Sunday, September 11, 2022

संक्षिप्त भागवत पाठ - (हिंदी ब्लॉग पोस्ट)

बाल कृष्ण 
                 श्रीमद्भागवत महापुराण की रचना महर्षि वेद व्यास द्वारा की गयी है। महर्षि वेद व्यास को सनातन धर्म में भगवान् तुल्य माना जाता है।निम्नलिखित श्लोक उनके सनातन धर्म में स्थान को दिखता है :--
अचतुर्वदनो   ब्रह्मा   द्विबाहुर्परो      हरि : |
अभाल लोचनो शम्भुः भगवान बादरायणः ||
( भगवान बादरायण अर्थात वेद व्यास बिना चार सिर के ब्रह्मा हैं, मात्र दो हाथ वाले विष्णु और बिना कपाल पर तीसरे नेत्र वाले शिव हैं। )

              भागवत महापुराण को स्वयं भगवान कृष्ण ही माना जाता है। जब व्याध के तीर से (जो उनके पैरों में लगा था) श्रीकृष्ण ने पृथ्वी पर अपनी लीला समाप्त की तब जन कल्याण के लिए उन्होंने स्वयं को महर्षि वेद व्यास के माध्यम से श्रीमद्भागवत महापुराण के रूप में प्रकट किया जिससे हमलोग धर्म के मार्ग पर चल सकें। 
                  श्रीमदभागवत महापुराण के पाठ का माहत्म्य पहले अध्याय में ही दिया गया है। इसमें कहा गया है कि,
नित्यं भागवतम् यस्तु पुराणं पठते नरः । 
प्रत्यक्षरं भवेत्तस्य कपिलादानजं फलम् ॥ 
(जो व्यक्ति नित्य भागवत का पाठ करता है उसे प्रति अक्षर उच्चारण करने का कपिला गाय के दान के बराबर पुण्य प्राप्त होता है।)
श्लोकार्धं श्लोकपादं या नित्यं भागवतोद्भवम् । 
पठते  शृणुयाद्  यस्तु   गोसहस्त्रफलं  लभेत्  ॥ 
( जो व्यक्ति प्रतिदिन भागवत के आधे या चौथाई श्लोक के भी पाठ या श्रवण करता है उसे हजारों गायों के दान का पुण्य प्राप्त होता है। )
 
           श्रीमद्भागवत महापुराण एक वृहद् पुस्तक है जिसमें बारह स्कन्द हैं। गीता-प्रेस द्वारा इसे दो मोटे भागों में मुद्रित एवं प्रकाशित किया गया है। इन्हें प्रत्येक सनातनधर्मी के घर में होना चाहिए। इस महापुराण में कुछ जगहों पर संस्कृत श्लोकों के उच्चारण में साधारण व्यक्ति को कठिनाई हो सकती है। अगर कोई भक्त प्रतिदिन इस पुराण का पाठ करते हैं तो अति उत्तम किन्तु  यह आम व्यक्ति के लिए बहुत कठिन है। अतः हमें एक ऐसी विधि चाहिए जिससे संक्षिप्त में पूरे भागवत महापुराण के सार का भी पाठ हो जाये और ऊपर बताये गए भागवत पाठ का पुण्य भी मिले। भगवान श्रीकृष्ण ने नवमें अध्याय में चार श्लोकों में अपने बारे में बताया है। ये चार श्लोक श्रीमद्भागवत महापुराण की आत्मा और सार हैं, और जो ईश्वर को जानना चाहते हैं उनके लिए वांछित हैं। इसीलिए इन चार श्लोकों को चतुश्लोकी भागवत नाम दिया गया है। इसके पहले श्लोक में श्रीकृष्ण ने अपने बारे में बताया है। दूसरे में उन्होंने अपनी माया के बारे में कहा है। तीसरे श्लोक में श्रीकृष्ण ने इस जगत के बारे में बताया है जबकि चौथे और अंतिम श्लोक में उन्होंने कहा है कि जो तत्वान्वेषी हैं अर्थात ज्ञान की खोज में हैं उन्हें सिर्फ ऊपर के तीन श्लोकों में बताये गए मर्म को ही जानने की आवश्यकता है।     
            अतः मैं भक्तों से अनुरोध करूँगा कि अपना दस मिनट का समय निकालें और नीचे लिखे पाठ प्रतिदिन करें जिससे भागवत पाठ के बारे में बताये गए लाभों को सहज ही प्राप्त किया जा सके। चतुश्लोकी भागवत के पहले ध्यान, प्रार्थना एवं बाद में समर्पण; सभी श्रीमद्भागवत महापुराण से लिए गए हैं। इन श्लोकों में कई स्थानों पर लम्बे संस्कृत के शब्द आते हैं जो कई शब्दों के सन्धि हैं। अगर इन्हें उच्चारण करने में कठिनाई हो तो सन्धि विच्छेद कर पढ़ सकते हैं। अथवा यदि आप तीन मिनट का समय निकालें तो इसे यूट्यूब परभी सुन कर पुण्य का भागी बन सकते हैं। यूट्यूब पर सुनें। 

Prayer (प्रार्थना)

वन्दे   श्रीकृष्णदेवं        मुरनरकभिदं   वेदवेदांतवेद्यं
लोके भक्ति प्रसिद्धं यदुकुलजलधौ प्रादुरासीदपारे  ।
 यस्यासीद् रुपमेवं त्रिभुवनतरणै भक्तिवच्चं स्वतन्त्रम् 
शास्त्रं रूपं च लोके प्रकटयति मुदा यः स नो भूतिहेतुः ॥ 

