Monday, March 19, 2018

निर्वाण षट्कम, आत्म षट्कम !

||ॐ||

      आदि गुरु शंकराचार्य बाल्यावस्था में अपनी माँ से सन्यास की अनुमति ले कर सतगुरु की खोज में निकले। सतगुरु की खोज में भटकते हुए वे नर्मदा नदी के तट पर पहुँचे। उस समय नर्मदा में बाढ़ आई हुई थी, नदी उफान पर थी और बालक शंकर को नदी पार करनी थी। बालक ने अपने कमंडल को आगे किया और आश्चर्यजनक रूप से बाढ़ का सारा पानी कमंडल में समा गया। नदी पार कर बालक ने कमंडल का सारा पानी पुनः नर्मदा में डाल दिया, नदी फिर से उफनने लगी। पास ही बैठे एक ऋषि गोविन्द भगवत्पाद यह लीला कौतुकवश देख रहे थे। उन्होंने बालक से पूछा "बालक, तुम कौन हो ?" इसका उत्तर बालक ने पद्य में दिया।  छः श्लोकों वाले इस पद्य को ही निर्वाण-षट्कम अथवा आत्म -षट्कम के नाम से जाना जाता है। अद्वैत वेदांत के सिद्धांत का मजबूती से प्रचार करनेवाले शंकर के इन छः श्लोकों में इसी सिद्धांत की झलक मिलती है। 
         बालक का उत्तर सुनते ही ऋषि ने समझ लिया कि ज्ञान ग्रहण के लिए यह बालक उपयुक्त है और उसे अपना शिष्य स्वीकार कर लिया। निर्वाण षट्कम निम्नलिखित है :--
निर्वाण षट्कम

मनो बुद्ध्यहंकारचित्तानि नाहम् श्रोत्र जिह्वे घ्राण नेत्रे
व्योम भूमिर् तेजॊ वायु: चिदानन्द रूप: शिवोऽहम् शिवॊऽहम्
प्राण संज्ञो वै पञ्चवायु: वा सप्तधातुर् वा पञ्चकोश:
वाक्पाणिपादौ चोपस्थपायू चिदानन्द रूप: शिवोऽहम् शिवॊऽहम्
मे द्वेष रागौ मे लोभ मोहौ मदो नैव मे नैव मात्सर्य भाव:
धर्मो चार्थो कामो ना मोक्ष: चिदानन्द रूप: शिवोऽहम् शिवॊऽहम्
पुण्यं पापं सौख्यं दु:खम् मन्त्रो तीर्थं वेदा: यज्ञा:
अहं भोजनं नैव भोज्यं भोक्ता चिदानन्द रूप: शिवोऽहम् शिवॊऽहम्
मृत्युर् शंका मे जातिभेद: पिता नैव मे नैव माता जन्म
बन्धुर् मित्रं गुरुर्नैव शिष्य: चिदानन्द रूप: शिवोऽहम् शिवॊऽहम्
अहं निर्विकल्पॊ निराकार रूपॊ विभुत्वाच्च सर्वत्र सर्वेन्द्रियाणाम्
चासंगतं नैव मुक्तिर् मेय: चिदानन्द रूप: शिवोऽहम् शिवॊऽहम्
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परमात्मा शिव ही सवर्त्र विद्यमान हैं, इसका सार यही है। शाब्दिक अर्थ इस प्रकार है,

१. न तो मैं मन हूँ न बुद्धि, न अहंकार, न चित्त हूँ और न ही कान हूँ न जीभ, न नाक और न आँख हूँ। मैं आकाश, भूमि, अग्नि और वायु भी नहीं हूँ। मैं चिदानंद स्वरुप शिव हूँ, शिव हूँ।   

२. न तो मैं प्राण हूँ न पञ्च-वायु, न सप्त-धातु और न पञ्च - कोष हूँ। मैं वाणी, हाथ, पाँव और निकास भी नहीं हूँ। मैं चिदानंद स्वरुप शिव हूँ, शिव हूँ।    

३. न तो मैं द्वेष हूँ न राग, न लोभ, न मोह हूँ। न घमंड हूँ, न मात्सर्यभाव हूँ। मैं धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष भी नहीं हूँ। मैं चिदानंद स्वरुप शिव हूँ, शिव हूँ।  

४. न तो मैं पुण्य हूँ न पाप हूँ, न सुख -भाव हूँ, न दुःख-भाव हूँ और मैं न मन्त्र हूँ न तीर्थ हूँ, न वेद हूँ न ही यज्ञ हूँ। मैं भोजन, भोग की वस्तु और न ही उपभोग करनेवाला हूँ। मैं चिदानंद स्वरुप शिव हूँ, शिव हूँ।    

५. न तो मैं मृत्यु से प्रभावित हूँ न डर से, न मैं जाति में बांटा जा सकता हूँ न मुझमे भेद किया जा सकता है। मेरा कोई बंधु नहीं, न मित्र, न गुरु और न शिष्य है। मैं चिदानंद स्वरुप शिव हूँ, शिव हूँ।  

६. मैं निर्विकल्प, निरकाररूप, स्वचालित, सर्वत्र एवं सभी इन्द्रियों में विद्यमान हूँ। न मैं किसी से बंधा हूँ और न मुक्त हूँ। मैं तो चिदानंद स्वरुप शिव हूँ, शिव हूँ। 
                   
             आदिगुरु शंकराचार्य के द्वारा बाल्य्काल में रचित यह "निर्वाण - षट्कम" गूढ़ भी है सरल भी।  व्यक्ति यदि इसका सदैव मनन चिन्तन करे तो आध्यात्मिक पथ पर निश्चित रूप से अग्रसर होगा। 
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