Sunday, June 30, 2019

श्रीविद्या - सर्वोपरि मन्त्र साधना

(चित्र का स्रोत गूगल)
                  श्रीविद्या एक कठिन एवं गोपनीय साधना है। राजसिक तंत्र के श्रीकुल शाखा में श्रीविद्या की साधना की जाती है जो वस्तुतः माँ त्रिपुरसुन्दरी की साधना है। माँ त्रिपुरसुन्दरी परमेश्वरी आदिशक्ति हैं जिन्हें विभिन्न नामों से जाना जाता है। ललिता, राजराजेश्वरी एवं महालक्ष्मी भी यही परमेश्वरी हैं। श्रीयंत्र इसी साधना का हिस्सा है। 
          श्रीविद्या की तंत्र साधना एक सच्चे साधक को अपरिमित दैवीय शक्ति प्रदान करता है। यही कारण है कि इसे परम गुप्त एवं आमजनों से छिपा कर रखा गया है। इसे जानकार एवं ज्ञानी सिद्ध गुरु के बिना नहीं जाना जा सकता। श्री देव्यथर्वशीर्ष में भी श्रीविद्या का प्रसंग आता है। यह गीता प्रेस द्वारा प्रकाशित श्रीदुर्गासप्तशती में अर्थसहित समावेशित है। श्री देव्यथर्वशीर्ष अथर्ववेद में वर्णित है जहाँ इसकी बड़ी महिमा बताई गई है।इसके अंतर्गत जब देवगण भगवती से उनके बारे में पूछते हैं तो माता विस्तारपूर्वक उन्हें बताती हैं।  जिसका सारांश यह है कि इस चराचर जगत में और इसके बाहर जो कुछ भी है वह सब मैं ही हूँ। सब सुनने के बाद देवगण माँ की स्तुति करते हैं। इसी स्तुति में श्रीविद्या का यह मन्त्र भी समावेशित है :-

कामो योनिः कमला वज्रपाणिर्गुहा हसा मातरिश्वाभ्रमिन्द्रः। 
पुनर्गुहा सकला मायया च पुरूच्यैषा विश्वमातादिविद्योम् ||

              इसका शब्दार्थ इतना ही कहा जा सकता है कि यह सर्वात्मिका जगन्माता की मूलविद्या है और वह ब्रह्मरूपिणी है। इन के बारे मे कहा गया है कि ये परमात्मा की शक्ति हैं | ये विश्वमोहिनी हैं| पाश, अंकुश, धनुष और बाण धारण करनेवाली हैं। ये 'श्रीमहाविद्या' हैं। जो ऐसा जानता है, वह शोक को पार कर जाता है।
         इस मन्त्र के छः प्रकार के अर्थ 'नित्यषोडशीकार्णव' ग्रन्थ में बताये गए हैं - भावार्थ, वाच्यार्थ, सम्प्रदायार्थ, लौकिकार्थ,रहस्यार्थ और तत्वार्थ। 'वरिवस्यारहस्य' आदि ग्रंथों में इसके और भी अनेक अर्थ दिखाये गए हैं। श्रुति में भी ये मन्त्र इस प्रकार से अर्थात कुछ स्वरूपोच्चार, कुछ लक्षण और लक्षित लक्षणा  से और कहीं वर्ण के अलग अलग अवयव दर्शाकर जानबूझ कर विश्रृंखल रूप से कहे गए हैं। इससे यह पता चलता है कि ये मन्त्र कितने गोपनीय और महत्वपूर्ण हैं। 
         इसके सभी अर्थों का वर्णन यहाँ संभव नहीं है किन्तु इसका भावार्थ इस प्रकार है :-
        "शिवशक्त्यभेदरूपा, ब्रह्म - विष्णु - शिवात्मिका, सरस्वती - लक्ष्मी - गौरीरूपा, अशुद्ध -मिश्र -शुद्धोपासनात्मिका, समरसीभूत - शिवशक्त्यात्मक  ब्रह्मस्वरूप का निर्विकल्प ज्ञान देनेवाली, सर्वतत्वात्मिका महात्रिपुरसुन्दरी।"
             इसके शब्द, मन्त्र के बीज को भी निरूपित करते हैं जो इस प्रकार हैं :-
काम - (क)
योनि - (ए) 
कमला - (ई)
वज्रपाणि-इन्द्र  - (ल)
गुहा - (ह्रीं)
हसा - (ह), (स)
मातरिश्वा-वायु - (क)
अभ्र - (ह)
इन्द्र - (ल)
पुनः -गुहा - (ह्रीं)
सकला - (स), (क), (ल)
माया - (ह्रीं)

             मंत्रशास्त्र में पंचदशी आदि श्रीविद्या के नाम से यह प्रसिद्ध है। यह सब मन्त्रों का मुकुटमणि है अर्थात सबसे ऊपर है। 
(नोट - यह मुख्यतः गीताप्रेस से प्रकाशित श्रीदुर्गासप्तशती के देव्यथर्वशीर्ष से लिया गया है)  
          यहाँ श्रीविद्या के बारे बहुत ही संक्षेप में परिचय दिया गया है। इसकी साधना मात्र मंत्रो को पढ़कर नहीं की जा सकती। पारंगत और गुरुपरम्परा से ज्ञानी व्यक्ति ही इसकी साधना के पथ का मार्गदर्शक हो सकता है। इस साधना के पथ पर जाने की इच्छा रखने वाले व्यक्ति को पूर्ण समर्पित होना आवश्यक है और सच्चे पथप्रदर्शक गुरु की तलाश महत्वपूर्ण है। वह गुरु जो साधना के इच्छुक व्यक्ति में इस विद्या की धरणा की क्षमता को पहचान सके।      
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