(जिन श्रीकृष्ण भगवान् ने मुर और नरक नामक राक्षसों का वध किया, जिनके तत्व को वेद और वेदान्त के द्वारा ही जाना जा सकता है, जो सिर्फ भक्ति के द्वारा ही पाए जा सकते हैं और जो यदुकुल रूपी समुद्र से प्रकट हुए, उनकी मैं वंदना करता हूँ। श्रीकृष्ण जिनकी छवि एकमात्र वह भक्ति रूपी नाव है जो तीनों लोकों में स्वतंत्र रूप से विचरण कर सकती है, जिन्होंने स्वयं को इस लोक में शास्त्र के रूप में प्रकट किया है वे भगवान् हमलोगों का कल्याण करें।  

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नमः कृष्ण पदाब्जाय भक्ताभीष्टप्रदायिने  । 
आरक्तं  रोचयेच्छश्वन्मामके  हृदयाम्बुजे ॥ 

(सदा मेरे हृदय में रहने वाले भगवान श्रीकृष्ण के कुछ कुछ लालिमा लिए हुए चरण कमलों में  मैं नमन करता हूँ जो भक्तों की मनोकामनाओं को पूर्ण करने  वाले हैं।) 


श्रीभागवतरूपम्    च    पूजयेत्     भक्तिपूर्वकम्   । 
अर्चकाया अखिलानकामान् प्रयच्छति नो शंशयः ॥ 
 
(हम श्रीभागवत महापुराण के रूप में प्रकट स्वयं भगवान श्रीकृष्ण की भक्तिपूर्वक पूजन करते हैं जिनकी अर्चना से सभी कामनायें पूर्ण होतीं हैं इसमें कुछ भी शंशय नहीं है। )



Dhyan (ध्यान )

किरीटकेयूरमहार्हनिष्कैर्मण्युत्तमालंकृत्तसर्वगात्रम् । 
पीताम्बरं काञ्चनचित्रनद्ध मालाधरं केशवमभ्युपैमि॥ 

(मैं भगवान केशव का ध्यान  हूँ जिनके मस्तक पर मुकुट (किरीट), बाहों में बाजूबंद (केयूर), वक्ष पर कीमती हार, सभी अंग मणियों से निर्मित गहनों से अलंकृत, शरीर पर पीताम्बर और गले में स्वर्ण के तारों से विचित्र रूप से गुंथा हुआ माला सुशोभित हो रहा है।) 



(श्रीमद्भागवत महापुराण के प्रथम अध्याय के प्रथम दो श्लोक)

कृष्णं नारायणं वन्दे कृष्णं वन्दे व्रजप्रियं ।
कृष्णं द्वैपायनं वन्दे कृष्णं वन्दे पृथासुतं ॥

(मैं उन श्रीकृष्ण की वंदना करता हूँ जो भगवान् नारायण के रूप हैं, जिन्हें व्रज प्रिय है, जो महर्षि वेद व्यास के रूप में हैं और जो अर्जुन के रूप में भी हैं।) 

सच्चिदानन्दरुपाय    विश्वोत्पत्यादि  हेतवे
तापत्रय: विनाशाय श्रीकृष्णाय वयं नुमः ॥


(सत् -चित् -आनन्द रूपी, विश्व के उत्पन्न होने के कारण और तीनों प्रकार के तापों (दुःख) को नाश करने वाले श्रीकृष्ण को हम नमस्कार करते हैं।)



Chatushloki Bhagwat (चतुःश्लोकी भागवत)


श्री भगवान उवाच :--
अहमेवासमेवाग्रे नान्यद् यत्  सदसत् परं    । पश्चादहं यदेतच्च यो अवशिष्येत सो अस्मि अहम् । १ । 
ऋते अर्थम् यत् प्रतीयेत न प्रतीयेत चात्मनि । तद्विद्याद्यात्मनो मायां यथा आभासो यथा तमः | २ । 
यथा    महान्ति   भूतानि   भूतेषूच्चावचेष्वनु ।        प्रविष्टान्यप्रविष्टानि   तथा   तेषु न तेष्वहम् ।३ । 
एतावदेव जिज्ञास्यं तत्वजिज्ञासुना आत्मनः । अन्वयव्यतिरेकाभ्याम्   यत्  स्यात्  सर्वत्र सर्वदा । ४ । 


(इस जगत की उत्पत्ति से पहले भी मैं था, वर्तमान में भी हूँ और जब यह जगत समाप्त हो जायेगा तब भी मात्र मैं ही रहूँगा अर्थात मैं शाश्वत हूँ।|1|

जिस प्रकार कोई वस्तु वास्तविक लगने पर भी वहाँ कुछ नहीं होता, (जैसे दर्पण में छवि) और कभी कुछ आभास न होने पर भी वहाँ कुछ होता है (जैसे आकाश में राहु) -ऐसा आभास या भ्रम को मेरी "माया" जानो |2|

चूँकि इस जगत में सब मुझसे ही बने हैं तो मैं उन सब में हूँ, परन्तु वे सब 'कुछ' हैं तो मैं उनमें नहीं भी हूँ (द्वैत-अद्वैत) |3| 

