Wednesday, July 11, 2018

संस्कृत सूक्तों के प्रारम्भ में शीर्षक का क्या अर्थ है ?

              वेदों में संस्कृत सूक्तों के प्रारम्भ में एक शीर्षक होता है। हम सूक्तों के पहले इन्हें पढ़ लेते हैं।  किन्तु इनका क्या अर्थ है ? कई लोगों को यह जानने की इच्छा होती है, पर समय पर पता नहीं चलता और फिर भूल जाते हैं। ऋग्वेद को ही लें।  इसके सबसे पहले सूक्त के प्रारम्भ में इस प्रकार का शीर्षक है:-
ऋषि -मधुच्छन्दा वैश्वामित्र। देवता -अग्नि। गायत्री छन्दः। ब्रह्मयज्ञान्ते विनियोगः अग्निष्टोमे च।  
सूक्तों के पूर्व इन परिचयात्मक शब्दों के बारे में जानने के लिए पहले हम जानें कि सूक्त क्या होते हैं, ऋषि कौन हैं ? 
         एक अकेला मन्त्र ऋक྄ (Rik) कहलाता है। एक ऋषि द्वारा एक देवता विशेष की प्रशंसा में रचित मंत्रों के समूह को सूक्त कहा जाता है। अनेक ऋषियों द्वारा रचित सूक्तों का संग्रह जब एक ऋषि द्वारा किया जाता है तो इस संग्रह को मंडल कहा जाता है। ऋग्वेद में ऐसे ही मंडल हैं।   
        ऋषि शब्द से हमारी कल्पना में जो चित्र आता है वह लम्बे बाल - दाढ़ी वाले, सफ़ेद या गेरुआ वस्त्र धारण करने वाले, विभिन्न शक्तियों से संपन्न, कर्मकाण्डों के ज्ञाता और आश्रम में रहने वाले वृद्ध ब्राह्मण। यथा - ऋषि वेद व्यास, ऋषि वाल्मीकि आदि। किन्तु यहाँ ऋषि का अर्थ है - "यस्य वाक्यं सा ऋषि", अर्थात྄ ऋषि वह व्यक्ति है जिनके ये शब्द समूह हैं। इस प्रकार उपरोक्त परिचयात्मक शीर्षक में ऋषि का अर्थ सूक्त के रचनाकार हैं। यहाँ ऋषि का नाम है - मधुच्छन्दा वैश्वामित्र। विश्वामित्र के पुत्र मधुच्छन्दा ऋषि (जैसे वसुदेव के पुत्र को वासुदेव कहते हैं, वैसे ही विश्वामित्र के पुत्र हुए वैश्वामित्र)।
          देवता क्या है ? "तेनोचेता सा देवता", अर्थात सूक्त की विषयवस्तु देवता है। यह विषयवस्तु अर्थात྄ देवता कोई सामान्य अर्थों में व्यक्ति रूप में भी हो सकते हैं (God) या कोई क्रिया भी हो सकती है (जैसे दान), यहाँ देवता हैं - अग्नि देवता।        
            छन्द का अर्थ है लय (Meter of reading)। अर्थात྄ किस लय के अनुसार ये लिखी गईं हैं और इसी लय में इन्हें पढ़ना चाहिए। संस्कृत में प्रायः इस प्रकार के छंद होते हैं - गायत्री छन्द, अनुष्टुभ छन्द, त्रिष्टुभ छंद। इनके लय अलग -अलग होते हैं। यहाँ गायत्री छन्द का प्रयोग हुआ है।  
             अब चौथे और अंतिम भाग पर आते हैं। यह है विनियोग। विनियोग का अर्थ है - जहाँ यह प्रयुक्त होगा (Application), जैसे यहाँ ब्रह्मयज्ञान्ते विनियोगः अग्निष्टोमे च का अर्थ है - इसका प्रयोग ब्रह्मयज्ञ के अंत में तथा आठवें अग्नि यज्ञ में होता है। 
          इस प्रकार सूक्तों के प्रारम्भ में इन परिचयात्मक शीर्षक के चार भाग में सूक्त रचयिता का नाम, देवता का नाम, जिस छन्द में रची गयी हैं उस छन्द का नाम और जहाँ इसका प्रयोग होता है उसका नाम दिया जाता है। 
सूक्त परिचय 
 
