानना और पाना आसान नहीं है। आज के इस प्रचार युग में एक से बढ़कर एक बाबा और ज्ञानी नजर आते हैं जो शिष्य की पात्रता जांचे बिना ही थोक के भाव से शिष्य बनाने को तत्पर रहते हैं। इनके बड़े बड़े आश्रम देश विदेश के कई शहरों में फैले होते हैं और इनका संगठन अनुयायियों की संख्या बढ़ाने का हर प्रयास करता है। ये गुरु शिष्यों को तो माया का त्याग करने एवं दान के लिए प्रेरित करते हैं किन्तु स्वयं मायाजाल में फंसे हुए विलासिता का जीवन जीते हैं। यही नहीं कुछ गुरु तो शिष्यों को भगवान की पूजा करने की बजाय स्वयं की ही पूजा करने का आदेश देते हैं और विडम्बना तो देखिये, इसका कारण ऊपर लिखे गुरु मंत्र को ही बताते हैं। कहते हैं जब शास्त्रों में गुरु को ही ब्रह्मा, विष्णु और महेश माना गया है तो गुरु की पूजा ही त्रिदेव की पूजा है। क्या ऐसे गुरु द्गुरु हो सकते हैं। गुरु -मन्त्र का ऐसा दुरुपयोग !
                गुरु -मन्त्र के शब्दों को नहीं बल्कि इसके भाव को देखना चाहिए। इसका भाव है कि गुरु का स्थान ईश्वर तुल्य है। जितना आदर और भक्ति हमें भगवान पर होता है उतना ही गुरु पर भी हो। क्योंकि गुरु पर विश्वास और गुरु का सम्मान किये बिना हम उस पथ पर बढ़ नहीं सकते जिस पथ पर हमें जाना है। आध्यात्मिक ज्ञान की बात तो दूर साधारण विद्या भी जिस गुरु से सीखें उनके प्रति भी आदर और सम्मान होना आवश्यक है। गुरु के प्रति सम्मान से सम्बंधित एक कहानी याद आ रही है जो वर्षों पहले सुनी थी:-
             "एक राजा के आम के बाग़ में बड़े रसीले और स्वादिष्ट आम लगे थे। राजा रोज उन्हें देख कर खुश होता। पर एक दिन उसे लगा कि कोई चोरी से आम तोड़ रहा है। बाग के बाहर पहरेदार बैठाए पर चोर का पता नहीं चला। उसने स्वयं चोर पकड़ने की सोची। रात भर बाग़ में बैठा रहा कोई न आया। सवेरे जब चलने को सोचा तो बाग़ में झाडूवाला आया। राजा चुपके से पीछे लगा। उसने देखा कि झाड़ूवाले ने कुछ ऐसा किया कि आम लगे ऊपर की डालियां खुद उसके पास झुक गईं और उसने चुनकर सुन्दर आम तोड़े फिर अपने टोकरी में रख लिए। राजा ने उसे पकड़ा तो वह माफ़ी मांगने लगा। राजा एक शर्त पर माफ़ करने को तैयार हुआ यदि अपनी विद्या वह सिखाये। झाड़ू वाला मान गया। कई दिनों तक राजा वह विद्या सीखता रहा पर सीख न पाया। राजा गुस्से में बोला 'तू मुझे सही विद्या नहीं सिखा रहा, मैं तेरा सर कलम कर दूंगा।' झाड़ू वाला बोला,'गलती मेरी नहीं बल्कि आपकी है। जब तक गुरु का सम्मान नहीं करेंगे विद्या सिद्ध नहीं होगी। आप मुझे झाड़ू वाला नहीं, गुरु की तरह देखें तभी सीख पायेंगे।' राजा को अपनी गलती का एहसास हुआ। उसने उसे गुरु माना और विद्या सीख ली।"
             गुरु ईश्वर तुल्य है पर गुरु ईश्वर नहीं है। जब गुरु शिष्य को ईश्वर से मिला देता है तो कृतज्ञ हो कर शिष्य गुरु के पाँव छूता है और कहता है,
