जैसा की शीर्षक से स्पष्ट है कि यह उपाय युवतियों के लिए ही है। कई मानस के मर्मज्ञ कहते हैं कि मानस में वर्णित ये माता पार्वती की स्तुति शीघ्र विवाह और मनचाहा (शिव या राम जैसा) वर प्राप्त करने का सर्वोत्तम उपाय है। जब श्री राम और लक्ष्मण ऋषि विश्वामित्र के साथ जनकपुर गए थे तो एक दिन सुबह की बेला में ऋषि की आज्ञा लेकर पूजा हेतु फूल तोड़ने दोनों भाई पुष्प-वाटिका में गये। संयोग से सीता जी, जिनके स्वयंवर की तैयारी में उनके पिता राजा जनक जी लगे थे, भी इसी उद्देश्य से वहां अपनी सहेलियों के साथ आयीं। पुष्प-वाटिका में श्रीराम और सीताजी ने पहली बार एक-दूसरे को देखा। देखते ही दोनों के हृदय में वे एक दूसरे को भा गये। बाबा तुलसीदास जी ने पुष्प-वाटिका के इस प्रसङ्ग का बहुत ही सरस वर्णन किया है।
श्रीराम-जानकी |
इस स्तुति को कुँवारी कन्याओं को प्रतिदिन गौरी पूजन में पढ़ना चाहिये। इससे मनचाहे वर की प्राप्ति होती है ऐसा कई मानस मर्मज्ञ कहते हैं।
भगवती पार्वती स्तुति
जय जय गिरिबरराज किसोरी । जय महेस मुख चंद चकोरी।|
जय गजबदन षडानन माता। जगत जननि दामिनी दुति गाता।|
नहिं तव आदि मध्य अवसाना। अमित प्रभाउ बेदु नहिं जाना।|
भव भव बिभव पराभव करिनि। बिस्व बिमोहनि स्वबस बिहारिनि।|
पतिदेवता सुतीय महुँ मातु प्रथम तव रेख।
महिमा अमित न सकहिं कहि सहस सारदा सेष।|
सेवत तोहि सुलभ फल चारी। बरदायिनी पुरारि पिआरि।|
देबि पूजि पद कमल तुम्हारे। सुर नर मुनि सब होहिं सुखारे।|
मोर मनोरथु जानहु नीकें। बसहु सदा उर पुर सबही कें।|
कीन्हेउँ प्रगट न कारन तेहीं। अस कहि चरन गहे बैदेहीं।|
बिनय प्रेम बस भई भवानी। खसि माल मूरति मुसुकानी।|
सादर सियँ प्रसादु सिर धरेऊ। बोली गौरी हरषु हियँ भरेऊ।|
सुनु सिय सत्य असीस हमारी। पूजिहि मन कामना तुम्हारी।|
नारद बचन सदा सुचि साचा। सो बरु मिलिहि जाहिं मनु राचा।|
मनु जाहिं राचेउ मिलिहि सो बरु सहज सुन्दर साँवरो।
करुना निधान सुजान सीलु सनेहु जानत रावरो।|
एहि भाँति गौरि असीस सुनि सिय सहित हियँ हरषीं अली।
तुलसी भवानिहि पूजि पुनि पुनि मुदित मन मंदिर चली।|
जानि गौरी अनुकूल सिय हिय हरषु न जाइ कहि।
मंजुल मंगल मूल बाम अंग फरकन लगे।|
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(इस स्तुति का भावार्थ है - हे पर्वतराज हिमाचल की पुत्री आपकी जय हो, जय हो। महादेव के मुखरूपी चन्द्रमा को देखनेवाली चकोरी आपकी जय हो। हे बिजली सी कांति से युक्त जगतजननी, हे गणेश और कार्तिक की माता आपकी जय हो। हे माता न आपका आरम्भ है, न मध्य है और न अंत है। आपके असीम प्रभाव को वेद भी नहीं जानते। आप संसार को उत्पन्न करनेवाली, पालन करनेवाली और नाश करनेवाली हैं। आप विश्व को मोहित करनेवाली हैं और स्वतंत्र रूप से विहार करनेवाली हैं।
पति को इष्टदेव माननेवाली श्रेष्ठ नारियों में हे माता आपकी प्रथम गणना है। आपकी अपार महिमा को हजारों सरस्वती और शेष भी नहीं कह सकते।
हे वर देने वाली त्रिपुरारी शिव की पत्नी, आपकी सेवा से चारों फल सुलभ हो जाते हैं। हे देवि ! आपके चरणकमलों की पूजा करके देवता, मनुष्य और मुनि सभी सुखी हो जाते हैं।
मेरे मनोरथ को आप भलीभाँति जानती हैं क्योंकि आप सदा सबके हृदय रुपी नगरी में रहती हैं। इसी कारण मैं उसको प्रकट नहीं कर रही, यह कहकर सीताजी ने उनके चरण पकड़ लिये। भगवती पार्वती सीताजी के विनय और प्रेम के वश में हो गयीं, उनके गले से माला खिसक के गिर गयी और उनकी मूर्ति मुस्कुरायी। सीताजी ने आदरपूर्वक प्रसादरूपी माला को उठा कर सिर से लगाया। माता पार्वती का हृदय हर्ष से भर गया और वे बोलीं - "हे सीता ! मेरी सच्ची आशीष सुनो, तुम्हारी मनोकामना पूर्ण होगी। नारदजी का वचन सदा पवित्र और सत्य है। जो वर तुम्हारे हृदय में बसा है वही वर तुम्हे मिलेगा। जिसमें तुम्हारा मन अनुरक्त हो गया है वही स्वाभाव से सुन्दर, साँवला वर तुम्हें मिलेगा। वह दया से पूर्ण और सर्वज्ञ है, तुम्हारे शील और स्नेह को जनता है।"
इस प्रकार गौरीजी का आशीर्वाद सुनकर सीताजी सभी सखियों सहित हृदय से हर्षित हुईं। तुलसीदासजी कहते हैं - भवानीजी को बार-बार पूज कर सीताजी प्रसन्न मन से महल को लौट चलीं।
गौरीजी को अनुकूल जान कर सीताजी को जो हर्ष हुआ वह कहा नहीं जा सकता। सुन्दर मंगलों के मूल उनके बायें अंग फड़कने लगे।)
जिस प्रकार माता भवानी सीताजी पर प्रसन्न हुईं उसी प्रकार वे उनकी आराधना -पूजन करने वालों पर भी प्रसन्न होवें। 🙏जय माँ भवानी🙏
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