जिनको तत्व को जानने की जिज्ञासा है वे मात्र यह जानें कि चाहे "अन्वय" की पद्धति से अथवा "व्यतिरेक" की पद्धति से (Proof -सिद्ध करने की पद्धति) यही सिद्ध होता है कि मैं सर्वत्र और सर्वदा हूँ। अर्थात हर स्थान पर, हर काल में हूँ।)


(महापुराण के अंतिम अध्याय के कुछ अंतिम श्लोक)

भवे भवे यथा भक्तिः पादयोस्तव जायते । 
तथा कुरुष्व देवेश नाथः त्वं नो यतः प्रभो ॥ 

(हे देवेश ! ऐसा वरदान दें कि जब जब भी मेरा जन्म हो, आपके चरणों में  मेरी अविचल भक्ति बनी रहे, और कुछ नहीं।)

नाम  संकीर्तनं यस्य  सर्व पाप प्रणाशनम् । 
प्रणामो दुःख शमनः तं नमामि हरिं परम् ॥ 

(जिनके नाम  संकीर्तन से सारा पाप नष्ट हो जाता है और जिनको प्रणाम करने से सारे दुःख समाप्त हो जाते हैं मैं उन "हरि" को नमस्कार करता हूँ।)

त्वदीयं  वस्तु  गोविन्दं   तुभ्यमेव  समर्पये ।
तेन त्वदंघ्रिकमले रतिं मे यच्छ शाश्वतिम् ॥

(हे गोविन्द ! सारी वस्तुएँ आपकी ही दी हुई हैं  (मेरा कुछ भी नहीं है) आपको ही समर्पित करता हूँ। बस एक चीज मुझे दीजिये कि शाश्वत रूप से आपके चरण-कमलों में मेरी प्रीति हो।)
इस अंतिम प्रार्थना के साथ भगवान् को पूजा समर्पित करें।
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Saturday, September 10, 2022

रासपंचाध्यायी - महारास

पिछले ब्लॉग पोस्ट - "गोपी-गीत" से आगे 

शरद-पूर्णिमा में यमुना तट पर गोपियों संग श्रीकृष्ण का महारास
(चित्र -गूगल से साभार)

       भगवान के अदृश्य हो जाने के बाद जब विरह के आवेश में विह्वल हो कर भगवान की प्यारी गोपियाँ भाँति -भाँति से प्रलाप करने लगीं और अपने कृष्ण प्यारे के दर्शन लालसा में स्वयं को रोक ना सकीं तब करुणाजनक सुमधुर स्वर में फूट फूट कर रोने लगीं। ठीक उसी समय उनके बीचोबीच श्रीकृष्ण प्रकट हो गये। पीताम्बरधारी मन्द मन्द मुस्कान लिए हुए श्रीकृष्ण का रूप कामदेव के मन को भी मथने वाला था। करोड़ों कामों से भी सुन्दर परम मनोहर प्राणवल्लभ श्यामसुन्दर को आया देख गोपियों के नेत्र प्रेम और आनंद से खिल उठे। वे सब-की-सब एक ही साथ इस प्रकार उठ कर खड़ी हो गईं मानो प्राणहीन शरीर में दिव्य प्राणों का सञ्चार हो गया हो, शरीर के एक एक अंग में नवीन चेतना , नवीन स्फूर्ति आ गयी हो। गोपियाँ विभिन्न प्रकार से श्रीकृष्ण के प्रति प्रेम प्रदर्शित करने लगीं। कोई उनका हाथ अपने हाथों में लेकर सहलाने लगी, किसी ने उनके चन्दन चर्चित भुजदण्ड को अपने कंधे पर रख लिया, किसी ने उनका चबाया पान अपने हाथों में ले लिया तो कोई एकटक उनके मुख-कमल को निहार कर भँवरे की तरह रसपान करने लगी। एक गोपी जिसके हृदय में भगवान् के विरह से बड़ी जलन हो रही थी, बैठ गयी और उनके चरणकमलों को अपने वक्षःस्थल पर रख लिया। एक गोपी भगवान् को अपने नेत्रों से हृदय में ले गयी और आँखें बंद कर हृदय में ही आलिङ्गन किया इससे उसका रोम रोम पुलकित हो गया और वह सिद्ध योगियों के समान परमानन्द में मगन हो गयी।

 (इस ब्लॉग पोस्ट को आप नीचे यूट्यूब के एम्बेडेड लिंक में भी सुन सकते हैं।👇)


  

  जैसे मोक्ष की अभिलाषा रखने वाले जन, परम ज्ञानी संत को प्राप्त कर संसार की पीड़ा से मुक्त हो जाते हैं उसी प्रकार सभी गोपियाँ भगवान् श्रीकृष्ण के दर्शन से परम आनंद और परम उल्लास को प्राप्त हुईं। उनके विरह के कारण जो गोपियों को जो दुःख हुआ था, उससे वे मुक्त हो गयीं और शान्ति के समुद्र में डूबने उतराने लगीं। 

   यों तो भगवान् श्रीकृष्ण अच्युत और एकरस हैं, उनका सौंदर्य और माधुर्य निरतिशय है; फिर भी विरह-व्यथा से मुक्त हुईं गोपियों के बीच उनकी शोभा और भी बढ़ गयी। ठीक वैसे ही जैसे परमेश्वर अपने नित्य ज्ञान, बल आदि शक्तियों से सेवित होने पर और भी शोभायमान होता है। 