गुरु गोविन्द  दोउ खड़े   काको लागों पांय
बलिहारी गुरु आपकी गोविन्द दियो बताय
              स्पष्ट है कि गुरु शिष्य को ईश्वर की ओर ले जाता है, खुद को ईश्वर नहीं बताता। ऐसा ही गुरु द्गुरु होता है। द्गुरु हर किसी को शिष्य बनाने  को तैयार नहीं होता क्योंकि हर शिष्य सुपात्र नहीं होता। पात्र का शाब्दिक अर्थ बर्तन होता है। हम व्यक्ति की तुलना बर्तन से ही करें। अगर हमें दूध लेना है तो सिर्फ हमारे पास बर्तन होना ही काफी नहीं है बल्कि बर्तन का सीधा होना भी चाहिए। बर्तन भी ऐसा हो जिसका मुंह बोतल जैसा संकीर्ण न हो। उसमें छेद न हो।तभी तो यह बर्तन (पात्र) सुपात्र होगा। इसी प्रकार द्गुरु शिष्य बनाने से पहले व्यक्ति में पात्रता देखता है। ज्ञान रूपी दूध प्राप्त करने हेतु शिष्य का सुपात्र होना जरूरी है ताकि ज्ञान रुपी दूध उसके अंदर समा सके। शिष्य बनाने से पहले गुरु शिष्य की पात्रता की परीक्षा भी ले सकता है।  
                बिल्कुल इसी प्रकार व्यक्ति को भी किसी को गुरु बनाने से पहले सोच समझ लेना चाहिए। इसके लिए विचाराधीन व्यक्ति की प्रसिद्धि अथवा प्रचार से प्रभावित नहीं होना चाहिए। न ही भेड़ - चाल चलनी चाहिए। कई बार अपने कुछ परिचित या रिश्तेदार को किसी को गुरु बनाते देख लोग स्वयं भी यही करना चाहते हैं। पर हमेशा यह ध्यान में रखना चाहिए कि गुरु हमारी नौका का मांझी होता है। उसमें इतना सामर्थ्य होना चाहिए कि हमारी जीवन रूपी नौका को सही दिशा दे सके और भवसागर को पार करने में हमारी मदद कर सके। यदि गुरु स्वयं ही कमजोर हो तो शिष्य का क्या उद्धार कर सकेगा ? गोस्वामी तुलसीदास कृत रामचरितमानस के प्रारम्भ का तीसरा श्लोक ही इस प्रश्न का उत्तर देता है कि गुरु कैसा हो :-
वन्दे  बोधमयं  नित्यं  गुरुं  शंकर रुपिणम्,यमाश्रितो ही वक्रोsपि चन्द्रः सर्वत्र वन्द्यते। 


मैं ऐसे ज्ञानमय, अविनाशी गुरु शंकर की वंदना करता हूँ जिनके आश्रित होने के कारण टेढ़ा होने पर भी चन्द्रमा सर्वत्र पूजे जाते हैं। अर्थात जब गुरु इतना समर्थ हो तो शिष्य के अवगुण भी छिप जाते हैं। 
                   ऐसे गुरु शंकर सिर्फ चन्द्रमा के ही नहीं बल्कि सभी देवताओं के भी गुरु हैं। जैसा कि शिव षडक्षर स्तोत्र में वर्णित है, 
यत्र यत्र स्थितो देवः    सर्वव्यापी महेश्वरः।
यो गुरुः सर्व देवानां यकाराय नमो नमः।।