           अन्य पुरातन धार्मिक सूक्तों जो विभिन्न पुराणों से लिए गए हैं में भी इस प्रकार के परिचयात्मक शीर्षक मिलते हैं। शीर्षक में इन चार भागों के अलावा और भी भाग जुड़े मिलते हैं। उदहारण के लिए मार्कण्डेय पुराण में वर्णित दुर्गासप्तशती के प्रारम्भ में दिया गया शीर्षक इस प्रकार है :-
ॐ प्रथमचरित्रस्य ब्रह्मा ऋषिः, महाकाली देवता, गायत्री छन्दः, नंदा शक्तिः, रक्तदन्तिका बीजम྄, अग्निस्तत्त्वम྄, ऋग्वेदः स्वरूपम྄, श्रीमहाकालीप्रीत्यर्थे प्रथम चरित्र जपे विनियोगः।       
हम देख सकते हैं कि इसमें ऋग्वेद के अनुसार चार जानकारियों के अतिरिक्त भी जानकारियां दी गयी हैं। ये इस प्रकार हैं (अतिरिक्त जानकारियों को लाल रंगों में दिया गया है):-
"प्रथम चरित्र के,
ऋषि ब्रह्मा हैं,
देवता महाकाली हैं,
छन्द गायत्री है,
शक्ति नंदा हैं,
बीज रक्तदन्तिका हैं,
तत्व अग्नि हैं,
स्वरुप ऋग्वेद हैं,
तथा श्रीमहाकाली की प्रसन्नता के लिए प्रथम चरित्र के जप में इसका प्रयोग (Application) है।" 
श्रीदुर्गासप्तशती तीन चरित्रों में हैं जिन्हें प्रथम, मध्यम और उत्तर चरित्र का नाम दिया गया है। अतः यह बताया गया है कि 'यह प्रथम चरित्र है', इसके रचयिता ब्रह्मा नाम के (ऋषि) हैं, इसकी विषयवस्तु अर्थात྄ देवता महाकाली देवी हैं (ध्यान देनेवाली बात है कि महाकाली के लिए भी देवता शब्द का ही प्रयोग किया गया है देवी नहीं जिससे स्पष्ट है की देवता का अर्थ इनमें विषयवस्तु है), यह गायत्री छन्द में है, इसकी शक्ति / सामर्थ्य नन्दा देवी हैं,  इस प्रथम चरित्र के बीज रक्तदन्तिका देवी हैं, इसका तत्व अग्नि है, वेदों में यह ऋग्वेद स्वरुप है तथा श्रीमहाकाली की प्रसन्नता के लिए प्रथम चरित्र के जप में इसका प्रयोग (Application) है।         
         जिस प्रकार प्राणियों में प्राण ही उन्हें उस रूप में रखता है उसी प्रकार यहाँ बीज का अर्थ इन सूक्तों के प्राण रूप में समझाना चाहिए। अतः हम देखते हैं कि सूक्तों के प्रारम्भ में दिए गए इन शीर्षक से हमें कई महत्वपूर्ण सूचनाएं मिलती हैं जिन्हें समझ लेने से हम सिर्फ सूक्तों का पाठ ही नहीं करते बल्कि यह भी जानते हैं कि हम क्या कर रहे हैं। 












































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Sunday, July 8, 2018

शिव -अभिषेक (Shiva-Abhishekam)