       इसके बाद भगवान् श्रीकृष्ण ने उन व्रजसुन्दरियों को साथ ले कर यमुना जी के पुलिन (तट के पास की गीली बलुआही मिट्टी) में प्रवेश किया। उस समय खिले हुए कुन्द और मंदार के पुष्पों की सुगंध लेकर बड़ी ही शीतल और सुगन्धित मन्द-मन्द वायु चल रही थी और उसकी महँक से मतवाले हो कर भँवरे इधर उधर मँडरा रहे थे। शरत्पूर्णिमा के चन्द्रमा की चाँदनी अपनी निराली ही छटा दिखला रही थी। इस कारण रात्रि के अन्धकार का तो कहीं पता ही नहीं था। सर्वत्र आनन्द-मंगल का साम्राज्य था। वह पुलिन क्या था, जैसे यमुना जी ने स्वयं अपनी लहरों द्वारा भगवान् की लीला के लिए सुकोमल बालू का रंगमंच बना रखा था। गोपियों के हृदय में इतने आनंद और रस का उल्लास हुआ कि उनके हृदय की सारी आधि -व्याधि मिट गयी। वे समस्त मनोरथों से ऊपर उठ कर कृतकृत्य हो पूर्णकाम हो गयीं। गोपियों ने रोली-केसर से चिह्नित ओढ़नियों को अपने परम प्यारे सुहृद श्रीकृष्ण के विराजने के लिए बिछा दिया। बड़े-बड़े योगेश्वर अपने योगसाधन से पवित्र किये हुए हृदय में जिनके लिए आसन की कल्पना करते रहते हैं किन्तु फिर भी अपने हृदय सिंहासन पर बिठा नहीं पाते वही सर्वशक्तिमान भगवान् यमुनाजी की रेती में गोपियों की ओढ़नियों पर बैठ गये। सहस्रों गोपियों के बीच में उनसे पूजित हो कर भगवान् बड़े ही शोभायमान हो रहे थे। 

            तीनों लोकों में, तीनों कालों में जितना भी सौंदर्य प्रकाशित होता है, वह सब तो भगवान् के बिंदुमात्र सौंदर्य का आभास भर है, वे उसके एकमात्र आश्रय हैं। भगवान् श्रीकृष्ण अपने इस अलौकिक के द्वारा उनके प्रेम और आकांक्षा को और भी उभाड़ रहे थे। गोपियों ने अपनी मंद-मंद मुस्कान, विलासपूर्ण चितवन और तिरछी भौंहों उनका सम्मान किया। किसी ने उनके चरणकमलों को अपनी गोद में रख लिया तो किसी ने उनके करकमलों को। वे उनके संस्पर्श का आनन्द लेती हुई कभी-कभी कह उठतीं थीं  - कितना सुकुमार है, कितना मधुर है। इसके बाद श्रीकृष्ण के छिप जाने से मन-ही-मन तनिक रूठ कर उनके मुँह से उनका दोष स्वीकार कराने के लिए वे कहने लगीं - हे नटनागर ! कुछ लोग तो ऐसे होते हैं जो प्रेम करने वालों से ही प्रेम करते हैं और कुछ लोग प्रेम न करने वालों से भी प्रेम करते हैं। किन्तु कोई कोई दोनों से ही प्रेम नहीं करते। प्यारे ! इन तीनों में तुम्हें कौन-सा अच्छा लगता है ? 

        भगवान् श्रीकृष्ण ने कहा - मेरी प्रिय सखियों ! जो प्रेम करने पर प्रेम करते हैं, उनका तो सारा उद्योग स्वार्थ को लेकर है। लेन -देन मात्र है। न तो उनमें सौहार्द है और न तो धर्म। उनका प्रेम केवल स्वार्थ के लिए ही है; इसके अतिरिक्त उनका और कोई प्रयोजन नहीं है। सुंदरियों ! जो लोग प्रेम न करनेवाले से भी प्रेम करते हैं, उनका हृदय सौहार्द से, हितैषिता से भरा रहता है और सच पूछो तो उनके व्यवहार में निश्छल सत्य एवं पूर्ण धर्म भी है। कुछ लोग ऐसे होते हैं जो प्रेम करने वालों से भी प्रेम नहीं करते, न करने वालों का तो उनके सामने कोई प्रश्न ही नहीं है। ऐसे लोग चार प्रकार के होते हैं :- एक तो वे जो अपने स्वरुप में ही मस्त रहते हैं- जिनकी दृष्टि में कभी द्वैत भासता ही नहीं। दूसरे वे, जिन्हें द्वैत तो भासता है, परन्तु जो कृतकृत्य हो चुके हैं; उनका किसी से कोई प्रयोजन ही नहीं है। तीसरे वे हैं जो जानते ही नहीं कि हमसे कौन प्रेम करता है; और चौथे वे हैं जो जान बूझ कर अपना हित करने वाले परोपकारी गुरुतुल्य लोगों से भी द्रोह करते हैं, उनको सताना चाहते हैं। 