              पर  क्या शिव जैसे गुरु शिष्य बनाने का अभियान चलाते हैं। नहीं, वे तो दुर्गम कैलाश पर्वत के शिखर पर रहते हैं जहाँ हर कोई नहीं पहुँच सकता। कहने का अर्थ यह है की समर्थ गुरु अपना शिष्य बनाने, आश्रम का विस्तार करने और दान के लिए प्रोत्साहित करने के लिए टीवी अथवा अन्य प्रचार का सहारा नहीं लेते। वे तो समाज से अलग अपने ध्यान साधना में लीन रहते हैं। ऐसे गुरु को खोजना पड़ता है। जिन शिष्यों में लगन होती है वे ही सदगुरु तक पहुँच पाते हैं। जो सदगुरु समाज के अंदर रहते भी हैं वे एक साधारण जीवन व्यतीत करते हैं, आडंबर एवं विलासिता से दूर  रहते हैं। वे वैसे ही शिष्यों को अपनाते हैं जो सुपात्र हों।  इसका एक उदहारण स्वामी योगानंद की प्रसिद्ध पुस्तक "एक योगी की आत्मकथा" से लिया जा सकता है। स्वामी जी के गुरु युक्तेश्वर महाराज और उनके भी गुरु लाहरी महाशय समाज में रहते हुए एक साधारण व्यक्ति का जीवन बिताते थे। लाहरी महाशय तो परम योगी थे। उनके कई शिष्य भी बड़े पहुँचे हुए बने। पर लाहरी महाशय के गुरु 'महावतार बाबाजी' तो समाज से दूर हिमालय में विचरते थे। उन्हें तो कोई खोज भी नहीं सकता था। वे तभी किसी से मिलते थे जब वे स्वयं चाहते थे। लाहरी महाशय भी तभी उनके शिष्य बने जब 'महावतार बाबाजी' ने चाहा। गुरु ने अपने प्रताप से ऐसी परिस्थितियाँ पैदा कर दीं कि लाहरी महाशय को अनजाने में ही हजारों किलोमीटर दूर हिमालय की गोद जाना पड़ा और गुरु ने दर्शन दिए।
                   आज भी ऐसे सदगुरु हैं जो दिखावे से दूर रहते हुए समाज के बीच में हैं और अपने शिष्यों का उपकार करते हैं। और ऐसे पहुंचे हुए ज्ञानी भी हैं जो समाज से दूर हिमालय में एकांतवास करते हुए साधना करते हैं। जिन लोगों को उनकी तलाश होती है, सच्चे हृदय से तलाशने पर मिल सकते हैं। जरूरत है ऑंखें खुली रखने की ताकि उनकी पहचान हो सके।
                   ऐसी ही एक संस्था के सदस्य से मैं मिला हूँ। वर्षों साथ रहने के बावजूद उन्होंने इसके बारे में मुझसे कभी नहीं कहा परन्तु जब उन्हें यह पता चला कि मेरा भी अध्यात्म की ओर झुकाव है तभी इसके बारे में चर्चा की। कारण यह कि इस संस्था को अपने सदस्यों की संख्या बेहिसाब बढ़ाने में दिलचस्पी नहीं और न ही अनेक नए आश्रम देश भर में बनाने का उद्देश्य है। आज भी इसका एक मात्र आश्रम गुरु के पुश्तैनी माकान में है। प्रति वर्ष किसी एक शहर में भंडारे का आयोजन होता है जिसमें सभी सदस्य उत्साह के साथ भाग लेते हैं। आयोजन हेतु बाहर वालों से चन्दा नहीं लिया जाता बल्कि सभी सदस्य आपस में ही चन्दा करते हैं। यह चन्दा भी असीमित नहीं होता बल्कि इसकी एक सीमा निश्चित की जाती है यथा रु २०००/- से २००००/- . यह इसलिए ताकि जहाँ तक हो सके सभी सदस्य भागीदार बनें।इसी में अलग सत्र होता है जिसमें  गुरु द्वारा प्रवचन एवं शिक्षा दी जाती है। भंडारे के बाद सभी सदस्य वापस घर आते हैं और गुरु के निर्देश के अनुसार प्रतिदिन साधना करते हैं। ऐसे ही गुरु को सदगुरु कहा जा सकता है और गुरु -मंत्र की कसौटी पर परम आदरणीय होते हैं।  
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