||श्री हरि||
हिन्दू धर्मशास्त्रों के अनुसार हमारे तीन पीढ़ियों के पूर्वज स्वर्ग गमन से पूर्व पितृलोक में निवास करते हैं। प्रति वर्ष आश्विन मास के प्रथम पक्ष अर्थात कृष्ण पक्ष में ये पूर्वज पितृलोक से धरती पर अपने परिवार के बीच दिव्य रूप में रहने आते हैं। इसीलिए इस पक्ष को पितृपक्ष कहते हैं। पुर्णिमांत मास के अनुसार भादो पूर्णिमा से प्रारम्भ हो कर आश्विन मास की अमावस्या तक पितृपक्ष कहलाता है। यह सोलह दिनों का होता है। पूर्वजों की आत्मा जिन्हें पितर कहते हैं, को श्रद्धापूर्वक अर्पित भोज्य सामग्री एवं जल को श्राद्ध एवं तर्पण कहते हैं। इन्हें पाकर पितर तृप्त होते हैं और प्रसन्न होकर वंशजों को आशीर्वाद दे कर वापस जाते हैं। पितरों के आशीर्वाद से घर में शांति, समृद्धि एवं वंश की वृद्धि होती है। श्राद्ध तर्पण न करने से पितृदोष लगता है। अतः जिन पूर्वजों के कारण हमलोग जन्म लिए और जिन्होंने पालन -पोषण किया उनके प्रति हमारा कर्तव्य है की हम श्रद्धापूर्वक श्राद्ध-तर्पण करें। कहा जाता है कि पितृपक्ष में किया गया श्राद्ध गया में किये श्राद्ध के बराबर फल देता है।
पितरों में मुख्यतः दिवंगत पिता, माता, पितामह, पितामही, प्रपितामह, प्रपितामही को तर्पण किया जाता है। अर्थात पिता सहित तीन पुश्तों को। घर के बड़े पुत्र की तो विशेष रूप से यह जिम्मेदारी होती है। यदि कोई अपने मातृ पक्ष में सबसे बड़ा भाई होता है (बड़ा नाती) तो दिवंगत नाना को भी तिलांजलि दी जानी चाहिए। पिता का तर्पण उसी तिथि को किया जाता है जिस तिथि को उनका देहान्त होता है। मान लें कि देहांत फाल्गुन मास के शुक्ल पक्ष की सप्तमी तिथि को हुआ तो श्राद्ध-तर्पण पितृपक्ष के सप्तमी तिथि को होगा। पितृ पक्ष में तर्पण के लिए कुछ विशेष दिन होते हैं। भाद्रपद (भादो) पूर्णिमा को उन्हीं का श्राद्ध किया जाता है जिनका देहांत वर्ष की किसी भी पूर्णिमा को हुआ हो। नवमी तिथि को "सधवा नवमी" या "अविधवा नवमी" कहते हैं क्योंकि यह दिन उन दिवंगत स्त्रियों के लिए निश्चित है जो अपने पति से पहले मृत्यु को प्राप्त होती हैं चाहे देहांत किसी भी तिथि को हुआ हो। पितृपक्ष की द्वादशी तिथि मृत्यु को प्राप्त बच्चों या भौतिक दुनिया को त्यागे साधुओं के लिए निश्चित है। जिनकी अकाल मृत्यु शस्त्रों द्वारा या युद्ध में होती उनका श्राद्ध-तर्पण चतुर्दशी तिथि को होता है जिसे घात चतुर्दशी या घायल चतुर्दशी भी बोला जाता है। अमावस्या तिथि को उन पितरों का श्राद्ध किया जाता है जिनके देहावसान की तिथि न मालूम हो या जिनका श्राद्ध करना भूल गए हों। अतः इसे सर्वपितृ अमावस्या कहा जाता है।