   गोपियों ! मैं तो प्रेम करने वालों से भी प्रेम का वैसा व्यवहार नहीं करता, जैसा करना चाहिए। मैं ऐसा इसलिए करता हूँ कि उनकी चित्तवृत्ति और भी मुझमें लगे, निरंतर लगी रहे। जैसे निर्धन पुरुष को कभी बहुत सा धन मिल जाये और फिर खो जाये तो उसका हृदय खोये हुए धन की चिंता से भर जाता है, वैसे ही मैं भी मिल-मिल कर छिप -छिप जाता हूँ। हे गोपियों ! इसमें संदेह नहीं कि तुमलोगों ने मेरे लिए लोक मर्यादा, वेद-मार्ग और अपने सगे -सम्बन्धियों को भी छोड़ दिया है। ऐसी स्थिति में तुम्हारी मनोवृत्ति और कहीं न जाय, अपने सौंदर्य सुहाग की चिंता न करने लगे, मुझमें ही लगी रहे - इसीलिए परोक्ष रूप से तुमलोगों से प्रेम करता हुआ ही मैं छिप गया था। इसलिए तुमलोग मेरे प्रेम में दोष मत निकालो। तुम सब मेरी प्यारी हो और मैं तुम्हारा प्यारा हूँ। मेरी प्यारी गोपियों ! तुमने मेरे लिए घर-गृहस्थी की उन बेड़ियों को तोड़ डाला है, जिन्हें बड़े-बड़े योगी-यति भी नहीं तोड़ पाते। मुझसे तुम्हारा यह मिलन, यह आत्मिक संयोग सर्वथा निर्मल और सर्वथा निर्दोष है। यदि मैं अमर शरीर से - अमर जीवन से अनंत काल तक तुम्हारे प्रेम, सेवा और त्याग का बदला चुकाना चाहूँ तो भी नहीं चुका सकता। मैं जन्म -जन्म के लिए तुम्हारा ऋणी हूँ। तुम अपने सौम्य स्वाभाव से, प्रेम से मुझे उऋण कर सकती हो।  परन्तु मैं तो तुम्हारा ऋणी ही हूँ।

        गोपियाँ भगवान् की इस प्रकार प्रेममयी सुमधुर वाणी सुनकर जो कुछ विरह जन्य ताप शेष था, उससे भी मुक्त हो गयीं, सौंदर्य -माधुर्य निधि प्राण प्यारे के अंग -संग से सफल मनोरथ हो गयीं। भगवान् श्रीकृष्ण की प्रेयसी और सेविका गोपियाँ एक-दूसरे की बाँह में बाँह डाले खड़ी थीं। उन स्त्री-रत्नों के साथ यमुना जी की पुलिन पर भगवान् ने अपनी रसमयी रासक्रीड़ा प्रारम्भ की। सम्पूर्ण योगियों के स्वामी भगवान् श्रीकृष्ण दो-दो गोपियों के बीच प्रकट हो गए और उनके गले में अपना हाथ डाल दिया। इस प्रकार एक गोपी और एक श्रीकृष्ण, यही क्रम था। सभी गोपियाँ ऐसा अनुभव करतीं थीं कि हमारे प्यारे तो हमारे पास हैं। इस प्रकार सहस्र -सहस्त्र गोपियों से शोभायमान भगवान् श्रीकृष्ण का दिव्य रासोत्सव प्रारम्भ हुआ। उस समय आकाश में शत -शत विमानों की भीड़ लग गयी। सभी देवता अपनी -अपनी पत्नियों के साथ वहाँ आ पहुंचे। रासोत्सव दर्शन की लालसा से, उत्सुकता से उनके मन उनके वश में नहीं थे। स्वर्ग की दिव्य दुन्दुभियाँ अपने आप बज उठीं, स्वर्गीय पुष्पों की वर्षा होने लगी। गन्धर्वगण अपनी -अपनी पत्नियों के साथ भगवान् के निर्मल यश का गान करने लगे। 

        रासमंडल में सभी गोपियाँ अपने प्रियतम श्यामसुन्दर के साथ नृत्य करने लगीं। उनके कंगन, पायजेब और करधनी के छोटे -छोटे घुंघरू एक साथ बज उठे और बड़ी मधुर ध्वनि होने लगी। यमुना जी की रमणरेती पर व्रजसुंदरियों के साथ भगवान् श्रीकृष्ण की बड़ी अनोखी शोभा हुई -मानो अगणित पीली -पीली दमकती स्वर्ण मणियों के बीच में ज्योतिर्मयी नीलमणि चमक रही हो। नृत्य के समय गोपियाँ तरह -तरह से ठुमुक -ठुमुक कर अपने पाँव कभी आगे बढ़ातीं और कभी पीछे हटातीं, गति के अनुसार कभी धीरे -धीरे पाँव रखतीं तो कभी बड़े वेग से ; कभी चाक की तरह घूम जातीं, कभी अपने हाथ उठा -उठा कर भाव बतातीं, तो कभी विभिन्न प्रकार से चमकातीं ; कलापूर्ण ढंग से कभी मुस्करातीं, तो कभी भौंहें मटकातीं। नाचते -नाचते उनकी पतली कमर ऐसी लचक जातीं थीं, मानो टूट गयी हो। कानों के कुण्डल हिल -हिलकर कपोलों पर आ जाते थे। परिश्रम से पसीनें की बूँदें मुँह पर झलकने लगीं थीं केशों की चोटियाँ कुछ ढीली पद गयीं थीं। 

