|| ॐ नमश्चण्डिकायै ||
(चित्र ट्विटर से साभार) |
माँ दुर्गा की देवीसूक्त से स्तुति बहुत ही फलदायी है। दुर्गा सप्तशती में दो स्थानों पर भक्तों द्वारा माँ की देवीसूक्त से स्तुति की चर्चा है और दोनों ही जगह माँ ने भक्तों की सुनी। पहले स्थान पर भक्त स्वयं इंद्र आदि देवता हैं। दुर्गा सप्तशती के पाँचवे अध्याय में इसका वर्णन है। एक समय में असुरों का अधिपति शुम्भ बहुत ही शक्तिशाली हो गया था। उसने स्वर्ग से इंद्र की सत्ता छीन ली, अग्नि, सूर्य, वायु आदि देवताओं का भी अधिकार छीन लिया और उनके काम भी स्वयं करने लगा। देवगण त्रस्त हो कर भटक रहे थे सोचने लगे कि अब क्या करें, कहाँ जाएँ ? तब उन्हें पूर्व में भगवती द्वारा दिया गया वरदान याद आया कि जब -जब तुम्हें आवश्यकता होगी तो याद करने पर मैं प्रकट होऊँगी। सारे देवता हिमालय में नदी के किनारे जाकर भगवती का ध्यान करने लगे, उन्हें आर्त होकर पुकारने लगे। तभी माँ पार्वती वहाँ नदी में स्नान करने आयीं। परमेश्वरी भगवती ने माँ पार्वती के शरीर से प्रकट होकर देवताओं को अपने वरदान के अनुसार दर्शन दिया।परमेश्वरी भगवती को प्रकट देखकर देवताओं ने उनकी देवीसूक्त से स्तुति की जिससे प्रसन्न होकर माँ ने पुनः वरदान मांगने को कहा। देवताओं ने अपनी व्यथा सुनाई और शुम्भ आदि असुरों को नष्टकर पुनः स्वर्ग पाने का वरदान माँगा। भगवती माँ ने उनकी इच्छाएँ पूरी की।
दूसरा प्रसंग है राजा सुरथ और वैश्य समाधि द्वारा भगवती के लिए की गयी तपस्या और देवीसूक्त द्वारा स्तुति। राजा सुरथ अपना राज - पाट गंवाकर और वैश्य समाधि अपने ही स्वजनों द्वारा छल से धन हड़पने और घर से निष्कासित होकर वन में आये थे जहाँ उन्होंने मेधा ऋषि को शिष्यों के साथ देखा। दोनों ने ऋषि से अपने अपने दुःखों का कारण तथा अपने ही लोगों द्वारा छल के उपरांत भी उनके प्रति मोह का कारण पूछा। कैसे उनका दुःख दूर हो ? ऋषि ने भगवती महामाया के बारे में बताते हुए उनके तीनों चरित्रों -महाकाली, महालक्ष्मी और महासरस्वती- का और उनके माहात्म्य का वर्णन किया। किस प्रकार भगवती महामाया चराचर जगत और स्वयं भगवान को भी अपने प्रभाव में ले सकती हैं। ऋषि ने कहा, "महामाया स्वरूपा उन भगवती के द्वारा ही तुमदोनो और अन्य विवेकीजन मोहित होते हैं, मोहित हुए हैं तथा आगे भी मोहित होते रहेंगे।" आगे कहा, "तमुपैहि महाराज शरणम् परमेश्वरीम, आराधिता सैव नृणां भोगस्वर्गापवर्गदा। " अर्थात, हे राजन ! तुम उन्ही परमेश्वरि की शरण में जाओ। आराधना करने पर वे ही मनुष्यों को भोग, स्वर्ग तथा मोक्ष प्रदान करती हैं।
सप्तसती के तेरहवें अध्याय में कहा गया है कि मेधामुनि के निर्देश के अनुसार ये दोनों माँ जगदम्बा के दर्शन के लिए नदी के तट पर उत्तम देवीसूक्त का जप करते हुए तपस्या करने लगे। देवी की मिट्टी की मूर्ति बनाकर पुष्प, धूप और हवन आदि के द्वारा आराधना करने लगे। धीरे -धीरे आहार को कम करते हुए निराहार व्रत और एकाग्रचित्त हो कर तीन वर्षों तक भगवती की संयमपूर्वक आराधना करने पर प्रसन्न होकर जगत को धारण करने वाली भगवती चंडिका ने उन्हें दर्शन दिया और वरदान मांगने को कहा। राजा ने सांसारिक भोग माँगा अर्थात इस जन्म मे शत्रुओं को पराजित कर वापस अपना राज पाट तथा अगले जन्म में नष्ट न होनेवाला राज्य माँगा। प्रसन्न भगवती ने उन्हें यह वरदान तो दिया ही साथ ही यह भी कहा कि अगले जन्म में तुम सूर्य के अंश से जन्म लेकर पृथ्वी पर सावर्णिक मनु के नाम से विख्यात होगे। अर्थात अगला आनेवाला मन्वन्तर जिसका नाम सावर्णि होगा उसके मनु राजा सुरथ के पुनर्जन्म लेने पर वे ही होंगे जिनका नाम सावर्णिक मनु होगा।
अब दूसरा भक्त जो वैश्य समाधि था उसका मन अपने ही सम्बन्धियों तथा पत्नी के छल के कारण संसार से विरक्त हो चुका था उसने भगवती से अपने लिए ज्ञान माँगा। प्रसन्न भगवती ने उन्हें दिव्य ज्ञान तथा बड़े -बड़े तपस्वियों को भी न प्राप्त होनेवाला मोक्ष प्रदान किया।
इस प्रकार परमेश्वरि भगवती प्रसन्न होने पर लौकिक एवं अलौकिक दोनों ही प्रकार की कामनाएँ पूर्ण करती हैं। भगवती को प्रसन्न करने में देवीसूक्त की स्तुति बहुत ही फलदायी है। श्रद्धा एवं भक्तिपूर्वक माँ दुर्गा की देवीसूक्त से स्तुति को अपने दैनिक पूजा में अवश्य अपनाएं। यदि दैनिक पूजा में संभव न हो सके तो कम से कम नवरात्र जैसे अवसरों पर इस स्तुति को अपनाने का प्रयास करें। माँ भगवती की आराधना कभी व्यर्थ नहीं जाती।
गीता प्रेस की दुर्गा सप्तशती के अन्त में दो प्रकार के देवीसूक्त दिए गए हैं - 1. वेदोक्त देवीसूक्त, 2. तंत्रोक्त देवीसूक्त। किन्तु सप्तशती के अंदर जिन दो स्थानों पर देवीसूक्त से भगवती की स्तुति की चर्चा इस ब्लॉग के प्रारम्भ में की गयी है वह तंत्रोक्त देवीसूक्त है। अतः इससे ही आराधना की अनुशंषा की जाती है।
देवीसूक्त को चित्र रूप में नीचे दिया जा रहा है :-
देवीसूक्त |
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