वैसे तो पुरोहितों द्वारा नियमपूर्वक श्राद्ध -तर्पण आदि कराने का विधान है किन्तु आजकल व्यस्त - शहरी जीवन में इतना समय निकाल पाना सबके लिए संभव नहीं। अतः कम से कम तिल एवं जल द्वारा पितरों को कुछ मन्त्र पढ़ते हुए श्रद्धांजलि दी ही जा सकती है। पितरों के तिला -तर्पण को स्वयं करने के लिए स्नान के पश्चात् सबसे पहले हाथ में कुशा, जौ, काला तिल, अक्षत एवं जल अथवा गंगाजल ले कर संकल्प करें फिर मन्त्र के साथ पितरों का आह्वान करें। पितृतर्पण के बाद सूर्यदेव को साष्टांग प्रणाम कर उन्हें अर्घ्य देना चाहिए। फिर नारायण को प्रणाम कर पितरों की मुक्ति के लिए प्रार्थना करनी चाहिए।
कम से कम इतना करें कि काला तिल और जल लेकर ही तर्पण करें। इसके लिए पहले स्नान करें, वक्षस्थल खुला रहने दें और दक्षिण दिशा में हाथ जोड़कर पितर का आवाहन करें। यदि पिता हैं तो इस तरह :-
ॐ आगच्छन्तु मे पिता इमं गृहाणान्तु जलाञ्जलिम।
(हे पिता आइये और जलांजलि को ग्रहण कीजिये।)
फिर दोनों हथेलियों को जोड़कर अंजलि में काला तिल एवं जल (या गंगाजल)लें और निम्नलिखित मन्त्र पढ़ते हुए तीन बार दाहिने हाथ के तर्जनी और अंगूठे के बीच से "तस्मै स्वधा नमः" बोलते हुए गिरायें।
(अमुक) गोत्रः (मम /अस्मत) पिता (नाम) शर्मा वसुरूपस्य तृप्यतमिदं तिलोदकं (गंगजलम)
तस्मै स्वधा नमः। तस्मै स्वधा नमः। तस्मै स्वधा नमः।
टिप्पणियाँ :-
(अमुक) - अपने गोत्र का नाम
(मम /अस्मत) -अगर अकेले तर्पण कर रहे हों तो 'मम', भाइयों के साथ तो 'अस्मत'
(नाम) शर्मा - नाम पिता का लें, वर्ण के अनुसार शर्मा -वर्मा या गुप्ता बोलें
तिलोदकं - यदि तिल एवं जल से तर्पण किया जाय
गंगजलम - यदि गंगाजल से किया जाय।
(इस मन्त्र का अर्थ है -"फलाने गोत्र -नाम वाले मेरे/हमारे पिता, जो वसुरूप में हैं, को तृप्त करने के लिए यह तिल मिश्रित जल/गंगाजल है, उन्हें यह अर्पित करते हुए नमस्कार है।")
फिर हाथ जोड़कर पितर को प्रणाम करते हुए आग्रह करें - हे पिता इस तिलांजलि को ग्रहण कर तृप्त होइए और मुझे आशीर्वाद देकर जाइये।
इसके बाद सूर्य भगवान को अर्घ्य देकर साष्टांग प्रणाम करें और विष्णु भगवान को प्रणाम कर पितरों की मुक्ति के लिए प्रार्थना करें।
कौवों, गाय और कुत्ते को भोजन देना चाहिए तथा ब्राह्मण को दान।
सर्वपितृ अमावस्या को सभी भूले बिसरे पितरों अथवा उन वसुरूपों, जो हमसे तृप्त होने की आशा रखते हैं, को भी इसी तरह तिलाञ्जलि दी जा सकती है। इसके लिए निम्नलिखित मन्त्र पढ़ें :-
ये बान्धवा अबान्धवा वा मे अन्यजन्मनि बान्धवा
ते तृप्तम अखिला यान्तु यश्चामत्तो अभिवांछति।
(अर्थात - जो मेरे बंधु हों या बंधु ना हों, चाहे किसी अन्य जन्म के बंधु हों वे सभी इस तिलाञ्जलि से तृप्त होवें जिनको भी इसकी इच्छा हो।)
यहाँ यह ध्यान रखना आवश्यक है कि यदि संस्कृत श्लोकों को पढ़ने में कठिनाई हो तो अपनी भाषा में भी मन्त्रों के अर्थ को बोला जा सकता है। यह श्राद्ध है जिसमे सबसे ज्यादा महत्व श्रद्धा का है।
|| हरि ॐ||
(The great doctors of Gods-Ashwinikumars !). भाग - 4 (चिकित्सा के द्वारा चिकित्सा के द्वारा अंधों को दृष्टि प्रदान करना)