       इस प्रकार नंदलाल और उनकी परम प्रेयसी गोपियाँ साथ में गा गा कर नाच रहीं थीं। उस समय ऐसा जान पड़ता था मानो बहुत से श्रीकृष्ण तो साँवले -साँवले मेघ -मण्डल हैं और उनके बीच में चमकती हुईं गोरी गोपियाँ बिजली हैं। उनकी असीम शोभा थी। गोपियों का जीवन भगवान् की रति है, प्रेम है। वे श्रीकृष्ण से सट कर नाचते -नाचते ऊँचे स्वर से मधुर गान कर रही थीं। श्रीकृष्ण का संस्पर्श पा कर और भी आनंदमग्न हो रही थीं। उनके राग रागिनियों से पूर्ण गान से यह सारा जगत अब भी गूँज रहा है। 

           किसी गोपी के थोड़े ऊँचे स्वर में मधुर और विलक्षण गान की प्रशंसा करने लगे। उसी राग को एक दूसरी सखी ने ध्रुपद में गाया, भगवान् ने उसका भी बहुत सम्मान किया। नृत्य से बहुत थक गयी एक गोपी ने श्यामसुन्दर के कंधे को अपनी बाँह से कसकर पकड़ लिया। भगवान् श्रीकृष्ण ने अपना एक हाथ दूसरी गोपी के कंधे पर रख रखा था। कमल के समान उनके सुगन्धित बाँह पर चन्दन का लेप था जिसके सुगंध से उस गोपी का रोम रोम पुलकित हो गया और उसने झट से उसे चूम लिया। नृत्य करती एक गोपी के हिल रहे कुण्डल की छटा से उसके कपोल और भी चमक रहे थे; उसने अपने कपोलों को भगवान् श्रीकृष्ण के कपोल से सटा दिया और भगवान् ने उसके मुँह में अपना चबाया हुआ पान दे दिया। कोई गोपी नूपुर और करधनी के घुंघरुओं को झंकारती हुई नाच और गा रही थी; जब वह बहुत थक गयी तो उसने बगल में खड़े श्यामसुंदर के शीतल करकमल को अपने दोनों स्तनों पर रख लिया। 

         शुकदेव जी कहते हैं, हे परीक्षित ! गोपियों का सौभाग्य लक्ष्मी जी से भी बढ़कर है। लक्ष्मी जी के परम प्रियतम एकान्तवल्लभ भगवान् श्रीकृष्ण को अपने परम प्रियतम के रूप में पाकर गोपियाँ गान करती हुईं उनके साथ विहार करने लगीं। भगवान् ने उनके गलों को अपने भुजपाश में बाँध रखा था, उस समय गोपियों की बड़ी अपूर्व शोभा थी। उनके कानों में कमल के कुण्डल शोभायमान थे।  घुँघराली अलकें कपोलों पर लटक रही थीं। पसीने की बूंदें छलकने से उनके मुख की छटा निराली हो गयी थी। उनके कंगन और पायजेबों के बाजे बज रहे थे। जूड़ों और चोटियों में गुँथे हुए फूल गिरते जा रहे थे। जैसे नन्हा -सा शिशु निर्विकार भाव से अपनी परछाईं के साथ खेलता है,वैसे ही रमारमण भगवान् श्रीकृष्ण कभी उन्हें अपने हृदय से लगाते, कभी हाथ से उनका अङ्गस्पर्श करते, कभी प्रेम भरी तिरछी चितवन से उनकी ओर देखते तो कभी लीला से उन्मुक्त हँसी हँसने लगते। इस प्रकार उन्होंने व्रजसुंदरियों के साथ क्रीड़ा की, विहार किया।            

             भगवान् के अङ्गों का स्पर्श पा करके गोपियों की इन्द्रियाँ प्रेम और आनंद से विह्वल हो गयीं। उनके केश बिखर गये। फूलों  हार टूट गए और गहने अस्त -व्यस्त हो गये। वे अपने केश, वस्त्र और कंचुकी को भी पूर्णतया सँभालने में असमर्थ हो गयीं। भगवान् श्रीकृष्ण की यह रासक्रीड़ा देखकर स्वर्ग की देवांगनाएँ भी मिलन की कामना से मोहित हो गयीं। समस्त तारों तथा ग्रहों के साथ चन्द्रमा भी चकित, विस्मित हो गये। यद्यपि भगवान् आत्माराम हैं, उन्हें अपने अतिरिक्त और किसी की भी आवश्यकता नहीं है -- फिर भी उन्होंने जितनी गोपियाँ थीं उतने ही रूप धारण किये और खेल -खेल में उनके साथ इस प्रकार विहार किया। जब बहुत देर तक गान और नृत्य आदि विहार करने के कारण गोपियाँ थक गयीं, तब करुणामय भगवान् श्रीकृष्ण ने बड़े प्रेम से स्वयं अपने सुखद करकमलों द्वारा उनके मुँह पोंछे। भगवान् के करकमल और नखस्पर्श से गोपियों को बड़ा आनंद हुआ। उन्होंने अपने उन कपोलों के सौंदर्य से, जिनपर सोने के कुण्डल झिलमिला रहे थे और घुँघराली अलकें  रहीं थीं तथा उस प्रेमभरी चितवन से, जो सुधा से भी मीठी मुस्कान से उज्जवल हो रहीं थीं, भगवान् श्रीकृष्ण का सम्मान किया और प्रभु की परम पवित्र लीलाओं का गान करने लगीं। 