(चित्र whatsapp से साभार)
             भगवान शिव की पूजा मन्त्र, तंत्र, क्रिया, मुद्रा अथवा अभिषेक द्वारा की जाती है। अभिषेक का शाब्दिक अर्थ विभिन्न पूजा सामग्रियों द्वारा भगवान की पूजा है। परन्तु प्रचलित अर्थ में अभिषेक का तात्पर्य शिवलिंग या ईश्वर की मूर्ति पर किसी द्रव की धीमी धार डालना, किसी लेप से शिवलिंग या मूर्ति को पूरी तरह लेपना अथवा किसी पावडर (चूर्ण) को धीरे -धीरे छिड़कना है। भगवान् शिव का अभिषेक भी विभिन्न सामग्रियों से किया जाता है। शिवलिंग पर जल डालना 'जलाभिषेक', दूध डालना 'दुग्धाभिषेक' एवं 
विभिन्न मंत्रोच्चार (यथा रुद्राष्टाध्यायी) के साथ विभिन्न सामग्रियों यथा जल, गंगाजल, पञ्चामृत, दूध, दही, घी, मधु, गुड़, गन्ने का रस डालते हुए पूजा करना "रुद्राभिषेक" कहलाता है। भक्तों में निम्नलिखित शिव - अभिषेक लोकप्रिय हैं:-
1. जलाभिषेक 
शिवलिंग की पूजा का यह अनिवार्य हिस्सा है। शिवलिंग पर जल की अथवा गंगाजल की धीमी धार डालना शिव -स्नान भी है। जलाभिषेक अन्य अभिषेकों के पूर्ण होने पर और श्रृंगार के पूर्व भी आवश्यक है, इसे शुद्धोदक स्नान भी कहा जाता है। प्रारंभिक जलाभिषेक में यह मन्त्र बोला जाता है ,
मन्दाकिन्यास्तु यद्वारि सर्वपापहरं शुभम।
तदिदं कल्पितं देव !स्नानार्थं प्रतिगृह्यताम। 
अन्य अभिषेकों की समाप्ति पर (श्रृंगार से पूर्व) पुनः जलाभिषेक में उपरोक्त मन्त्र बोला जाता है। 

 

2. पञ्चामृत -अभिषेक
पञ्चामृत बनाने के लिए पांच अमृत-तुल्य द्रव - दूध, दही, घी, मधु (शहद) एवं गीला गुड़ को बराबर मात्रा में मिलाया जाता है। मान्यता है कि पञ्चामृत से शिव -अभिषेक करने से घर हमेशा धन - धान्य से भरा रहता है। 
इस अभिषेक में निम्नलिखित मन्त्र का उच्चारण किया जाता है। 
पञ्चामृतं मयाSSनीतं पयो दधि घृतं मधु।
शर्करा च समायुक्तं स्नानार्थं प्रतिगृह्यतां। 
 

3. दुग्धाभिषेक 
शिवलिंग पर धीरे धीरे गाय-दूध की धार डालने को दुग्धाभिषेक कहा जाता है। मान्यता है कि इससे संतान-सुख होता है, अकाल मृत्यु दूर होती है और लम्बा जीवन प्राप्त होता है। इसका मन्त्र यह है,
पयः पवित्रमतुलं  यतः सुरभि - सम्भवा ।
सुस्निग्धं मधुरं देव !स्नानार्थं प्रतिगृह्यताम। 

 
4. दधि - अभिषेक 
शिवलिंग पर दही डालना अथवा लेपन करना दधि - अभिषेक कहलाता है। भक्त यह अभिषेक संतान के सुख, उनके दीर्घायु एवं उन्नति की अभिलाषा हेतु करते हैं। यह अभिषेक संपत्ति (यथा वाहन, भवन, इत्यादि) की प्राप्ति में भी सहायक होता है। मन्त्र यह है,
पयसस्तु समुदभूतं मधुराम्लम शशिप्रभम।
दध्यानीतं मया देव ! स्नानार्थं प्रतिगृह्यताम।  
5. घृताभिषेक
गाय के घी की धार शिवलिंग पर छोड़ना घृताभिषेक है। यह गाढ़ा होता है अतः हाथ से इसका लेपन भी शिवलिंग पर किया जाता है। धन - वृद्धि, शारीरिक दोषों, विकारों एवं रोगों को दूर करने की अभिलाषा से घृताभिषेक किया जाता है। मन्त्र यह है, 
नवनीत समुत्पन्नम      सर्वसंतोषकारकं ।
घृतं तुभ्यं प्रदास्यामि स्नानार्थं प्रतिगृह्यताम। 

