जन्माष्टमी परमात्मा श्री कृष्ण के सम्पूर्ण कलाओं के साथ पृथ्वी पर अवतार का समय है। परमात्मा के सगुण रूप और शक्ति का साक्षात्कार पृथ्वी के मनुष्यों को कराने हेतु श्री कृष्ण ने कंस के कारागार में जन्म लिया ताकि ईश्वर और उसकी सत्ता पर विश्वास दृढ़ हो। जन्म के साथ ही उनकी लीला प्रारम्भ हो गई। जो कभी नहीं हुआ था वह हुआ। स्वयं ही रक्षकों का सो जाना, कारागार के ताले खुल जाना, भादों की अँधेरी अष्टमी की रात में बाढ़ से लबालब यमुना को बिना किसी की सहायता के वसुदेव का कृष्ण को सर पर रख कर सहज ही पार कर लेना, नन्द जी के घर में बिना किसी के जाने कृष्ण को यशोदा के पास रखना और बदले में बच्ची को सर पर रख कर सुरक्षित वापस आ जाना फिर कारागार का माहौल पूर्ववत हो जाना - धरती पर आते ही इतने सारे चमत्कार एक साथ हो जाना कृष्णलीला का अद्-भुत प्रारम्भ था। श्रीकृष्ण की बाललीलाओं में ही परमात्मा की शक्तियों का ऐसा प्रदर्शन हुआ जो अभूतपूर्व था, अकल्पनीय था। बाल्यावस्था में ही उनकी बुद्धि से बड़े -बड़े प्रभावित थे। उनका प्रभाव ही था कि समाज में बदलाव की प्रक्रिया प्रारम्भ हुई। कई रूढ़ियाँ टूटीं, इन्द्र के स्थान पर गोवर्धन की पूजा प्रारम्भ हुई।
बंसीधर /गोपाल |
भगवान श्रीकृष्ण की चतुराई के कौन बुद्धिमान कायल नहीं थे। अर्जुन ने भगवान की अक्षौहिणी सेना के बदले स्वयं भगवान को ही चुना। वह भी तब जब श्रीकृष्ण महाभारत के युद्ध में अस्त्र -शस्त्र का स्वयं उपयोग न करने हेतु वचनबद्ध थे। सारथी के रूप में भी सेना के बदले अर्जुन को श्रीकृष्ण स्वीकार्य थे। महाभारत एक ऐसा अभूतपूर्व युद्ध था जिसमे एक से बढ़कर एक महारथी योद्धा विध्वंशकारी अस्त्र - शस्त्र के साथ उपस्थित थे, उन्होंने दर्शनीय युद्ध भी किये परंतु पूरे अठारह दिनों तक चले महायुद्ध का नायक सहज ही निःशस्त्र श्रीकृष्ण थे। जिस बर्बरीक ने पूरा युद्ध स्वयं देखा उनके इस स्पष्ट अभिमत से कौन सहमत न होगा। वही बर्बरीक जिसने भगवान की लीलाओं को इस लोकवासियों को देखने हेतु अपना जीवन दान कर दिया और भगवान ने प्रसन्न हो कर उन्हें अपना नाम और वरदान दिया। उन बर्बरीक को हम खाटू - श्याम के नाम से जानते हैं।
भगवान श्रीकृष्ण की चतुराई और रणनीति कालयवन के वध के प्रसंग में अचरज भरी है। अपनी लीलाओं में कभी वे सीधे बल का प्रयोग करते हैं तो कहीं बुद्धि का, कहीं वे कठोर दीखते है तो कहीं करुणा से परिपूर्ण, कहीं अपने भक्तों के हृदय से अभिमान का छोटा सा कतरा भी निकालने से नहीं चूकते तो कहीं निष्काम प्रेम का अनुपम उदाहरण देते हैं।कौन सी कला नहीं दिखलाते हमें ? गोपियों के साथ निष्काम प्रेम को वही समझ सकता है जिसके हृदय में भगवान के चरण कमल बसते हों अन्यथा अनेक तो इसे लैला - मजनू जैसा प्रेम समझते हैं। गोपियों का बिना किसी फल की इच्छा के श्रीकृष्ण के प्रति ऐसा समर्पण भक्ति की उस दिशा को दिखलाता है जिधर पहले किसी ने न देखा था। न ज्ञान चाहिए न योग चाहिए, न यज्ञ चाहिए न कर्मकांड - बस भगवान के चरणों में अनवरत निष्काम प्रेम चाहिए। ईश्वर कुछ देने को भी तैयार हो तो यही मांगें कि इसी तरह उनके चरणों में अनुराग बना रहे। इच्छा भी हो तो मोक्ष की नहीं जो ज्ञानीजन बतलाते हैं बल्कि मरने के बाद भी ईश्वर के चरणों में ही गति मिले। जब ऐसे भाव भक्त के हृदय में घर करते हैं तो प्रेम की अधिकता से जहाँ भी श्रीकृष्ण की प्रतिमा के दर्शन होते हैं आंखें भर आती हैं।
हम साधारण मनुष्यों की तो क्या बात जब वेद व्यास जैसे ज्ञानी भी अनेक पुराण लिखने के बाद भी बेचैन रहें और उन्हें चैन तभी आये जब वे श्रीमद्भागवत महापुराण लिख लें। वही भागवत कथा जिसे सुनकर राजा परीक्षित का मृत्यु भय दूर हुआ। वही भागवत कथा जिसमें भगवान श्रीकृष्ण की लीलाओं और अन्य कथाओं का विस्तृत विवरण है पर मात्र चार श्लोकों में भगवान ने बिल्कुल स्पष्ट कर दिया है कि वे कौन हैं, उनकी माया क्या हैं और ये जगत क्या है -इन चार श्लोकों को "चतुश्लोकी भागवत" के नाम से जाना जाता है जो पूरे श्रीमद्भागवत महापुराण का सार है।
महाभारत प्रारम्भ होने से पहले गीता का जो उपदेश भगवान ने दिया वह आज भी करोड़ों हिंदुओं का सच्चे मार्ग पर चलने हेतु मार्गदर्शन करता है। कृष्ण जन्म भगवान का हम मनुष्यों पर महाउपकार है। उनके जन्म की वर्षगॉँठ को "जन्माष्टमी" त्यौहार के रूप में प्रतिवर्ष मनायें। इस दिन उपवास रख, फलाहार रख या सात्विक आहार के साथ जैसे भी हो परंतु भक्तिभाव के साथ भगवान श्रीकृष्ण के जन्म का उनके नाम संकीर्तन के साथ प्रतीक्षा करें ताकि हमारे जीवन में कभी भय-क्लेश का प्रवेश न हो और सुखपूर्वक हमारा जीवन भगवद्भक्ति के साथ बीते।
जय श्री कृष्ण !
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