            इसके बाद जैसे थका हुआ गजराज किनारों को तोड़ता हुआ हथिनियों के साथ जल में घुस कर क्रीड़ा करता है उसी प्रकार लोक और वेद की मर्यादा का अतिक्रमण करने वाले भगवान् ने अपनी थकान दूर करने के लिए गोपियों के साथ जलक्रीड़ा करने के लिए यमुना जी के जल में प्रवेश किया। उस समय भगवान् की वनमाला गोपियों के अङ्गों की रगड़ से कुछ कुचल सी गयी थी और उनकर वक्षःस्थल की केसर से वह रंग भी गयी थी। उनके चारों ओर गुनगुनाते हुए भौंरे उनके पीछे -पीछे इस प्रकार चल रहे थे मानो गंधर्वराज उनकी कीर्ति का गान करते हुए पीछे -पीछे चल रहे हों। यमुना जल में गोपियों ने प्रेमभरी चितवन से भगवान् की ओर देख -देखकर तथा हँस -हँसकर उनपर इधर -उधर से जल की खूब बौछारें डालीं। जल उलीच उलीच कर उन्हें खूब नहलाया। विमानों पर चढ़े हुए देवता पुष्पों की वर्षा करके उनकी स्तुति करने लगे।  इस प्रकार यमुना में स्वयं आत्माराम भगवान् श्रीकृष्ण ने गजराज के समान जल विहार किया। इसके बाद भगवान् श्रीकृष्ण व्रजयुवतियों और भौंरों की भीड़ से घिरे हुए यमुना तट के उपवन में गए। उस रमणीक उपवन में सुन्दर सुगन्धित पुष्पों से गुजरती हुई ठंडी वायु चल रही थी। उस उपवन में भगवान् इस प्रकार विचरण करने लगे जैसे मदमत्त गजराज हथिनियों के झुण्ड के साथ घूम रहा हो। 

              शरद पूर्णिमा की वह रात्रि जिसमे अनेक रात्रियाँ पुञ्जीभूत हो गयी थीं, बहुत ही सुन्दर थी। चारों ओर बड़ी सुन्दर चाँदनी छिटक रही थी।  काव्यों में शरद ऋतु की जिन रस -सामग्रियों का वर्णन मिलता है, उन सभी से वह युक्त थी। उसमें भगवान् श्रीकृष्ण ने अपनी प्रेयसी गोपियों के साथ यमुना जी के पुलिन, यमुना जी और उसके उपवन में विहार किया। यह बात स्मरण रखना चाहिए कि भगवान् सत्यसंकल्प हैं। यह सब उनके चिन्मय संकल्प की ही चिन्मयी लीला है और इस लीला में कामभाव को, उसकी चेष्टाओं को तथा उसकी क्रिया को सर्वथा अपने अधीन कर रखा था, उन्हें अपने -आप में कैद कर रखा था।         

             यह भगवान् की रासलीला पढ़कर या सुनकर भक्तों के मन में कुछ शङ्का हो सकती है जैसी कि राजा परीक्षित के मन में हुई थी। उन्होंने कथा सुनाने वाले शुकदेव जी से इस प्रकार शङ्का प्रकट की - "भगवान् श्रीकृष्ण सारे जगत के एक मात्र स्वामी हैं। उन्होंने अपने अंश श्रीबलरामजी के सहित पूर्ण रूप में अवतार ग्रहण किया था। उनके अवतार का उद्देश्य ही यह था कि धर्म की स्थापना हो और अधर्म का नाश। वे धर्म मर्यादा को बनाने वाले, उपदेश करने वाले और रक्षक थे। फिर उन्होंने स्वयं धर्म के विपरीत परस्त्रियों का स्पर्श कैसे किया। मैं मानता हूँ कि भगवान् श्रीकृष्ण पूर्णकाम थे, उन्हें किसी भी वस्तु की कामना नहीं थी, फिर भी उन्होंने किस अभिप्राय से यह निंदनीय कर्म किया? आप कृपा करके मेरा यह संदेह मिटाइये।"