6. मधु - अभिषेक 
शहद की शिवलिंग पर धार छोड़ना या लेपन करना मधु -अभिषेक कहलाता है। यह अभिषेक हर प्रकार के कष्टों एवं व्याधियों को जीवन से दूर भगाने और धन प्राप्ति के लिए किया जाता है। निम्नलिखित मन्त्र का उच्चारण किया जाता है। 
पयः  सारम  सुखं  हृद्यं  सर्वदेव  प्रियं घृतं।
स्नानार्थं   ते   प्रयच्छामि   गृहाण  परमेश्वर ! 
तरुपुष्प   समुदभूतं   सुस्वादु   मधुरं  मधु। 
तेजः पुष्टिकरं दिव्यं स्नानार्थम प्रतिगृह्यताम। 
7. शर्करा -अभिषेक
गन्ने के रस की शिवलिंग पर धार छोड़ना, गीले वाले गुड़ से लेपन अथवा जल में गुड़ को घोलकर शिवलिंग पर डालना शर्करा - अभिषेक कहलाता है। गुड़ (शर्करा) मीठा होता है यह सर्वविदित है, इसके अभिषेक से मीठी वाणी प्राप्त होती है जिससे शत्रु नहीं बनते अथवा शत्रु नहीं रहते। इसका मन्त्र निम्नलिखित है, 
इक्षुसार  समुद्भुतां  शर्करां  पुष्टिकारिकाम। 
मालापहारिकां दिव्यां स्नानार्थम प्रतिगृह्यताम। 
बाबा बासुकीनाथ का कुंकुम अभिषेक
(दुमका, झारखंड) 

8. कुंकुम - अभिषेक
कुंकुम पाउडर से शिवलिंग पर छिड़काव कुंकुम - अभिषेक कहलाता है।गुलाबी रंग का यह पाउडर भगवान शिव का प्रिय है। यह भाग्य बनाता है। कई लोगों द्वारा इसे शिव को नहीं चढाने की बात कही जाती है किन्तु यह गलत है। बाबा बसुकिनाथधाम स्थित नागेश ज्योतिर्लिङ्ग पर तो यह विशेष अभिषेक नित्य भक्तों द्वारा निरंतर किया जाता है। अक्षत - कुंकुम से अभिषेक का मन्त्र यह है,

अक्षताश्च सुरश्रेष्ठ कुंकुमाक्ताः सुशोभिताः।
मया निवेदिता  भक्त्या   गृहाण  परमेश्वर। 
 
9. हरिद्राभिषेक 
हल्दी के लेप द्वारा शिवलिंग का लेपन हरिद्राविषेक है। यह विवाह - बाधा शांति, स्वास्थ्य वृद्धि एवं शत्रु नाश में फलदायी है। पुनः कुछ लोगों द्वारा शिव पर हल्दी नहीं चढाने की बात कही जाती है। किन्तु यह भी सही नहीं है। बाबा बैद्यनाथधाम के प्रसिद्ध ज्योतिर्लिङ्ग पर प्रतिदिन हल्दी लेप से अभिषेक किया जाता है। इसे टीवी के कुछ चैनल और यूट्यूब पर प्रतिदिन लाइव भी देखाजासकता है। 
हरिद्रादि लेपनं शुभं शान्ति सुखवर्धनम । 
शुभदं कामदं चैव हरिद्रादि प्रतिगृह्यताम। 
     
