Wednesday, July 29, 2020

का ले के शिव के मनायब हो - (शिव - कीर्तन / Shiva - Keertan)

जय बाबा बासुकीनाथ
     भगवान शिव की भक्ति तो अनेक प्रकार से प्रकट की जाती है, उन्हीं में से एक है - कीर्तन। चाहे वाद्ययंत्रों के साथ हो या सिर्फ तालियों के साथ - कीर्तन करते समय भक्त 
भक्ति की एक अलग ही दुनियाँ  में पहुँच जाते हैं। ऐसा ही छोटा सा किन्तु लोकप्रिय शिवकीर्तन है -"का ले के शिव के मनायब हो" - यह कीर्तन बाबा बैद्यनाथ और बाबा बासुकीनाथ के भक्तों के बीच बहुत गाया जाता है। भक्तों के लाभ के लिए यह कीर्तन नीचे लिख रहा हूँ।
शिव -कीर्तन

का ले के शिव को मनायब हो शिव मानत नाहीं -2

खोवा मलाई शिव के मनहुँ ना भावे - 2
भांग धतूरा कहाँ पायब हो शिव मानत नाहीं।
का ले के शिव को मनायब हो शिव मानत नाहीं -2

कोठा अटारी शिव मनहुँ ना भावे - 2
झोंपड़िया कहाँ से बनायब हो शिव मानत नाहीं।
का ले के शिव को मनायब हो शिव मानत नाहीं -2

शाला - दुसाला भोला मनहुँ ना भावे - 2
मृग के छाला कहाँ पायब हो शिव मानत नाहीं।
का ले के शिव को मनायब हो शिव मानत नाहीं -2
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    For those who have a problem with Devanagari script, I am giving it in the Roman script below:--

Kaa le ke Shiv ke manaayab ho Shiv maanat naahi - 2

  Khowa malaai Shiv ke manahu naa bhaawe -2
Bhaang Dhatura kahaan paayab ho Shiv maanat naahi
  Kaa le ke Shiv ke manaayab ho Shiv maanat naahi - 2

Kothaa ataari Shiv manahu naa bhaawe -2
Jhonpadiyaa kaha se banayab ho Shiv maanat naahi
Kaa le ke Shiv ke manaayab ho Shiv maanat naahi - 2

Shaala dushaala Bhola manahu naa bhaawe -2
Mrig ke chhaala kahan paayeb ho Shiv maanat naahi
Kaa le ke Shiv ke manaayab ho Shiv maanat naahi - 2
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Wednesday, July 15, 2020

मिथिला के लोकप्रिय कवि विद्यापति रचित - गोसाओनिक गीत (Gosaonik Geet) -अर्थ-सहित

कोकिल कवि विद्यापति

      कोकिल कवि विद्यापति की रचनाओं में वैसा ही रस और माधुर्य है जैसा बाबा तुलसीदास की रचनाओं में। ऐसे कवि सदियों में एक अवतरित होते हैं। उनकी रचनाओं के कारण ही आज मैथिली भाषा इतनी समृद्ध है। जितनी श्रद्धा बांग्ला भाषी लोग गुरु रवीन्द्रनाथ टैगोर के लिए रखते हैं उतनी ही मैथिली भाषी लोग कवि विद्यापति के लिए रखते हैं। मिथिला क्षेत्र में इनके गीत और भजन जन जन में लोकप्रिय है। गोसाओनिक गीत इन कविवर द्वारा रचित ऐसा गीत है जिससे हर शुभ आयोजन का प्रारम्भ किया जाता है। यह गीत भगवती काली की स्तुति है जिसे नीचे दिया जा रहा है :-
गोसाओनिक गीत

जय -जय भैरवि असुर भयाउनि    पशुपति भामिनी माया।
सहज सुमति वर दियओ गोसाओनी अनुगत गति तुअ पाया।

वासर रैन शवासन शोभित       चरण चंद्रमणि चूड़ा।
कतओक दैत्य मारि मुख मेलल कतओ ऊगलि कएल कूड़ा।

साँवर वरन नयन अनुरंजित      जलद जोग फुल कोका।
कट कट विकट ओट पुट पाँडड़ि लिधुरी फैन उठि फोका।

घन घन घनन घुंघरू कत बाजय हन हन करय तुअ काता।
विद्यापति कवि तुअ पद सेवक     पुत्र विसरु जुनि माता।

  जय -जय भैरवि असुर भयाउनि , .. .... .. .... 
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भावार्थ : हे भोलेनाथ की अर्धांगिनी, असुरों में भय पैदा करने वाली माता भैरवी ! आपकी जय हो, जय हो। हे भगवती मैं आपकी शरण आया हूँ, मुझे अच्छी बुद्धि का वरदान दें।
         हे माता आप हमेशा शव के आसन पर विराजमान होती हैं और आपके चरण चंद्रमणि के सामान शोभित हैं। कभी आप दैत्यों को मारकर अपने मुख के अंदर मसल देती हैं कभी उन्हें कुल्ले जैसा उगल देती हैं।
          माता आपके साँवरे वर्ण मुख पर लाल -लाल आँखें ऐसी प्रतीत होती हैं मानो बादलों के बीच लाल -लाल कमल खिले हों। दाँतों से भयानक कट -कट ध्वनि उत्पन्न हो रही है और होंठ पाण्डुर फूल की तरह लाल हैं उसपर लिपटे रक्त में बुलबुले दृष्टिगोचर हो रहे हैं।
         जब आप शीघ्रता से दैत्यों का संहार करती हैं तो कभी आपके पैरों के घुँघरू घन - घन - घनन आवाज़ करते हैं तो कभी आपके द्वारा घुमाने से कटार से हन -हन  की ध्वनि आती है। हे माता ! यह विद्यापति कवि आपके चरणों का सेवक है, इस पुत्र को कभी भूलियेगा नहीं।       
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