           श्रीशुकदेवजी ने कहा - "सूर्य, अग्नि, आदि ईश्वर (समर्थ) कभी -कभी धर्म का उल्लङ्घन और साहस का काम करते देखे जाते हैं। परन्तु उन कामों से उन तेजस्वी पुरुषों को कोई दोष नहीं होता। देखो, अग्नि सब कुछ खा जाता है, परन्तु उन पदार्थों के दोष से लिप्त नहीं होता। जिन लोगों में ऐसी सामर्थ्य नहीं है, उन्हें मन से भी वैसी बात कभी नहीं सोचनी चाहिए, शरीर से करना तो दूर रहा। यदि मूर्खतावश कोई ऐसा काम कर बैठे, तो उसका नाश हो जाता है। भगवान् शङ्कर ने हलाहल विष पी लिया था, दूसरा कोई पिये तो वह जल कर भस्म हो जायगा। इसलिये इस प्रकार के जो शङ्कर आदि ईश्वर हैं, अपने अधिकार के अनुसार उनके वचन को ही सत्य मानना और उसी के अनुसार आचरण करना चाहिये। उनके आचरण का अनुकरण तो कहीं -कहीं ही किया जाता है। इसलिए बुद्धिमान पुरुष को चाहिये कि उनका जो आचरण उनके उपदेश के अनुकूल हो, उसी को जीवन में उतारें। परीक्षित ! वे सामर्थ्यवान पुरुष अहङ्कारहीन होते हैं, शुभ कर्म करने में उनका कोई सांसारिक स्वार्थ नहीं होता और अशुभ कर्म करने में अनर्थ (नुकसान) नहीं होता। वे स्वार्थ और अनर्थ से ऊपर उठे होते हैं। वे पशु, पक्षी, मनुष्य, देवता आदि समस्त चराचर जीवों के एकमात्र प्रभु सर्वेश्वर भगवान् हैं, उनके साथ मानवीय शुभ और अशुभ का सम्बन्ध कैसे जोड़ा जा सकता है। जिनके चरणकमलों के रज का सेवन करके भक्तजन तृप्त हो जाते हैं, जिनके साथ योग प्राप्त करके उसके प्रभाव से योगी जन अपने सारे कर्म बन्धन काट डालते हैं और विचारशील ज्ञानीजन जिनके तत्व का विचार करके तत्स्वरूप हो जाते हैं तथा समस्त कर्म-बन्धनों से मुक्त हो कर स्वच्छन्द विचरते हैं, वे ही भगवान् अपने भक्तों की इच्छा से अपना चिन्मय विग्रह प्रकट करते हैं, तब भला उनमें कर्मबन्धन की कल्पना ही कैसे हो सकती है। गोपियों के, उनके पतियों के और उनके सम्पूर्ण शरीरधारियों के अंतःकरणों में जो आत्मारूप से विराजमान हैं, जो सबके साक्षी और परमपति हैं वही तो अपना दिव्य -चिन्मय श्रीविग्रह प्रकट करके यह लीला कर रहे हैं। भगवान् जीवों पर कृपा करने के लिए ही अपने को मनुष्य रूप में प्रकट करते हैं और ऐसी लीलाएँ करते हैं जिन्हें सुनकर सुनकर जीव भगवत्परायण हो जायँ। व्रजवासी गोपों ने भगवान् श्रीकृष्ण में तनिक भी दोषबुद्धि नहीं की। वे उनकी योगमाया  से मोहित होकर ऐसा समझ रहे थे कि हमारी पत्नियाँ हमारे पास ही हैं। ब्रह्मा की रात्रि के बराबर वह रात्रि बीत गयी। ब्राह्ममुहूर्त आया। यद्यपि गोपियों की इच्छा अपने घर लौटने की नहीं थी, फिर भी भगवान् श्रीकृष्ण की आज्ञा से वे अपने -अपने घर चली गयीं। क्योंकि वे अपनी प्रत्येक चेष्टा से, प्रत्येक संकल्प से केवल भगवान् को ही प्रसन्न करना चाहती थीं। परीक्षित ! जो धीर पुरुष व्रजयुवतियों के साथ भगवान् श्रीकृष्ण के इस चिन्मय रास -विलास का श्रद्धा के साथ बार -बार श्रवण और वर्णन करता है, उसे भगवान् के चरणों में परा भक्ति की प्राप्ति होती है और वह बहुत ही शीघ्र अपने हृदय के रोग - कामविकार से छुटकारा पा जाता है। उसका कामभाव सर्वदा के लिए नष्ट हो जाता है।"

(गीता प्रेस से प्रकाशित श्रीमद्भागवत महापुराण से साभार)

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20. देवताओं के वैद्य अश्विनीकुमारों की अद्भुत कथा  ....
(The great doctors of Gods-Ashwinikumars !). भाग - 4 (चिकित्सा के द्वारा चिकित्सा के द्वारा अंधों को दृष्टि प्रदान करना)
19. God does not like Ego i.e. अहंकार ! अभिमान ! घमंड !

18. देवताओं के वैद्य अश्विनीकुमारों की अदभुत कथा (The great doctors of Gods-Ashwinikumars !)-भाग -3 (चिकित्सा के द्वारा युवावस्था प्रदान करना)

17. देवताओं के वैद्य अश्विनीकुमारों की अदभुत कथा (The great doctors of Gods-Ashwinikumars !)-भाग -2 (चिकित्सा के द्वारा युवावस्था प्रदान करना)

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16. बाबा बासुकीनाथ का नचारी भजन -Baba Basukinath's "Nachari-Bhajan" !

15. शिवषडक्षर स्तोत्र (Shiva Shadakshar Stotra-The Prayer of Shiva related to Six letters)

14. देवताओं के वैद्य अश्विनीकुमारों की अदभुत कथा (The great doctors of Gods-Ashwinikumars !)-भाग -१ (अश्विनीकुमार और नकुल- सहदेव का जन्म)

13. पवित्र शमी एवं मन्दार को वरदान की कथा (Shami patra and Mandar phool)

12. Daily Shiva Prayer - दैनिक शिव आराधना

11. Shiva_Manas_Puja (शिव मानस पूजा)

10. Morning Dhyana of Shiva (शिव प्रातः स्मरण) !

09. जप कैसे करें ?

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08. पूजा में अष्टक का महत्त्व ....Importance of eight-shloka- Prayer (Ashtak) !

07. संक्षिप्त लक्ष्मी पूजन विधि...! How to Worship Lakshmi by yourself ..!!

06. Common misbeliefs about Hindu Gods ... !!

05. Why should we worship Goddess "Durga" ... माँ दुर्गा की आराधना क्यों जरुरी है ?

04. Importance of 'Bilva Patra' in "Shiv-Pujan" & "Bilvastak"... शिव पूजन में बिल्व पत्र का महत्व !!

03. Bhagwat path in short ..!! संक्षिप्त भागवत पाठ !!

02. What Lord Shiva likes .. ? भगवान शिव को क्या क्या प्रिय है ?

01. The Sun and the Earth are Gods we can see .....

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