10. रुद्राभिषेक 
रुद्राभिषेक एक लम्बी पूजा है जिसमे भगवान शिव के रूद्र एवं महामृत्युंजय रूप की रुद्राष्टाध्यायी मंत्रों के साथ उपरोक्त सभी अभिषेक किये जाते हैं। इसके अलावा किसी विशेष मनोरथ की प्राप्ति हेतु विशेषज्ञ पंडित जी द्वारा बताये गए वस्तु विशेष द्वारा भी अभिषेक किया जाता है। यथा भस्म (विभूति), चन्दन, केसर, शाक - औषधि युक्त सुगन्धित जल, तीर्थ - जल, विभिन्न प्रकार के तैल (तेल), आम्र - रस, इत्यादि द्वारा अभिषेक। {अभी कुछ ही दिनों पहले एक भक्त द्वारा बाबा सोमनाथ ज्योतिर्लिङ्ग का कई किलो आम्र - रस (आम के रस) द्वारा अभिषेक कराने का समाचार चित्रसहित टीवी पर आया था। इसके अभिषेक से लम्बी एवं असाध्य बीमारी से छुटकारा मिलने का फल है।}
           रुद्राभिषेक किसी भी मनोरथ की सिद्धि हेतु किया जाता है। ज्योतिर्लिङ्ग (द्वादश ज्योतिर्लिङ्ग), प्राचीन काल से लगातार पूजे जाने वाले शिवलिङ्ग {यथा लिङ्गराज, भुबनेश्वर; तुंगनाथ, रुद्रनाथ, मध्यमहेश्वर, कल्पेश्वर, (चारों पंच - केदार के अंग जो उत्तराखंड में स्थित हैं), आदि} एवं जिस शिवलिङ्ग को असंख्य भक्तों द्वारा आस्था सहित पूजा जाता है - ऐसे शिवलिङ्ग पर रुद्राभिषेक अतिफलदायी होता है। रुद्राभिषेक मंदिरों में ही नहीं बल्कि घर पर भी पार्थिव शिवलिङ्ग (मिट्टी से बना) बनाकर अथवा पारद शिवलिङ्ग पर किया जा सकता है, इसका अपना ही महत्त्व है। रुद्राभिषेक में जब तक रुद्राष्टाध्यायी के मन्त्र का उच्चारण होता है तब तक लगातार शिवलिङ्ग पर जल, गंगाजल, दूध, गन्ने के रस की धार बिना रुके अनवरत गिरते रहना चाहिए। अनवरत धार हेतु एक विशेष बर्तन का प्रयोग किया जाता है जिसे भृंगी कहते हैं। इसका यह नाम इसके सींग सामान आकार के कारण रखा गया है। इसके उपरवाले चौड़े मुँह पर पतला कपड़ा लगाया जाता है ताकि इसमें डाला  जाने वाला द्रव छन जाय एवं नीचे का बहुत ही पतला निकास छिद्र बंद न हो। पतला धार निकलने के कारण इसमें डाला गया पतला द्रव देर तक शिवलिङ्ग पर गिरता है।                इसके अतिरिक्त तिथि का भी महत्त्व है, यथा सोमवार, प्रदोष एवं शिवरात्रि। प्रतिपदा, अमावस्या, अष्टमी एवं त्रयोदशी तिथि के अभिषेक का विशेष महत्व है। फिर श्रावण के महीने का कहना ही क्या ! यह तो शिवपूजा का विशेष मास है। इस महीने में अभिषेक का महत्त्व तो कोई बिहार राज्य के सुल्तानगंज से लेकर झारखण्ड के देवघर (जहाँ बाबा बैद्यनाथधाम ज्योतिर्लिङ्ग हैं।) और बाबा बसुकिनाथधाम तक के रास्तों, मंदिरों और शहरों तक में भक्तों की भीड़ देखकर समझा जा सकता है। जहाँ इस महीने में लाखों भक्त प्रतिदिन विश्वप्रसिद्ध कांवड़ यात्रा कर सुल्तानगंज से गंगाजल लाकर शिवलिंग का अभिषेक करते हैं। इसके अलावा कई प्रसिद्द शिवलिंगों पर पास की नदी का जल लाकर सावन मास में अभिषेक करते हैं। कुछ भक्त सावन में प्रतिदिन, कुछ प्रत्येक सावन के सोमवार को और कुछ कम से कम एक बार अवश्य यह करते हैं। 
            अभिषेक का मन्त्र जरूरी नहीं कि उपरोक्त संस्कृत मन्त्र ही बोला जाय। अपनी भाषा में अर्पित किये जानेवाले वस्तु का नाम लेकर उसका गुण बताते हुए यह कहें कि महादेव यह मैं आपको अर्पित करता हूँ, कृपया ग्रहण करें।  
          महादेव की पूजा एवं अभिषेक जिस प्रकार या जिस वस्तु से की जाये, जिस तिथि या मास में की जाये अथवा जिस प्रकार के शिवलिङ्ग पर की जाये - सबसे महत्वपूर्ण है की श्रद्धा एवं विश्वास से की जाये। क्योंकि भोलेनाथ को किसी चीज की आवश्यकता नहीं है उन्हें चाहिए तो बस भक्त का भाव। बाबा तुलसीदास ने भी श्री रामचरितमानस में कहा है :-
भवानीशङ्करौ   वन्द्ये     श्रद्धा   विश्वास   रुपिणौ। 
याभ्यां विना न पश्यन्ति सिद्धाः स्वान्तस्थमिश्वरम। 
अर्थात, मैं भवानी और शंकर की वन्दना करता हूँ जो श्रद्धा एवं विश्वास के रूप हैं, उनके बिना (बिना श्रद्धा और विश्वास के) सिद्ध पुरुष भी अपने अंतःकरण में स्थित भगवान को नहीं देख पाते हैं।
 














































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